
रिंकू यादव को अपनी आख़िरी सवारी (ग्राहक) को छोड़े हुए एक घंटे से ज़्यादा बीत चुका है.
इस समय, दिल्ली में दोपहर का तापमान 46 डिग्री सेल्सियस के आसपास है. बहुत कम लोग बाहर दिख रहे हैं और इसकी वजह से यादव थोड़े परेशान हैं. अपने बैटरी रिक्शा पर बैठे रिंकू कहते हैं, “ऐसे दिनों में हमें मुश्किल से कोई ग्राहक मिलता है.” उनके रिक्शे के साथ 10 अन्य रिक्शाचालक लाइन में खड़े हैं और न्यू गुप्ता कॉलोनी के पास एक क्रॉसिंग पर यात्रियों की प्रतीक्षा कर रहे हैं.
रिंकू (26 वर्ष) चिंतित स्वर में कहते हैं, “दोपहर में बाहर जाना और काम करना बहुत मुश्किल होता है. लोग भी ज़्यादा बाहर नहीं निकलते.” वह सवाल करते हैं, “बहुत ज़्यादा ठंड या गर्मी के कारण अगर मैं काम करना बंद कर दूं, तो मेरे परिवार को कौन पालेगा?”


यादव 11 साल पहले उत्तर प्रदेश के बाराबंकी ज़िले के फतेहपुर गांव से दिल्ली आए थे. उससे पहले, वह अपने गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ते थे. जब वह 9वीं कक्षा में थे, तो उनके पिताजी का देहांत हो गया, जिसके कारण उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ा. भाई-बहन में सबसे बड़ा होने के कारण, रिंकू को महसूस हुआ कि उन्हें अपनी मां रुक्मिणी देवी और छोटी बहन ज्योति को संभालना चाहिए. वह बताते हैं, “वह समय बहुत कठिन था. मेरे लिए यह ज़रूरी था कि मैं अपना गांव छोड़कर शहर में काम करने जाऊं और अपने परिवार की देखभाल करूं.” काम के अवसरों वाले बड़े शहर का रुख़ करना ही एकमात्र विकल्प था.
इसलिए, यादव 15 साल की उम्र में दिल्ली आ गए और एक किराने की दुकान पर डिलीवरी सहायक के रूप में काम करने लगे. यहां उन्हें लगभग 1,000 रुपए प्रति माह मिलता था. एक डेयरी कंपनी में जब उन्हें 1,600 रुपए के मासिक वेतन पर नौकरी मिली, तो उन्होंने किराने की दुकान छोड़ डेयरी पर काम करना शुरू कर दिया. वह अगले छह साल तक यहीं काम करते रहे और गुज़ारा करने के लिए संघर्ष करते रहे: “उस नौकरी से होने वाली कमाई से मैं बहुत मुश्किल से अपना परिवार चला पा रहा था.”
उन्होंने अपना पेशा बदलने का फ़ैसला किया, जब उनके मुताबिक़, “मैंने कुछ रिक्शा चालकों से बात की और पता चला कि मैं रिक्शा चलाकर इससे अधिक कमा सकता हूं.”
जब दिन अच्छा होता है, तो वह दिन के लगभग 600 रुपए तक कमा लेते हैं, लेकिन उनकी आधी से ज़्यादा कमाई उनके रिक्शे के दैनिक किराए के रूप में चली जाती है. वह बताते हैं, “ऐसा भी दिन होता है, जब मेरे पास किराए के भुगतान के लिए पर्याप्त पैसे नहीं होते. बस राहत इस बात की है कि मैं बैटरी रिक्शा चलाता हूं, तो मुझे पेट्रोल की बढ़ती क़ीमतों की कोई चिंता नहीं होती है.” बैटरी पर होने वाले किसी भी ख़र्चे को किराए के पैसों से भुगतान किया जाता है.
यादव कहते हैं कि वह ऑफ़िस की कोई नौकरी करने के बजाय हमेशा रिक्शा चलाने का विकल्प ही चुनेंगे. “मुझे किसी औपचारिक नौकरी में एक जगह बैठने के बजाय खुली हवा में रहना पसंद है.”


यादव का दिन सुबह 7 बजे शुरू हो जाता है और वह न्यू गुप्ता कॉलोनी के पास स्थित बस्ती में अपने कमरे पर रात 9 बजे ही लौट पाते हैं. कमरे पर लौटने के बाद, वह अपनी पत्नी नजमुन्निसा और एक वर्षीय बेटे अनस के फ़ोन कॉल का इंतजार करते हैं. लॉकडाउन के दौरान कमाने-खाने के अथक प्रयासों के बारे में बताते हुए वह कहते हैं, “हम बड़ी मुश्किल से महामारी में गुज़ारा कर पाए हैं.”
पहले दो लॉकडाउन के दौरान जब दिल्ली की सड़कों पर सार्वजनिक परिवहन की अनुमति नहीं थी, यादव अपने गांव फतेहपुर में स्थित घर पर रहे. यहां उन्होंने राशन पहुंचाने और खेती से जुड़े जैसे छोटे-मोटे काम किए. वह बताते हैं, “हमारे घर के पीछे कुछ ज़मीन है, जहां हम बेचने के लिए मूली और गोभी उगाते हैं.” बड़ी मुश्किल से थोड़ी-बहुत कमाई हो पाती थी. कमाने के लिए दिल्ली आने के बाद, वह साल 2022 के जनवरी महीने में घर जा पाए थे, और अपने तीन महीने के बेटे को पहली बार देखा था. वह अपने परिवार को अपने साथ दिल्ली में नहीं रख सकते हैं, ऐसा उनका कहना है, क्योंकि “किराया बहुत अधिक है.”
यादव तो ख़ुद स्कूल की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए, लेकिन वह चाहते हैं कि उनके बेटे को अपनी शिक्षा पूरी करने का मौक़ा मिले. वह चाहते हैं कि बेटे अनस की ज़िंदगी अलग हो, और साथ ही वह अनस की पढ़ाई के लिए बचत भी कर रहे हैं.
वह कहते हैं, “अगर चीज़ें बेहतर होतीं, तो मैं पलायन करके दिल्ली कभी आता ही नहीं.”
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Editor's note
पल्किन लोहिया, दिल्ली के रामजस कॉलेज में अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई कर रही हैं और स्नातक अंतिम वर्ष की छात्रा हैं. वह कहती हैं, “पारी एजुकेशन के साथ इंटर्नशिप ने मुझे मेरे सुविधाजनक दायरे से बाहर निकाला है. मैंने प्रवासी कामगारों के संघर्षों और उनसे जुड़े विभिन्न पहलुओं को देखा, जिनके बारे में आमतौर पर मुख्यधारा की मीडिया में कोई चर्चा नहीं होती है.”
अनुवाद: अमित कुमार झा
अमित कुमार झा, पेशे से अनुवादक हैं. उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई की है और अब जर्मन सीख रहे हैं.