
23 वर्षीय सचिन शर्मा की दुकान में रखे टैराकोटा के गमलों और रंग-बिरंगे सामानों को देखते हुए एक महिला ग्राहक कहती हैं, “भैया, 700 रुपए तो बहुत ज़्यादा हैं.” सचिन तय मूल्य पर ख़रीदने के लिए उन्हें मनाने की कोशिश करते हैं, लेकिन वह खाली हाथ ही वापस चली जाती हैं. मिट्टी के दूसरे सामानों के साथ मूर्तियों को लगाते हुए वह बताते हैं, “पहले की तरह अब ग्राहक नहीं मिल रहे हैं और जो आते हैं वे और भी ज़्यादा मोल-भाव करते हैं. अगर हम मूल्य नहीं घटाते हैं, तो लोग सामान नहीं ख़रीदते हैं. यह महामारी बहुत भारी पड़ी है.”
मिट्टी के सामानों के सचिन जैसे व्यापारियों को उम्मीद थी कि दिवाली के समय हालात सुधरेंगे, जब दीयों की बिक्री बढ़ेगी, लेकिन लॉकडाउन के चलते यह उम्मीद भी नहीं बची. दिवाली के समय उनका परिवार लखनऊ में चार जगहों पर दुकान लगाता है, लेकिन इस बार बहुत ही कम बिक्री हुई. एक महीने पहले तक वह 10,000-12,000 रुपए तक कमा लेते थे, लेकिन अब तो 5,000 रुपए भी मुश्किल से कमा पा रहे हैं. जब हम दिवाली के बाद मिले, तब उन्होंने बताया, “मैंने जितनी पूंजी लगाई थी उसकी आधी भी कमा नहीं पाया हूं. अमीर लोग घर से बाहर नहीं निकल रहे हैं और जो लोग आ रहे हैं वे मिट्टी के बर्तनों पर इतना ख़र्च नहीं करना चाह रहे हैं.” व्यंगपूर्ण ढंग से वह कहते हैं, “अगर आप खाना ख़रीदते हैं, तो छह महीने तक खा सकते हैं. लेकिन मिट्टी के बर्तनों का क्या करेंगे?”
38 वर्षीय मोहम्मद आरिफ़, मिट्टी के बर्तनों के व्यापारी हैं, जिनकी यहां से क़रीब पांच किलोमीटर दूर, इंदिरा नगर में एक दुकान है. आमतौर पर दिवाली में उनका सारा सामान बिक जाता था और उनको और भी मूर्तियों और टैराकोटा के सामानों का ऑर्डर देना पड़ता था. एक मटके की ओर इशारा करते हुए वह बताते हैं: “पिछले साल, लोग इसे 300-400 रुपए में ख़रीद लेते थे, लेकिन इस साल कुछ भी नहीं बिक रहा है. बहुत सारा सामान ऐसे ही पड़ा हुआ है. मुझे उधार लेकर अपने सप्लायरों को पैसा देना पड़ा.” वह कहते हैं, “मैं एक अच्छे दिन में 5,000 रुपए तक कमा लेता हूं, लेकिन अब तो उसका तीसरा हिस्सा भी नहीं कमा पा रहा हूं.”
चिनहट के मिट्टी के बर्तनों के व्यापारी, बिक्री के लिए सालाना लखनऊ महोत्सव प्रदर्शनी पर निर्भर रहते हैं, लेकिन लॉकडाउन की वजह से इसे 2020 के लिए रद्द कर दिया गया है. हस्तशिल्प कलाओं का यह 15-दिवसीय वार्षिक महोत्सव, तमाम ग्राहकों को आकर्षित करता है. उत्तर प्रदेश के पर्यटन विभाग के एक अफ़सर जो अपना नाम नहीं ज़ाहिर करना चाहते थे, बताते हैं, “हर साल चिनहट के मिट्टी के बर्तनों के 10-15 स्टॉल लगते हैं, और क़रीब 2-3 लाख लोग इन स्टॉल पर रोज़ आते हैं. ये लोग प्रतिदिन 10,000 से 50,000 रुपए कमा सकते थे.”

