मैं पढ़ना चाहता हूं, लेकिन जो पढ़ाया जा रहा है उसे मैं कम ही समझ पाता हूं. मैं छह साल के बाद स्कूल लौटा हूं. मेरा नाम हन्नान अंसारी है और मेरी उम्र 14 साल है, और मैं अपने माता-पिता और छोटे भाई के साथ रणपुर ख़ुर्द के पास स्थित एक छोटे से गांव बेनीपुर में रहता हूं.

हन्नान और उनकी मां साहिरा बानो, अपने घर के बाहर. फ़ोटो: शाइस्ता नाज़

जब मैं छह साल का था [2012], तब एक दुर्घटना की वजह से मेरी बाईं आंख में चोट लग गई थी. घाव तो भर गया, लेकिन अब मैं उस आंख से नहीं देख पाता हूं. जब मैं पढ़ाई में ध्यान लगाने की कोशिश करता हूं, तो मेरी दूसरी आंख में दर्द होने लगता है और सिरदर्द शुरू हो जाता है.  

दुर्घटना के बाद शुरुआती कुछ सालों तक, मैं अपनी आंख के ठीक होने का इंतज़ार करता हुआ घर पर ही रहा. इसलिए, मैं 6 से 12 साल की उम्र तक स्कूल नहीं गया. उसके बजाय, मैं अपने पिता, मोहम्मद बिस्मिल्लाह अंसारी के साथ काम करने लगा, जो बतौर मोटर वाहन पेंटर के रूप में काम करते हैं. उन सालों में, मैं अपने दोस्तों को स्कूल जाते हुए देखता, और ख़ुद को बहुत अकेला महसूस करता.

इसलिए 2019 में, पूरे छह साल के बाद, मेरे पिता ने मुझे वापस स्कूल भेजने का फ़ैसला किया. शिक्षक मुझे स्वीकार करने के लिए राज़ी नहीं थे और मुझसे कहा गया कि प्राथमिक विद्यालय में पढ़ने के लिए मेरी उम्र बहुत ज़्यादा है. चूंकि मैं उस समय 12 साल का था, तो उन्होंने मुझे बेनीपुर गांव के सरकारी स्कूल, माध्यमिक शाला की कक्षा 7 में डाल दिया. मैंने हाल में ही कक्षा 8 की पढ़ाई पूरी की है और मैं 14 वर्ष का हूं. मेरा 9वीं कक्षा में दाख़िला होना अभी बाक़ी है. मेरा नौ साल का भाई लुकमान अंसारी भी बेनीपुर के प्राथमिक स्कूल में तीसरी कक्षा में पढ़ता है.

एक दुर्घटना के चलते अपनी एक आंख की रोशनी खो बैठे और 6 साल तक स्कूल नहीं जा पाने वाले हन्नान बताते हैं, ‘मैंने हाल में ही 8वीं की पढ़ाई पूरी की है और मेरी उम्र 14 है.’ फ़ोटो: शाइस्ता नाज़

मेरा परिवार बेनीपुर में 80 साल से अधिक समय से रह रहा है. मेरे परदादा झारखंड के गढ़वा क्षेत्र से यहां रहने आए थे. मेरे गांव के ज़्यादातर लोग मज़दूर, मैकेनिक, और दर्जी के रूप में, यहां से लगभग 50 किलोमीटर दूर स्थित ज़िला मुख्यालय, अंबिकापुर में काम करते हैं. 

मार्च 2020 में जब लॉकडाउन शुरू हुआ, तो स्कूल ने मुझे ऑनलाइन क्लास करने के लिए कहा. मेरे पास स्मार्टफ़ोन नहीं है. मैंने सोचा कि ऐसे छात्र जिनके पास स्मार्टफ़ोन हैं, मैं उनके साथ मिलकर क्लास ले लूंगा, लेकिन जिस वक़्त मैं अपने परिवार की मदद के लिए दिहाड़ी मज़दूरी करने में मसरूफ़ था, मेरे सहपाठियों ने पहले ही अपने ग्रुप बना लिए. इसलिए, मैं अप्रैल से जून 2020 तक एक भी ऑनलाइन क्लास में शामिल नहीं हो सका. जून में गर्मी की छुट्टियों की वजह से कक्षाएं बंद हो गई थीं. 

