अनुसूयाबाई (72 वर्ष) केवल एक जोड़ी चप्पल पहनकर चट्टानी रास्ते से होते हुए हरिश्चंद्रगढ़ पहाड़ी किले तक चली जाती हैं. वह पिछले एक दशक से पश्चिमी घाटी में 4,710 फीट की ऊंचाई पर स्थित इस किले की चढ़ाई करती आ रही हैं. उनके पर्वतारोहण का सिलसिला तब शुरू हुआ, जब उनके परिवार ने वर्ष 2012 में पहाड़ी की चोटी पर भोजनालय बनाने का फ़ैसला किया, जहां तक जाने का एकमात्र तरीक़ा ट्रेकिंग (चढ़ाई) करना ही था. इस पहाड़ी पर चढ़ाई करते वक़्त शरीर 60-80 डिग्री तक झुक जाता है और एक तरफ़ की तीन किलोमीटर की दूरी तय करने में क़रीब तीन घंटे का समय लगता है.

बाद में, अनुसूयाबाई और उनके परिवार ने पर्यटकों की बढ़ती संख्या को देखते हुए नीचे मैदानी इलाक़े में एक होमस्टे (अतिथियों के लिए बसेरा) भी शुरू किया. उनका पहाड़ चढ़ने का हुनर हो या घर के खाने का स्वाद, आज पर्वतारोहियों के बीच अनुसूयाबाई ख़ूब मशहूर हैं.

महाराष्ट्र की पारंपरिक नौवारी (नौ गज के कपड़े से बनी साड़ी) पहने हुए अनुसूया बडाड बताती हैं, “लोग मुझसे जूते के लिए पूछते हैं, लेकिन मैं चप्पल में ज़्यादा सहज महसूस करती हूं.” आमतौर पर, उनके साथ हमेशा एक सहायक होता है, जिसके साथ मिलकर वह पहाड़ी की चोटी पर स्थित अपने भोजनालय के लिए राशन ले जाती हैं. इस पहाड़ी पर यह एकमात्र ऐसी जगह है जहां पर्यटकों को भरपूर भोजन मिलता है और उनका स्वागत किया जाता है.

उनका लोकप्रिय भोजनालय लकड़ी के डंडों से और मिट्टी से बनी एक झोपड़ी में है. इस भोजनालय को हर भारी बारिश के बाद फिर से खड़ा करना पड़ता है. अनुसूयाबाई कहती हैं, “हम जानते हैं कि कब बारिश विनाशकारी रूप ले लेगी. इसलिए, हम सबसे ऊपर वाले होटल [भोजनालय] को पहले ही बंद कर देते हैं, ताकि हमारे मेहमान सुरक्षित रहें.” पुनर्निर्माण की प्रक्रिया में क़रीब दो सप्ताह लग जाते हैं.

परिवार द्वारा पर्यटकों के लिए बनाई गई एक दूसरी जगह हरिश्चंद्रगढ़ पहाड़ी की तलहटी में स्थित एक होमस्टे है. यह अहमदनगर ज़िले के अकोला ब्लॉक में पचनई गांव में स्थित है, जिसके एक तरफ़ एक किला और दूसरी तरफ़ जंगल है.

ऐसा माना जाता है कि हरिश्चंद्रगढ़ किला छठवीं शताब्दी में बना था और इस क्षेत्र में पर्यटकों के आकर्षण का एक बड़ा केंद्र है. अनुसूयाबाई बताती हैं, “हमारे पास जुलाई से दिसंबर के दौरान, प्रत्येक सप्ताहांत में लगभग 100-150 पर्यटक भोजन करते हैं. इस समय लोग एडवेंचर (अत्यंत विशिष्ट क़िस्म के) खेलों और जलप्रपात के मौसम का आनंद लेने के लिए आते हैं.” अनुसूयाबाई हर सप्ताहांत में, पर्यटकों की सेवा के लिए पहाड़ी पर चढ़ाई करती हैं. वह आगे कहती हैं, “यहां आने का सबसे अच्छा समय मार्च तक का होता है. उसके बाद, बमुश्किल ही कोई यात्री यहां आता है.”