हर साल, सचिन और उनका परिवार आगरा और झांसी जैसे पड़ोसी शहरों में, और झारखंड जैसे पड़ोसी राज्यों में होने वाली प्रदर्शनियों में स्टॉल लगाते हैं. लेकिन, इस साल लखनऊ में अपनी ख़राब आमदनी के चलते वे लोग इससे कतरा रहे हैं. सचिन कहते हैं, “कोई भी इन प्रदर्शनियों पर पूरी तरह से निर्भर नहीं रह सकता है. अगर मैं किसी प्रदर्शनी में स्टॉल की जगह ख़रीद लूं, और कोई भी न आए, तो मुझे ग्राहकों को उनकी मुंहमांगी क़ीमत पर चीज़ें बेचनी पड़ेंगी. मैं इतना रुपया लगाने के बाद, ख़ाली हाथ तो वापस नहीं आ सकता हूं.”
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के मध्य भाग में स्थित चिनहट का फ़ैज़ाबाद रोड, एक समय में मिट्टी के बर्तनों की दुकानों का एक जीवंत केंद्र हुआ करता था. इसे ज़री-ज़रदोज़ी, चिकनकारी, और इत्र के साथ-साथ, लखनऊ की सबसे प्रसिद्ध हस्तशिल्प कारीगरी में गिना जाता था. इन मिट्टी या टैराकोटा के बने हुए सजावटी बर्तनों में आमतौर पर मूर्तियां, गुड़िया, धार्मिक मूर्तियां इत्यादि शामिल होती हैं. ये बर्तन चमकदार लाल, भूरे, और हरे रंगों में रंगे होते हैं और इन परसफ़ेद और नारंगी जैसे हल्के रंगों की विस्तृत चित्रकारी की जाती है. सचिन बताते हैं, “लोग टैराकोटा की मूर्तियों को ज़्यादा पसंद करते हैं, क्योंकि वे मोटी और परतदार होती हैं और जल्दी टूटती नहीं हैं. जो लोग टैराकोटा को सचमुच समझते हैं [और क़द्र करते हैं] वे लोग ज़्यादा मोल-भाव नहीं करते हैं.”
यूपी सरकार द्वारा ‘स्वदेशी और विशेष उत्पादों और शिल्प को प्रोत्साहित करने के लिए’ साल 2018 में शुरू की गई ‘एक ज़िला, एक उत्पाद योजना‘ में लखनऊ के चिनहट के मिट्टी के बर्तनों को शामिल नहीं किया गया था. उनमें सिर्फ़ चिकनकारी और ज़री-ज़रदोज़ी शिल्प शामिल थे.
चिनहट के मिट्टी के बर्तन शहर के और भी इलाक़ों में बिकते हैं, लेकिन लॉकडाउन की वजह से सभी जगहों पर नुक़्सान हुआ है. सिटी सेंटर से दूर, मवैया के एक व्यापारी, दिनेश कुमार बताते हैं, “साल की शुरुआत में जो सामान मैंने ख़रीदा था उसे बेचने में मुझे बहुत कठिनाई हो रही है. मार्च में लॉकडाउन लगने से पहले, एक दिन में मेरे पास 30-40 ग्राहक आ जाया करते थे, लेकिन अब तो 10 ग्राहक भी मुश्किल से आते हैं.”

सचिन चिनहट में ही बड़े हुए और अब भी अपने माता-पिता, बड़े भाई और भाभी के साथ वहीं रहते हैं. वह फ़ैज़ाबाद रोड पर एक किलोमीटर की लंबी दूरी तक अपनी उंगली से इशारा करते हुए बताते हैं, “पहले बाज़ार बहुत बड़ा हुआ करता था. यहां से पेट्रोल पंप तक दुकानें ही दुकानें हुआ करती थीं. अब तो यहां पर कुछ ही दुकानें रह गई हैं, जो एक व्यस्त रोड के दोनों तरफ़ फैली हुई हैं. मुझे नहीं पता कि भविष्य में क्या होगा, लेकिन मैं फ़िलहाल चाहता हूं कि जीवनयापन करने जितना ही कमाना लूं.”
