एक तेज़ धूप वाली दोपहर, मनिंदर मजूमदार अपनी दुकान में चॉप के पकौड़े तल रहे हैं. उत्तराखंड के उधम सिंह नगर ज़िले के नानकमत्ता क़स्बे की बंगाली कॉलोनी में रहने वाले मनिंदर कहते हैं, “सालों से यही रोज़गार है हमारा. इसके बिना न हमें रोटी मिलेगी, न आपको चॉप.” 

मनिंदर के दिन की शुरुआत सुबह पांच बजे ही हो जाती है. वह घर के काम निपटाकर इमली, बेसन, अंडे, और घर के लिए रोज़मर्रा की ज़रूरतों के सामान लेने जाते हैं. मूलतः बंगाली भाषी, मनिंदर बताते हैं, “मैं 1,200 रुपए की सात अंडे की क्रेट ख़रीदकर लाता हूं. इसके अलावा, जीरा, धनिया, मैदा का भी काफ़ी ख़र्च आ जाता है.” घर लौटकर मनिंदर दुकान जाने से पहले की तैयारियों में लग जाते हैं और घर पर ही चटनी बनाते हैं. इसके बाद, क़रीब दोपहर 12 बजे वह अपनी दुकान पर आ जाते हैं और लगभग रात 8 बजे तक दुकान चलाते हैं. 

मनिंदर को अपनी दुकान चलाते हुए आठ साल हो चुके हैं. उनकी पत्नी मीनू मजूमदार घर के काम संभालने के साथ-साथ दुकान के कामों में  उनका हाथ बटाती हैं. मनिंदर कहते हैं, “अगर बीवी मदद न करे, तो मैं अकेले दुकान नहीं चला पाऊंगा.” मनिंदर की तीन बेटियां हैं, और तीनों की शादी हो चुकी है. मनिंदर के दो बेटे भी थे, लेकिन इनमें से एक का देहांत हो गया था. (मनिंदर अपने बेटों के बारे में बात नहीं करना चाहते.) उनके दो पोता-पोती भी हैं. 


तारीख़ के पन्नों से

मनिंदर मजूमदार, नानकमत्ता शहर में स्थित जिस बंगाली कॉलोनी में रहते हैं उसके बनने की कहानी इतिहास के पन्नों से जाकर जुड़ती है. मनिंदर और उनका परिवार हमेशा से ही यहां नहीं रहता था. मनिंदर बताते हैं कि 1964 में जब बांग्लादेश, पाकिस्तान से अलग नहीं हुआ था, लेकिन संघर्ष की स्थितियां बनी हुई थीं. उस समय पाकिस्तान के खुलना ज़िले (अब बांग्लादेश में) के एक छोटे से गांव में मनिंदर का परिवार रहता था. तब उनकी उम्र मात्र 11 साल थी, और उन्हें अब गांव का नाम याद नहीं रहा. इसी साल (1964) मनिंदर के इलाक़े में, जहां मूलतः बंगालियों का निवास था, दंगाइयों ने हमला बोल दिया और उनके घरों में आग लगा दी. इनमें से एक घर मनिंदर मजूमदार का भी था.

मनिंदर बताते हैं, “मैं अपने घर पर ही था, और शाम के लगभग 4 बज रहे होंगे. मम्मी-पापा ने सभी कपड़े-बर्तन और राशन को थैलों में भरा और हमने अपना घर छोड़ दिया.” सितंबर महीने की उस ठंडी शाम को मनिंदर मजूमदार का पूरा परिवार और उनके गांव के सैकड़ों लोग अपना घर छोड़कर भागे. मनिंदर उस मंज़र को बयान करते हुए कहते हैं, “कहीं आग लगी थी, कहीं मारपीट हो रही थी. लोग रो रहे थे और भागे जा रहे थे. कोई अपने रिश्तेदारों के घर जा रहा था, कोई अपने जान-पहचान वालों के घर भाग रहा था, और हम भारत आ गए.”