गांव के ज़्यादातर घर ईंट और फूस के छप्पर से बने हैं, जिसे गाय के गोबर से लीपा जाता है. अनुसूया के घर में खाना पकाने और नहाने-धोने वाली जगह भी मिट्टी की बनी हुई है, और यहां रौशनी के लिए केवल एक बल्ब लगा हुआ है. खाना परोसने और यात्री विश्राम वाली जगह सीमेंट से बनी हुई है. दोपहर के भोजन में सब्ज़ी, चावल, दाल, और अचार के साथ रोटियां मिलती हैं, और यात्री जितनी चाहे उतनी रोटी ले सकते हैं. इसके लिए, यात्रियों को 150 रुपए चुकाने पड़ते हैं. सभी ख़र्चे निकाल देने के बाद, अनुसूयाबाई का परिवार हर हफ़्ते 5 से 8 हज़ार रुपए कमा लेता है.

यह अगस्त का महीना है, और जोशीले पर्वतारोहियों से भरी एक बस पहाड़ी के नीचे स्थित होमस्टे की पार्किंग (वाहन खड़ीं करने की जगह) में आकर रुकती है. अनुसूयाबाई के बड़े बेटे भास्कर बडाड, रात के उस अंधेरे में यात्रियों का स्वागत करने और उन्हें राह दिखाने के लिए दौड़ पड़ते हैं. वह उन्हें बताते हैं कि गाड़ी कहां खड़ी करनी है, और इस होटल/घर में घुसने से पहले जूते कहां उतारने हैं. उनकी छोटी बहू आशा, आई – अनुसूयाबाई को सभी लोग आई बुलाते हैं – यात्रियों के बैठने के लिए चटाई फैलाने में मदद करती हैं, साथ ही एक बर्तन में पीने के पानी की व्यवस्था करती हैं और पूरी समूह के लिए गर्मा-गर्म चाय तैयार करती हैं. जैसे ही यात्री बैठते हैं, अनुसूयाबाई के पति नाथू बडाड उनके साथ बातचीत करने लगते हैं और उनके सवालों का जवाब देते हैं. दूसरी ओर, भास्कर नाश्ता परोसने में मदद करते हैं. आमतौर पर वे नाश्ते के रूप में पोहा परोसते हैं. भास्कर कहते हैं, “2011-12 के बाद से पर्यटकों की संख्या में इज़ाफ़ा हुआ है.’

सप्ताह के अंत में पूरा परिवार दोनों भोजनालय को चलाने में व्यस्त रहता है, जबकि सप्ताह के बीच में अनुसूयाबाई और उनका परिवार अपनी 2.5 एकड़ ज़मीन पर धान की खेती में लगे रहते हैं. भास्कर (40 वर्ष) कहते हैं, “पहले हम केवल चार से पांच बोरी चावल ही उगा पाते थे. लेकिन आज ज़्यादा मेहनत और हाईब्रिड बीजों की मदद से हम 20-30 बोरी धान उगा लेते हैं. इसका अधिकांश [फ़सल] हिस्सा यात्रियों के खाने में इस्तेमाल हो जाता है.” बाक़ी बचे धान का इस्तेमाल परिवार अपने लिए करता है.

सप्ताह के अंत में आने वाले मेहमानों के लिए ज़रूरी सामान व राशन जमा करने के लिए, अनुसूयाबाई सोमवार और गुरुवार को भास्कर के साथ राजूर जाती हैं. राजूर, पचनई का निकटतम शहर है, जहां की सड़कें गड्ढों से भरी हैं. भास्कर कहते हैं, “दोनों जगहों के बीच की दूरी मुश्किल से 25 किलोमीटर है, लेकिन हमें मोटरसाइकिल से वहां पहुंचने में डेढ़ घंटे से ज़्यादा समय लगता है.”