सचिन की दुकान जैसी अस्थायी दुकानें फुटपाथ पर स्थित हैं और दिन ख़त्म होते ही दुकान के मालिकों को अपना सामान समेटकर साथ में ले जाना पड़ता है. निकाले जाने का डर और सामान का नुक़्सान होने का ख़तरा, बाक़ी विक्रेताओं को यहां पर दोबारा दुकान लगाने से रोकता है.
पिछले दो सालों में, सचिन पहले ही अपनी अस्थायी छप्पर से ढकी हुई दुकान को एक बार सड़क के दूसरी तरफ़ से उठा चुके हैं: “वहां के कुछ शोरूम वालों ने हमारी दुकानें हटवाने के लिए [नगर निगम से] शिकायत की थी. मैंने अपनी दुकान बचाने की बहुत कोशिश की, लेकिन नहीं बचा पाया.” वह अपना सामान दुकान के पीछे एक ख़ाली प्लॉट में रखते हैं. वह बताते हैं, “मैं किसी और के लिए इस प्लॉट की रखवाली करता हूं, इसलिए वह मुझे यहां सामान रखने की इजाज़त देते हैं. लेकिन, अगर वह इस प्लॉट को बेचते हैं या इस पर इमारत बनाते हैं, तो मुझे कोई और जगह ढूंढनी पड़ेगी.”
दुकान के पीछे पेंट के डिब्बे और मिट्टी की मूर्तियां रखी हैं. सचिन कहते हैं, “मैं जानवरों, लोगों, और सजावटी मूर्तियों को रंगता हूं. मैंने यह दूसरों को देखकर सीखा है. पहले, मैं सिर्फ़ तांबे का और सुनहरे रंग का प्रयोग करता था, लेकिन अब मैं बहुत सारे रंगों का प्रयोग करता हूं.”
पिछले कुछ सालों में, चिनहट में मिट्टी के बर्तनों के व्यापार में गिरावट आई है और अब व्यापारी उत्तर प्रदेश के काकोरी और गोरखपुर से या असम के सिलीगुड़ी कैसी काफ़ी दूर स्थित जगह से भी ख़रीदारी करते हैं.
61 वर्षीय इस्मत-उल निसार, चिनहट में ही पली-बढ़ी हैं और उनका परिवार पिछले 25 सालों से मिट्टी के बर्तन बना और बेच रहा है. उनकी दुकान सचिन की दुकान की दूसरी ओर है. उनके परिवार में कुछ आदमी अब भी कुम्हार हैं, लेकिन उनके बनाए हुए बर्तन काफ़ी नहीं होते, इसलिए वह काकोरी से भी मिट्टी के बर्तन ख़रीदती हैं. “मेरे पति क़ादिर मलहौर में [कुछ किमी की दूरी पर] एक चीनी-मिट्टी के सामान बनाने वाली फ़ैक्ट्री में काम करते थे. अब उनका ख़ुद का कारख़ाना है, जहां हम अपना सामान रखते हैं.” दिन ख़त्म होने पर वह अपना सामान समेटती हैं और सारा सामान एक बैटरी (बिजली) वाले रिक्शे में रखकर कारख़ाने चली जाती हैं.
वह बताती हैं, “दिवाली के समय हम बहुत सारे अन्य उत्पाद भी बेचते हैं, और उनको लाना ले जाना मुमकिन नहीं होता है. हम सब कुछ यहीं रखते हैं और रात में यहीं रुक जाते हैं.” त्योहारों की व्यस्तता के दौरान, इस्मत के पोते-पोती शोएब, सुग़रा, और शफ़ाज़ भी काम में उनकी मदद करते हैं. लॉकडाउन के दौरान स्कूल बंद होने के चलते, अब वे यहां ज़्यादा आते हैं.
गर्मी के इस सीज़न में, इस्मत का क़रीब 3,000 रुपयों का नुक़सान हुआ, जब अधिकारियों ने उन्हें फुटपाथ से हटाने के लिए उनका सामान ज़ब्त किया, तोड़ा, और फेंक दिया. वह बताती हैं, “मेरे काम का बहुत नुक़्सान हुआ है, क्योंकि लखनऊ नगर निगम हमें फुटपाथ से हटाने की कोशिश कर रहा है. यह सब बाक़ी विक्रेताओं के साथ भी हुआ है. कई विक्रेता, जिनकी दुकानें हटाई गई थीं वे लोग अब नगर निगम की सख़्ती की वजह से वापस नहीं आएंगे.”