आलू चॉप या अंडा चॉप एक बंगाली व्यंजन है. जिसमें बेसन, कॉर्न फ्लोर, बेकिंग सोडा, मिश्रित मसालों और पानी के घोल में मैश्ड आलू या अंडा लपेटकर पकौड़े की तरह तल लिया जाता है. मनिदर के ठेले पर खाने के लिए गर्मागर्म चॉप, हरी चटनी, और अंडे मौजूद होते हैं. लेकिन हालिया समय में उनका व्यापार काफ़ी धीमा हो गया है. मनिंदर बताते हैं, “आजकल ग्राहक बहुत कम आते हैं, और दिन के 100-150 रुपए कमाना भी बहुत मुश्किल हो गया है. मैं जितनी मेहनत करता हूं उतना फल मिलना बंद हो गया है, और मेरे लिए घर चलाना बहुत मुश्किल हो रहा है.” मनिंदर दुखी आवाज़ में आगे कहते हैं, “कभी-कभी तो मन करता है कि यह काम ही छोड़ हूं, लेकिन इसके अलावा कोई दूसरा काम मुझे नहीं आता है. अब 60 वर्ष की उम्र में परिवार का पेट पालने के लिए और क्या कर सकता हूं.”

मनिंदर कहते हैं, ‘अब 60 वर्ष की उम्र में परिवार का पेट पालने के लिए और क्या कर सकता हूं?’ तस्वीरें: प्रकाश चंद

मनिंदर को नहीं मालूम कि उनके परिवार ने भारत आने का फ़ैसला क्यों किया था. उनके परिवार ने तमाम संघर्षों से जूझते हुए सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय की थी और भारत की सीमा के पास पहुंच गया था. इसके बाद, उन्होंने बंगाल की इच्छामती नदी को छोटी से नाव से पार किया था और पश्चिम बंगाल के बनगांव की धरती पर अपना क़दम रखा था, जहां से वे कोलकाता चले गए थे. मनिंदर कभी स्कूल नहीं गए थे, और उनके परिवार का कोई भी सदस्य पढ़ा-लिखा नहीं था. मनिंदर बताते हैं, “हिंदुस्तान पहुंचकर हम सब बहुत डरे हुए थे, और छिपते-छिपाते कोलकाता पहुंचे थे. हमें डर था कि कहीं पुलिसवाले हमें पकड़ न लें, कोई हमें पहचान न ले.” उत्तर प्रदेश के पीलीभीत ज़िले में  उनके दूर के एक चाचा रहते थे, जहां उनके परिवार ने जाने की ठानी थी. मनिंदर बताते हैं, “एक ट्रक पर सवार होकर हम पीलीभीत चले गए.”

पीलीभीत से कुछ किलोमीटर दूर स्थित गभिया गांव पहुंचकर, मनिंदर मजूमदार के परिवार ने दिहाड़ी-मज़दूरी करके पेट पालने का फ़ैसला किया. मनिंदर भी 11 साल की उम्र में खेतिहर मज़दूरी करने लगे, जिसके लिए उन्हें हर रोज़ ढाई रुपए मिल जाते थे. आने वाले सालों में धीरे-धीरे उनका परिवार वहां पूरी तरह बसने में कामयाब रहा. लेकिन, साल 1972 में मानसून के समय शारदा नदी में आई बाढ़ ने एक बार फिर उनके परिवार की ज़िंदगी तहस-नहस कर दी, और घर से लेकर खेत, सबकुछ बाढ़ के पानी के साथ बह गया. अब मनिंदर के परिवार के लिए रिश्तेदार (चाचा) के साथ रहना मुश्किल हो गया. 


मनिंदर ने ख़ुद से ही अपनी साइकल के पीछे वाले हिस्से में ठेला जोड़ लिया है, और इसी से वह अपनी दुकान आते-जाते हैं. उनके इस ठेले पर अंडे के ट्रे, इमली की चटनी, गैस और चूल्हा, बेसन और अंडे की चॉप रखी होती है. वह बताते हैं, “आठ साल पहले जब मैंने अपने कारोबार की शुरुआत की थी, तभी यह ठेला अपने हाथों से बनाया था.” मनिंदर का कहना है कि कारोबार के शुरुआती वर्षों में उनकी आर्थिक स्थिति काफ़ी बेहतर थी. लेकिन कुछ वर्ष पहले, काम के दौरान हुई एक दुर्घटना में उनके सीने की हड्डियों पर फ्रैक्चर हो गया था, और उन्हें लंबे समय तक बिस्तर पर ही रहना पड़ा था. मनिंदर कहते हैं, “वह ऐसा वक़्त था, जब सबकुछ चला गया. मेरी सारी मेहनत बर्बाद हो गई थी और बचत का सारा पैसा मेरे इलाज में ख़र्च हो गया था.” लंबे अरसे तक चले इलाज के बाद जब वह बेहतर होने लगे, तो उन्होंने फिर से काम शुरू करने का फ़ैसला किया.


