
यह स्टोरी मूल रूप से ओड़िया में ही लिखी गई थी. पारी एजुकेशन, भारत के अलग-अलग इलाक़ों के तमाम ऐसे छात्रों, शोधार्थियों, और शिक्षकों के साथ मिलकर काम कर रहा है जो अपनी पसंदीदा भाषा में हमारे लिए लेखन, रिपोर्टिंग, और इलस्ट्रेशन कर रहे हैं.
कडकला हाट में मुर्गों की लड़ाई में ‘जीतने वाला सारा पैसा’ लेकर जाता है.
राजू मुंडा ने लड़ाई में अपने मुर्गे को उतारने के लिए 500 रुपए ख़र्च किए हैं. अगर वह जीतते हैं, तो उन्हें अपना पैसा तो वापस मिलेगा ही, साथ ही वह प्रतिद्वंदी के मुर्गे को भी जीत लेंगे. अगर उनके पास लड़ाई में उतारने के लिए बड़े मुर्गे होते, तो उन्हें 2,000 रुपए तक का शुल्क जमा करना पड़ता और जीतने पर उन्हें अपने पैसे वापस मिलने के साथ एक बड़ा मुर्गा भी मिल जाता!
केंदुझार ज़िले (जिसे क्योंझर भी कहा जाता है) के बंसपाल ब्लॉक के इस हाट में मुर्गों की लड़ाई एक जाना-पहचाना खेल है. इस ब्लॉक में रहने वाले आधे से ज़्यादा लोग भुइयां, मुंडा, और जुआंग आदिवासी समुदायों से ताल्लुक़ रखते हैं. यहां के बुज़ुर्ग बताते हैं कि यह हाट 1960 या उससे भी पहले से लगता रहा है.
ये लड़ाईयां सामान्यतः अक्टूबर से फरवरी माह के बीच आयोजित की जाती हैं, जो इस क्षेत्र में कृषि के लिहाज़ से काफ़ी व्यस्त मौसम होता है. जुलाई के दौरान बोई गई धान की फ़सल के साथ-साथ मूंग, उड़द (स्थानीय रूप से इसे बीरी कहा जाता है), और तूर दाल (इसे स्थानीय रूप से हरड़ के नाम से जाना जाता है) जैसी फ़सलें इस समय तैयार हो जाती हैं. 2011 की जनगणना के मुताबिक़ इस ज़िले की कुल जनसंख्या 1,02,527 है, जिसमें से अधिकांश खेतिहर मज़दूर और किसान हैं.
हम वेजीडीही और उसके आसपास के गांवों में रहने वाले चार छात्र हैं, जो हर शुक्रवार सुबह से शाम तक आयोजित होने वाले इस साप्ताहिक बाज़ार का दस्तावेज़ीकरण करने के लिए अपनी शिक्षिका दीप्तिरेखा पात्रा के साथ यहां आए हैं. 2021 के सत्र की लड़ाईयां अब शुरू होने लगी हैं. पिछले कुछ सालों में पुलिसिया कार्रवाई के डर से इन्हें आयोजित नहीं किया जा सका था. पशुओं के प्रति क्रूरता निवारण अधिनियम 1960 के अध्याय 3, धारा 11, (एम), (ii), (एन), के मुताबिक़, ‘…किसी जानवर को लड़ने के लिए बाध्य करना एक दंडनीय अपराध है, जिसके ख़िलाफ़ 10 से 100 रुपए का जुर्माना भरना पड़ सकता है.’
वहां किसी ने हमें तस्वीरें नहीं लेने दी; उन्हें चिंता थी कि इससे उनकी पहचान कर ली जाएगी. वे लोग खेल देखने में इतने ज़्यादा तल्लीन थे कि उनके पास हमारे सवालों का जवाब देने या हमारी तरफ़ देखने का भी समय नहीं था.