लॉकडाउन (अप्रैल से जून 2020) के दौरान, मैकेनिक शॉप पर मेरे पिता के पास कोई काम नहीं बचा था, इसलिए उन्होंने दिहाड़ी करना शुरू कर दिया और मैं भी उनका हाथ बटाने लगा. हमने अंबिकापुर में एक कन्स्ट्रकशन साइट पर काम किया, जहां हमें ईंटें और रेत के भारी ढेर उठाने पढ़ते थे. इतने भारी बोझ को सिर और कंधों पर ले जाने से, मेरी आंखों में और सिर में दर्द होता है; ठीक उसी तरह का दर्द जैसा मुझे कुछ ध्यान लगाकर पढ़ने पर होता है.

माथे और कंधों पर किसी भी तरह का भारी वजन उठाने पर, हन्नान के आंखों और सिर में तेज़ दर्द शुरू हो जाता है; ठीक वैसे ही जैसे कुछ पढ़ते वक़्त, ध्यान लगाने से होता है. फ़ोटो: शाइस्ता नाज़
हन्नान के लिए अपने स्कूल की ओपन क्लासेज़ (जहां शारीरिक दूरी बरक़रार रखना मुमकिन है) में जाना हफ़्ते में सिर्फ़ दो बार संभव हो पाता है, क्योंकि वह अब भी मेकैनिक शॉप पर अपनी पिता की मदद करते हैं. फ़ोटो: शाइस्ता नाज़

जब अक्टूबर में स्कूल फिर से खुला, तो शिक्षकों ने गांव की मस्ज़िद के पास सप्ताह में पांच दिन ‘मोहल्ला क्लासेज़’ चलाना शुरू कर दिया. यह एक खुला मैदान था, जहां हम एक दूसरे से कुछ दूरी बनाकर बैठ सकते थे. इन कक्षाओं में गांव के क़रीब 25 छात्रों ने हिस्सा लिया. यहां हमें पाठ्यपुस्तकों और नोटबुक्स के साथ आना पड़ता था. मैं सप्ताह में केवल दो बार इन कक्षाओं में जा सकता था, क्योंकि मुझे मैकेनिक शॉप पर अपने पिता की मदद करना जारी रखना था, जोकि उसी महीने फिर से खुल गई थी. 

लॉकडाउन का दूसरा साल

मार्च 2021 में, मेरी 30 वर्षीय मां साहिरा बानो बीमार पड़ गईं और उनकी पीठ में काफ़ी दर्द रहने लगा; और उन्हें दवाओं की ज़रूरत थी. हमने बचत की ज़्यादातर रक़म उनकी देखभाल पर ख़र्च कर दी. वह आम तौर पर सुबह 5 बजे उठती हैं, खाना बनाती हैं, और फिर हमारी आठ बकरियों को चराने ले जाती हैं. लेकिन जब वह बीमार पड़ीं, तो उनके लिए इनमें से कोई भी काम करना संभव नहीं रह गया. 

दूसरे लॉकडाउन की घोषणा अप्रैल 2021 में की गई थी. इस बार मज़दूरी के बजाय, मैंने और मेरे पिता ने सब्ज़ी बेचने का फैसला किया. हम सुबह 5 बजे उठ जाते और मोटरसाइकिल से 15 और 25 किलोमीटर दूर धरमजयगढ़ ब्लॉक के परसा और बरियान गांव में सब्ज़ी ख़रीदने जाते थे. वहां से हम ताज़ा सब्ज़ियां बेचने के लिए अंबिकापुर के बाहरी इलाक़े तक 10-20 किलोमीटर की यात्रा करते थे.

हम एक दिन में 80 रुपए तक कमा सकते हैं. ऐसे दिन भी आते हैं जब हम ज़्यादा बिक्री कर पाते हैं या ज़्यादा तरह की सब्ज़ियां रखते हैं, और 150 रुपए तक कमा सकते हैं. शुरुआत में, हमने अपने पड़ोसी से 30 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से एक ठेला किराए पर लिया था. वह महंगा था, इसलिए हम इसके बजाय अब फुटपाथ पर बैठकर बेचते हैं. आज मैंने गांव से 5 किलो मूंगफली और 5 किलो करेला बेचने के लिए ख़रीदा है.