साल 1972 में बाढ़ से हुई तबाही के बाद, जब मनिंदर 24 वर्ष के हो चुके थे, मज़दूरी करने के लिए दूसरे ज़िलों और राज्यों में जाने लगे थे. इसी सिलसिले में, वह नानकमत्ता के किसी के खेत में मजूरी करने आए थे. मनिंदर बताते हैं, “मुझे तब पीलीभीत में हर रोज़ ढाई रुपए की दिहाड़ी मिलती थी, लेकिन नानकमत्ता में एक दिन के पांच रुपए मिलते थे. यहां रहकर काम करने में ज़्यादा फ़ायदा था.” मनिंदर को नानकमत्ता में काम करने के दौरान ही मालूम चला था कि यहां कुछ ऐसे बंगाली निवास करते हैं जो पाकिस्तान से आए थे. मनिंदर कहते हैं, “मैंने देखा कि पाकिस्तान के हमारे गांव (जो अब बांग्लादेश में है) के भी कुछ लोग यहां रहते थे, तो मेरा भी यहीं बस जाने का मन हुआ. अब चाचा को भी हम और परेशान नहीं करना चाहते थे. इसलिए कुछ समय बाद हम यहां आ गए, और हमने भी यहीं अपनी झोपड़ी डाल ली.” समय के साथ मनिंदर ने यहां पर ज़मीन ले ली, और ईंट का मकान खड़ा कर लिया. 


आज मनिंदर के पास अपना राशन कार्ड है, उनके पहचान-पत्र बन चुके हैं, जो उन्हें एक भारतीय नागरिक के रूप में रहने में मदद करते हैं. लेकिन उनके पास जन्म प्रमाण-पत्र नहीं हैं, जिसकी वजह से उन्हें कई बार समस्याओं का सामना करना पड़ता है. मनिंदर कहते हैं, “मेरा जन्म तो पाकिस्तान में हुआ था, अब वहां से कैसे ले आएं जन्म प्रमाणपत्र. इन काग़ज़ात का कोई फ़ायदा भी नहीं है, क्योंकि हमें इस तरह का काम ही नहीं पड़ता, जिसमें इन काग़ज़ों का इस्तेमाल होता हो. हम जो कर रहे हैं बस उसी पर ध्यान लगाते हैं.” 

अपनी 15 रुपए की स्वादिष्ट चॉप से खानेवालों के चेहरे पर मुस्कान ले आने वाले मनिंदर ज़िंदगी के बारे में कहते हैं, “दौड़भाग और कड़ी मेहनत से भरी इस ज़िंदगी में ख़ुशी कहां ढूंढें बताइए. हर समय रोज़गार की ही चिंता लगी रहती है.”

Editor's note

प्रकाश चंद, उत्तराखंड के उधम सिंह नगर ज़िले के नानकमत्ता पब्लिक स्कूल में 10वीं के छात्र हैं. वह अपने इलाक़े के 'गुज्जर' समुदाय पर एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म भी बना चुके हैं. प्रकाश कहते हैं, “पारी के साथ इस स्टोरी पर काम करते हुए मुझे यह महसूस हुआ कि मैं अपने ही गांव के लोगों के बारे में कितना कम जानता हूं. मुझमें समझ पैदा हुई कि समुदायों का इतिहास उनके किस्से, कहानियों, और वृत्तांतों में ज़िंदा रहता है. मेरे लिए मनिंदर जी की कहानी को शब्दों में बयान करना बहुत चुनौती भरा था. लेकिन, उनकी स्टोरी लिखते हुए मैंने न सिर्फ़ विस्थापितों के बारे में जाना, बल्कि उनके संघर्षों और पीड़ाओं को भी समझने का मौक़ा भी मिला.”