नुक़्सान होने और हटाए जाने के डर से, कई कुम्हार यहां से दूर चले गए हैं, लेकिन इस्मत ने रुकने का फ़ैसला किया है. वह बताती हैं, “हम यहां कई सालों से व्यापार कर रहे हैं. बड़ी संख्या में यहां ग्राहक आते हैं [आते थे], क्योंकि उन्हें यहां कई प्रकार के उत्पाद मिल जाते हैं [थे].”
मिट्टी के उत्पादों को, बड़े पैमाने पर उत्पादित होने वाले और टिकाऊ विकल्पों के सामने पहले से ही संघर्ष करना पड़ रहा है. लंबे समय से लखनऊ में कार्यरत एक खाद्य खुदरा विक्रेता ललित साधवानी कहते हैं, “तीन दशक पहले तक, लोग अपने घरों में तांबे और मिट्टी के बने हुए बर्तनों का इस्तेमाल करते थे. लेकिन, जैसे-जैसे स्टेनलेस स्टील सस्ता हुआ, रोज़ाना के इस्तेमाल के लिए लोग उसका प्रयोग करने लगे. इसके बाद से ही मिट्टी के बर्तनों का व्यापार कम होने लगा.”
इस्मत के बेटे, मोहम्मद आरिफ़ कहते हैं: “हमारा व्यापार नीचे जा रहा है, क्योंकि हमारे पास सुविधाएं नहीं हैं. हमें बर्तन बनाने के लिए आसानी से चॉक नहीं मिलती है. अगर कहीं से हम चॉक का इंतज़ाम कर भी लें, तो रास्ते में पुलिस हमें रोक लेती है. हम लोग अपने कारख़ाने नहीं लगा सकते हैं. हमारे पास अपनी दुकान लगाने के लिए एक स्थायी जगह भी नहीं है. बस आजीविका कमाने के लिए ही हम बार-बार फुटपाथ पर लौट आते हैं.”
Editor's note
गरिमा साधवानी, चेन्नई के एशिया कॉलेज ऑफ़ जर्नलिज़्म से प्रिंट पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा कर रही हैं. वह कहती हैं, “जब मुझे पहली बार हस्तशिल्प कला का विषय दिया गया था, तब मैंने चिकनकारी के बारे में लिखने का सोचा था; लेकिन मेरा अध्ययन मुझे लखनऊ की दूसरी पारंपरिक हस्तशिल्प कलाओं की तरफ़ ले गया. मिट्टी के बर्तन भले ही इस शहर का गौरव न हों, लेकिन वह कई परिवारों की जीविका के साधन तो हैं ही. उनकी कहानी कहना और भी महत्वपूर्ण इसलिए है, क्योंकि वे सरकार और अधिकारियों की उपेक्षा के शिकार हैं. पारी एजुकेशन के साथ काम करके मुझे एहसास हुआ कि हर स्टोरी में कितनी परतें छिपी होती हैं. आप किसी से एक ही बार मिलकर उनके व्यवसाय की कठिनाइयों के बारे में नहीं लिख सकते हैं. मैं सचिन और इस्मत से बात करने के लिए पांच बार चिनहट गई और हर बार जब वापस आई, तो सिर्फ़ स्टोरी ही नहीं, बल्कि उनके व्यवसाय के बारे में मेरी समझ भी समृद्ध हुई.”
अनुवादः नेहा कुलश्रेष्ठ
नेहा कुलश्रेष्ठ, जर्मनी के गॉटिंगन विश्वविद्यालय से भाषा विज्ञान (लिंग्विस्टिक्स) में पीएचडी कर रही हैं. उनके शोध का विषय है भारतीय सांकेतिक भाषा, जो भारत के बधिर समुदाय की भाषा है. उन्होंने साल 2016-2017 में पीपल्स लिंग्विस्टिक्स सर्वे ऑफ़ इंडिया के द्वारा निकाली गई किताबों की शृंखला में से एक, भारत की सांकेतिक भाषा(एं) का अंग्रेज़ी से हिंदी में सह-अनुवाद भी किया है.