शुरुआत में, हन्नान और उनके पिता ने सब्ज़ियां बेचने के लिए 30 रुपए/दिन के किराये पर ठेला लिया था. लेकिन, आगे चलकर जब यह महंगा पड़ने लगा, तो अब वे सबसे नज़दीक के क़स्बे अंबिकापुर के बाहरी इलाक़ों में फ़ुटपाथ पर सब्ज़ियां बेचते हैं. फ़ोटो: शाइस्ता नाज़

अभी हमारे लिए अकेली राहत की चीज़, सरकार से मिलने वाला राशन है. [छत्तीसगढ़ खाद्य एवं पोषण सुरक्षा अधिनियम, 2012 के तहत साल 2014 से अंसारी जैसे परिवार, हर महीने एक रुपए प्रति किलोग्राम के हिसाब से 35 किलोग्राम चावल और गेहूं के हकदार हैं.] ये राशन हमारे लिए काफ़ी नहीं है. 14 मई, 2021 को ईद के दिन मेरे पिता ने हमारे लिए सेवई ख़रीदी थी. मेरा छोटा भाई कुछ मांसाहारी खाने की बहुत गुज़ारिश कर रहा था, तो मेरे पिता पास के एक दुकान गए और कुछ चिकन ख़रीदा. उस ख़रीदारी में हमारी एक दिन से अधिक की कमाई चली गई.

जब हालत फिर से सामान्य जाएंगे, तो मैं अपनी पढ़ाई पूरी करना हूं और कपड़ों का व्यवसाय शुरू करना चाहता हूं. मेरे पिता कहते हैं कि वह मेरी मदद करेंगे. हम एक स्कूटर ख़रीदना चाहते हैं और थोक में कपड़े ख़रीदना चाहते हैं. फिर मैं आस-पास के इलाक़ों में स्कूटर चला कर जा सकता हूं और उन्हें बेच सकता हूं. मुझे लगता है कि यह नौकरी मेरे लिए सबसे बढ़िया होगी, क्योंकि इससे मेरी आंखों का दर्द बढ़ने की गुंजाइश न के बराबर रहेगी.

दुर्घटना और उसके बाद

मुझे वह तारीख़ याद है जिस दिन मेरी आंख चली गई थी. 10 अक्टूबर, 2012 का दिन था. हालांकि, जब ये हुआ था मैं काफ़ी छोटा था, केवल छह साल का, लेकिन मैंने अपने दस्तावेज़ों पर उस तारीख़ को इतनी बार देखा है कि मुझे वह अब याद हो गयी है.

मैं सरगुजा ज़िले के गांव भादर में अपने नानी के घर में था. मैं रबी के सीज़न में अरहर की खेती में मदद के लिए गया था. मैं खेतों से निकलकर नहाने और खाना खाने के लिए घर वापस गया. मेरे मामा ताज़े चुने हुए खीरे खा रहे थे और मैंने भी चाहा कि कुछ खीरे खा लूं. उन्हें छीलते समय, मैं जिस चाकू का इस्तेमाल कर रहा था वह ग़लती से मेरी बाईं आंख में चला गया. मैं दर्द से कराह उठा और आंख मसल ली. उस वक़्त को याद करते हुए, आज मुझे सिर्फ़ ख़ून, पानी, और धुंध याद आता है.

मेरे पिता लगभग 50 किलोमीटर दूर अंबिकापुर क़स्बे में मैकेनिक शॉप पर काम कर रहे थे, वह भागते हुए घर आए. वह मुझे सबसे पास के बड़े शहर, राजपुर में स्थित एक प्राइवेट डॉक्टर के पास ले गए, जिसने ऑपरेशन करने से मना कर दिया, क्योंकि घाव बहुत गहरा था. इसके बाद, हमने अंबिकापुर शहर के एक प्राइवेट क्लिनिक में इलाज कराने की कोशिश की. उन्होंने राहत के लिए आई ड्रॉप डालने की सलाह दी और हमें प्रदेश की राजधानी रायपुर जाने को कहा. अगले दिन, मेरे दादा, माता-पिता, और मैंने रायपुर के लिए रात की बस ली और बी.आर. आंबेडकर मेमोरियल अस्पताल पहुंचे. हम सभी जल्द से जल्द वहां पहुंचने के लिए बेताब थे. बाद में मुझे पता चला कि मेरे माता-पिता ने मेरे इलाज के लिए बचत के सारे पैसे ख़र्च कर दिए थे और हमारे रिश्तेदारों ने भी मेरे इलाज के लिए लगभग 30,000 रुपए की मदद की थी.