पचनई गांव में क़रीब 155 घर हैं और इसकी आबादी क़रीब 700 है, लेकिन वहां रहने वाले लोगों का कहना है कि यहां नागरिक सुविधाओं की काफ़ी कमी है, यहां तक ​​कि पीडीएस का राशन भी नहीं आता है. अनुसूयाबाई कहती हैं, “हमारे गांव को बहुत पहले ही सरकारी राशन मिलना बंद हो गया था.” ऐसे में ग्रामीणों ने हालात को सुधारने की ज़िम्मेदारी अपने हाथ में ले ली. नाथू कहते हैं, “जब स्थानीय कुएं का पानी पीने योग्य नहीं बचा, तो हमने गांव में प्रवेश करने वाले पर्वतारोहियों के हर वाहन से एक से दो रुपए का छोटा सा कमीशन इकट्ठा करना शुरू किया और उस पैसे से झरने से पानी लाने के लिए मोटर और पाइप ख़रीदा.” हाल में, वन विभाग ने यहां सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण किया है.

अनुसूयाबाई का जन्म पड़ोस के कोठले गांव में हुआ था. केवल 16 साल की उम्र में उनकी शादी नाथू से कर दी गई थी, और इसके बाद वह पचनई में स्थित अपने ससुराल आ गई थीं. एक दशक के बाद, यह बड़ा परिवार बंटने लगा और उनमें से कुछ लोग बेहतर अवसरों की तलाश में शहरों की ओर चले गए. भोजनालय खुलने से पहले के अपने जीवन के बारे में याद करते हुए भास्कर कहते हैं, “आई हमारे साथ ही खेतों में काम करती थी, और पड़ोस के गांव नारायणगांव में भी दिहाड़ी मज़दूर के रूप में काम करने जाती थीं. उन्हें 12 घंटे के काम के लिए, 40-50 रुपए मिलते थे.”

पर्वतारोही भी हरिश्चंद्रगढ़ की चढ़ाई को कठिन मानते हैं. यह विशाल शिलाखंडों वाली पहाड़ी है, जिसकी चढ़ाई एकदम सीधी और खड़ी. इसमें कोई सीढ़ियां नहीं बनी हैं. वहीं झरने के नीचे वाला क्षेत्र फिसलन से भरा होता है, और इस चढ़ाई को ख़तरनाक बनाता है. रास्ते के कुछ हिस्सों में सामान को कंधे से उतार, यात्रियों को लगभग रेंगकर आगे बढ़ना पड़ता है. लेकिन, आई अपने सिर पर बोझ संभाले हुए ही पूरी चढ़ाई को पूरा कर लेती हैं.

इस साल की शुरुआत में, अनुसूयाबाई ने किले की कोकणकड़ा चोटी (1,800 फीट) से 500 फीट नीचे की ओर रैपलिंग (रस्सी के सहारे उतरना) की थी. वह कहती हैं, “मैं लंबे समय से उस चोटी से रैपलिंग करके नीचे उतरना चाहती थी, लेकिन एक बुज़ुर्ग की बात पर कौन ध्यान देता है.”

स्टुडेंट रिपोर्टर, इस स्टोरी को रिपोर्ट करने में मदद के लिए गणेश गीध और भास्कर बडाड का आभार व्यक्त करते हैं.

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Editor's note

ऋतुजा गायधनी, मुंबई के सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज (स्वायत्त) में जनसंचार और पत्रकारिता की अंतिम वर्ष की छात्रा हैं. शुभम रसाल ने 2021 में ठाणे के सतीश प्रधान ज्ञानसाधना कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई पूरी की है. दोनों का कहना है, “यह कहानी हमें एक ऐसी दुनिया के क़रीब ले गई जिसे हम जानते थे, लेकिन नज़रअंदाज़ कर देते थे. स्टोरी में शामिल ग्रामीणों ने समस्याओं को अलग नज़रिए से देख पाने में हमारी मदद की.”

अनुवाद: अमित कुमार झा

अमित कुमार झा एक अनुवादक हैं, और उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री हासिल की है.