बाएं: प्रतियोगी तैयार हो रहे हैं. कडकला हाट पर होती एक लड़ाई. तस्वीरें पबित्रा बेहरा ने ली हैं. दाएं: दो मित्र मुर्गों की लड़ाई की तैयारी करते हुए. तस्वीर: अंकित बेहरा
तलकडकल पंचायत में आयोजित कडकला (जिसे कोडकला भी कहा जाता है) हाट, प्रसिद्ध खंडधर झरने से केवल 26 किलोमीटर दूर है. एक ही ब्लॉक के नयाकोट एवं सिंहपुर, और क्योंझर सदर ब्लॉक के कलंदा से ख़रीदार और विक्रेता इस हाट में आने के लिए 30 किलोमीटर तक का सफ़र तय करते हैं.
58 वर्षीय वसंता नायक यहां मसाला बेचने आई हैं. वह अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए बताती हैं कि उस दौरान हाट कैसा था. “पहले इस बाज़ार में कुछ ही लोग हाथ से बने बांस के बर्तन से लेकर काले चने और सरसों जैसे घरेलू सामान ख़रीदने आते थे. वे अपने टिफ़िन में अपना खाना लेकर आते थे, क्योंकि यहां खाने को कुछ नहीं मिलता था. उस समय आने-जाने के लिए कोई सवारी नहीं मिलती थी, इसलिए लोग बड़े-बड़े समूहों में आते थे और [एक बार बाज़ार उठने पर] वापस जाने के लिए जंगल का रास्ता तय करने से बचते थे. इसके बजाय वे पास के किसी रिश्तेदार के यहां रुकते और अगली सुबह वापस लौटते.”
मुर्गों की लड़ाई देखने के लिए हाट में बहुत लोग इकट्ठा होते हैं, जैसा कि इस प्रतियोगिता के लिए जुटी भीड़ को देखते हुए कहा जा सकता है. खेल के लिए एक बहुत बड़े मैदान को साफ़ किया जाता है और उसके चारों ओर बांस के डंडे लगा दिए जाते हैं. लड़ाई एक गोलाकार मैदान में होती है और हाट में दिन भर में ऐसी 30 लड़ाईयां होती हैं. जो खेल आयोजक लड़ाई के लिए मैदान तैयार करते हैं उन्हें हर एक लड़ाई पर 100 से 200 रुपए मिलते हैं.
लोग राशन, बर्तन, मसाले, सब्ज़ियां, मुर्गियां, बकरी, मांस, मछली, वन उत्पाद जैसे शहद, आंवला, साल का रस (बांस के पेड़ से रस), मिट्टी के बर्तन, और बांस से बने सामानों की साप्ताहिक ख़रीदारी करते हुए ये खेल देखते हैं. वहां आप अपनी साइकल की मरम्मत करा सकते हैं, आइसक्रीम, नमकीन, समोसा, और खाने-पीने की अन्य चीज़ें भी ख़रीद कर खा सकते हैं.


कोरोना महामारी के कारण तालाबंदी के दौरान, सड़कों पर चारपहिया गाड़ियां चलते हुए देखी जा सकती थीं, लेकिन साइकल सवार गायब थे. यह 58 वर्षीय सुकुरु गिरि के लिए परेशानी की बात थी, जो साइकल मैकेनिक हैं और पिछले 30 सालों से साइकलों की मरम्मत कर रहे हैं. वह केंदुझार सदर के नरसिंहपुर के निवासी हैं और बताते हैं कि बाज़ार वाले दिन पांच से आठ सौ रुपए कमा लेते हैं. वह कहते हैं, “मैं कभी स्कूल नहीं जा पाया. मेरे चाचा ने मुझे साइकल की मरम्मत का काम सिखाया. मैं दुपहिया गाड़ियों के पंक्चर बनाने का काम भी करता हूं.”
64 वर्षीय धुबुली बेहरा हाट से 15 किमी दूर कुसकला गांव की रहने वाली हैं, जहां वह अपने गुज़र-बसर के लिए अपनी एक एकड़ की ज़मीन पर मानसून के दौरान चावल की खेती करती हैं. वह पिछले छह सालों से चूड़ियां बेच रही हैं और एक दिन में औसतन 300 से 400 रुपए कमा लेती हैं. वह बताती हैं, “पहले मैं हंडिया [महुआ के फूलों से तैयार की जाने वाली शराब] बेचती थी. लेकिन एक बार मेरे गांव में एक स्वयं सहायता समूह की बैठक हुई और वहां लोगों ने मुझे चूड़ियां बेचने की सलाह दी. भले ही मेरी कमाई थोड़ी कम हो गई है, लेकिन अब लोगों के बीच मेरी ज़्यादा इज़्ज़त है.” यहां एक दर्जन चूड़ियां 30 रुपए में बिकती हैं.