हम दुर्घटना के बाद छह से सात बार नियमित जांच के लिए डॉक्टर के पास गए. कुछ महीनों में मेरी आंख तो ठीक हो गई, लेकिन आंख की रोशनी वापस नहीं आई. रायपुर के प्राइवेट डॉक्टरों ने आंख निकालने और वहां पत्थर लगाने के दो लाख रुपए मांगे. मेरे पिता ने ऐसा नहीं करवाने का फ़ैसला किया, क्योंकि मेरी नज़र वापस आए बिना वहां पत्थर लगाने का कोई मतलब नही बनता था. हमने यह उम्मीद खो दी कि मैं फिर कभी उस आंख से देख भी पाऊंगा.

कुल मिलाकर, मेरे इलाज पर लगभग 50,000 रुपए ख़र्च हो गए, जिसमें छह महीने की दवाएं और रायपुर से आने-जाने का ख़र्च शामिल था.

मेरी आंख में चोट लगे काफ़ी समय बीत गया है. मुझे तो वह समय भी अब याद नहीं, जब मेरी दोनों आंखें ठीक थीं. पड़ोस में लोग हमारी पीठ-पीछे बातें करते हैं; वे मुझे अंधा कहते हैं. मुझे तो एक आंख से दुनिया देखने की आदत हो गयी है, इसलिए अगर लोग मुझे चिढ़ाते हैं, तो मुझे नहीं समझ आता कि वे मुझे किस बात के लिए चिढ़ा रहे हैं.

मेरे अपने क़रीबी और मेरे दोस्त, मेरा मजाक नहीं उड़ाते. मुझे उनके साथ समय बिताना अच्छा लगता था. हम अपने गांव के पास की झील के किनारे घंटों बैठा करते थे. अब कोविड और लॉकडाउन के कारण, वे सब अपने दादा-दादी के घर चले गए हैं. मुझे उनकी काफ़ी याद आती है.

Editor's note

शाइस्ता नाज़, दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर ऑफ़ फ़्रेंच और फ़्रैंकोफ़ोन स्टडीज़ से हाल ही में ग्रैजुएट हुई हैं. वह फ़िलहाल टीच फ़ॉर इंडिया की फेलो हैं, और नई दिल्ली के मुनिरका इलाक़े के एक सरकारी स्कूल में प्राइमरी के बच्चों को पढ़ाती हैं. छत्तीसगढ़ स्थित अपने गृहनगर अंबिकापुर की यात्रा में, शाइस्ता की हन्नान से मुलाक़ात हुई; जो फुटपाथ पर सब्ज़ियां बेच रहे थे. वहां मौजूद सारे सब्ज़ीवालों में उसकी उम्र सबसे कम थी. "मैं चाहती थी कि वह अपने जीवन के बारे में बात करें. मैं शिक्षा में समानता के विचार में गहरा विश्वास रखती हूं. युवा छात्रों से सामाजिक बदलाव की शुरुआत हो सकती है. मैं यह जानना चाहती थी कि वह स्कूल में क्यों नहीं थे. पारी-एजुकेशन के साथ काम करते हुए मुझे उन वजहों को समझने में मदद मिली जो बच्चों के भविष्य पर असर डालते हैं, ख़ास तौर वे वजहें जो कोविड महामारी आने के बाद पैदा हुई हैं.”

हिंदी अनुवादः पंखुरी ज़हीर दासगुप्ता

पंखुरी ज़हीर दासगुप्ता, दिल्ली में स्थित एक स्वतंत्र शोधकर्ता और लेखक हैं. पंखुरी नृत्य एवं नाटक में ख़ास रुचि रखती हैं. वह 'ज़िंदगी ऐज़ वी नो इट' नामक साप्ताहिक पॉडकास्ट की सह-मेज़बानी भी करती हैं.