साल के दूध (शोरिया रोबस्टा) को स्थानीय भाषा में रश कहते हैं, और रमनी देहुरी इसे बाज़ार में बेचने के लिए पांच किमी दूर सुंदुरा गांव से चलकर आती हैं. वह बताती हैं, “पहले पेड़ों की संख्या ज़्यादा थी, तब साल (या शाखू) )के पेड़ से दूध इकट्ठा करना और पूजा के लिए रश तैयार करना ज़्यादा आसान था. अब जंगल में पेड़ों की कटाई से साल का दूध इकट्ठा करना बहुत कठिन हो गया है. मैं जंगल से बांस भी लेकर आती थी, ताकि उससे बांस की टोकरियां और बर्तन बना सकूं. मैं इन्हें बाज़ार में बेचकर लगभग 700 से 800 रुपए कमा लेती हूं.”
जब हम धर्मू बेहरा से मिले, तो उन्होंने कहा, “भले ही रोटी कम खाओ, लेकिन अपने बच्चों को ज़रूर पढ़ाओ.” उनकी पढ़ाई बचपन में ही छूट गई थी, क्योंकि उनके माता-पिता उनकी पढ़ाई का ख़र्च उठाने में असमर्थ थे. उन्होंने अपने पिता से मिट्टी के बर्तन बनाना सीखा, जो ‘कुम्हार का चाक’ इस्तेमाल करते थे. अब वह 52 वर्ष के हो चुके हैं. वह चाहते हैं कि उनके बच्चे पढ़-लिखकर दूसरा पेशा अपनाएं.
वह यहां से पांच किमी दूर वेजिडीही गांव से हाट में बर्तन बेचने आते हैं. वह हमारे एक सवाल के जवाब में कहते हैं, “मैं इन बर्तनों को अपने कंधे पर ढोकर लाता हूं. अगर मैं इतनी दूर गाड़ी से आऊंगा, तो मेरे बर्तन टूट जाएंगे.”
वह बताते हैं, “पहले लोग पानी को ठंडा करने के लिए इन बर्तनों का इस्तेमाल करते थे, लेकिन अब इनकी मांग कम हो गई है, इसलिए मैं एक हफ़्ते में लगभग एक हज़ार से बारह सौ रुपए कमाता हूं.” धर्मू मौसा अपना सामान बेचने के लिए केंदुझार सदर ब्लॉक के नरसिंहपुर और बंसपाल ब्लॉक के सुडंगा जैसे गांवों में लगभग 32 हाटों का दौरा करते हैं. वह बताते हैं कि जब वह छोटे थे, तब अपने पिता के साथ इन हाटों का दौरा करते थे.


बंसपाल प्रखंड के कुसकला गांव की 55 वर्षीया यामिनी गिरि विभिन्न प्रकार के मसाले, आलू, प्याज, लहसुन, तेल, सूखी मछली आदि बेच रही हैं. वह पिछले 20 सालों से भी ज़्यादा समय से हाट में आ रही हैं. वह यहां से 10 किमी दूर अपने गांव से हाट तक जिस गाड़ी से आती हैं, उन्हें उसके किराए के लिए 300 रुपए तक ख़र्च करने पड़ते हैं. वह हाट में बिक्री की शुरुआत के बारे में बताते हुए कहती हैं, “शादी के दस साल बाद मेरे पति चल बसे और मेरे लिए घर चलाना मुश्किल हो गया. मेरे लिए दिन भर में दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ करना भी मुश्किल था.”




माध्यमिक विद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों ने इस स्टोरी की रिपोर्टिंग की है. ये सभी छात्र एक गैर-सरकारी संगठन ‘एस्पायर (अ सोसायटी फ़ॉर प्रमोशन ऑफ़ इंक्लूसिव एंड रेलेवेंट एजुकेशन)’ और टाटा स्टील फ़ाउंडेशन के थाउज़ंड स्कूल प्रोजेक्ट के लर्निंग एन्हांसमेंट प्रोग्राम से जुड़े हुए हैं. उन्होंने अपने आसपास के परिवेश को समझने से जुड़े एक प्रोजेक्ट के हिस्से के तौर पर इस स्टोरी पर काम किया है.
पारी एजुकेशन की टीम इस स्टोरी को तैयार करने में मदद के लिए सुदीपा सेनापति, दीप्तिरेखा पात्रा, और स्मिता अग्रवाल को धन्यवाद देती है.
Editor's note
पबित्रा बेहरा, लीजा बेहरा, अंकित बेहरा, और शंकर बेहरा कडकला गांव के वेजिडीही उच्च प्राथमिक विद्यालय के कक्षा 4-5 के छात्र हैं.
अंकित कहते हैं, "मैं पहले इस बाज़ार में अक्सर कपड़े ख़रीदने आया करता था, लेकिन इस बार जब मैं अपनी शिक्षिका के साथ आया, तो पाया कि मैंने मुर्गों की लड़ाई जैसी कई चीज़ों को पहले नहीं देखा था. मैंने विक्रेताओं से भी बात की और उनके संघर्षों के बारे में जाना."
संविती अय्यर, पारी एजुकेशन के साथ इंटर्नशिप कर रही हैं और उन्होंने इस स्टोरी के लेखकों के साथ मिलकर काम किया है. आप उनके मूल लेख "कबाड़ीवालों पर तालाबंदी का असर" को यहां पढ़ सकते हैं, जो सितंबर 2021 में प्रकाशित हुआ था.
अनुवाद: प्रतिमा
प्रतिमा एक काउन्सलर हैं और फ़्रीलांस अनुवादक के तौर पर भी काम करती हैं.