
“मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है, लेकिन मैं कड़ी मेहनत करता हूं.”
तूफ़ानी राजभर एक खेतिहर मज़दूर और चरवाहा हैं. उन्होंने कहा, “खेती से हमें बमुश्किल ही कुछ हासिल हो पाता है, इसलिए कुछ पैसे कमाने के लिए मैं दिहाड़ी मज़दूरी का काम करता हूं.”
आखर गांव में राजभर जिस खेती की बात कर रहे हैं, वह दरअसल एक असंगठित व्यवस्था है जिसको अपनाने के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले में उनके ही जैसे सैकड़ों भूमिहीन ग्रामीण विवश हैं. वह प्रति वर्ष ‘लगान’ कहे जानी वाली सालाना काश्तकारी व्यवस्था के अंतर्गत लगभग एक बीघा या आधी एकड़ भूमि को पट्टे पर लेते हैं. वह अपनी मजबूरी बताते हैं, “होली के आसपास (मार्च/अप्रैल महीने में) मैं बनिये से 10 प्रतिशत मासिक ब्याज की दर पर 14 -15 हज़ार रुपए का क़र्ज़ लेता हूं. मैं बैंक से इसलिए क़र्ज़ नहीं ले सकता, क्योंकि मेरे पास कोई स्थायी संपत्ति नहीं है.” उनके पास इस काश्तकारी का कोई लिखित प्रमाण भी नहीं है; वह मुझसे बात कर रहे हैं लेकिन उनकी चौकस आंखें उन छहों बकरियों पर टिकी हैं जो पास के ही खेत में घास चर रही हैं.
क़र्ज़ में लिए गए पैसे बीज और खाद ख़रीदने और खेत जोतने के लिए मंगाए गए ट्रैक्टर का भाड़ा चुकाने के काम आते हैं. जब मैं राजभर से बलिया ज़िले के दुबहर ब्लॉक के उनके गांव में सितंबर 2021 में मिला था, तो वह धान की अपनी फ़सल को काटने की तैयारियों में लगे थे. तब उन्होंने बताया था, “साल भर की मेरी सारी कमाई और बचत क़र्ज़ के पैसों और लगान के आठ हज़ार रुपयों को चुकाने में ख़र्च हो गई.” राजभर इसी नाम के सामाजिक समुदाय या जाति से आते हैं जो उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जनजाति के रूप में सूचीबद्ध है.”

उत्तर प्रदेश के पूर्वी छोर पर स्थित बलिया क्षेत्र को गंगा नदी पड़ोसी राज्य बिहार से अलग करती है. कृषि यहां का प्रमुख व्यवसाय है और इस ज़िले की 38 प्रतिशत आबादी कृषि कार्यों से ही जुड़ी हुई है. और राजभर जैसे बहुत लोगों के पास कोई ज़मीन नहीं है, जैसा कि वह बताते हैं, “हम साल भर खेतों में काम करते हैं, लेकिन हमें किसान नहीं माना जाता है, क्योंकि हमारे पास ज़मीन नहीं है.”
भूमिहीन होने और किसी तरह के क़ानूनी क़रारनामे से वंचित रहने का एक तत्कालिक असर यह है कि राजभर अपनी पैदावार को ख़ुद मंडी में नहीं बेच सकते हैं, क्योंकि एक स्वतंत्र किसान के रूप में उन्हें स्वीकृति नहीं मिली है. “हमें अपना अनाज शहर के फुटकर दुकानदारों को मंडी से आधी से भी कम क़ीमत पर बेचना पड़ता है; और कई बार तो उससे भी कम क़ीमत पर, अन्यथा अनाज के सड़ने की नौबत आ जाती है.” बलिया में मंडी में क़ीमतें लगभग दूनी हैं और चावल 1,940 रुपए प्रति क्विंटल बिकता है, लेकिन राजभर इस लाभ से वंचित रहने को विवश हैं.
तूफ़ानी राजभर ने मुझसे कहा, “मैं महीने में 15 से 20 दिन एक निर्माण स्थल पर दिहाड़ी मज़दूरी करता हूं और मुझे एक दिन के 300-350 रुपए मिलते हैं. मैंने पूरी ज़िंदगी खेतों या निर्माण स्थल पर मज़दूर के रूप में काम किया है, और अब मेरे दो बेटे भी यही काम करते हैं.”
आखर गांव के ही रामचंदर यादव ने भी 7,000 रुपए प्रति बीघा लगान की दर पर चार बीघा ज़मीन ली है, लेकिन हर घड़ी वह बेमौसम की बरसात और आवारा नीलगायों के डर से आशंकित रहते हैं. दोनों ही फ़सल को पलक झपकते बर्बाद कर सकते हैं. रामचंदर (60 वर्ष) ने बताया, “पिछले 8-10 वर्षों में बारिश के बारे में कोई भी अंदाज़ा लगा पाना कठिन हो गया है. यहां तक कि जाड़े के मौसम में भी भारी वर्षा हो सकती है. बारिश की मात्रा के बारे में भी कोई अनुमान लगा पाना असंभव है. प्रारंभिक चरण में तो धान की खेती के लिए बरसात अच्छी होती है, लेकिन फ़सल के पक जाने के बाद अगर बरसात होती है, तो पूरी पैदावार बर्बाद हो जाती है. यहां तक कि मिट्टी भी पानी सोखना बंद कर देती है, क्योंकि यह पहले से ही बहुत गीली रहती है.” साथ ही, वह यह बताना भी नहीं भूलते कि कैसे बारिश की कोई पूर्वसूचना या भविष्यवाणी के बिना भी कई बार जाड़े में भयानक बरसात आती रही है.


यादव ने बताया कि अपनी चार बीघा ज़मीन, जो मोटे तौर पर दो एकड़ के बराबर होती है, को जोतने में वह लगभग 10,000 रुपए ख़र्च करते हैं. इस काम के लिए उनको एक ट्रैक्टर और ड्राईवर को भाड़े पर रखना होता है. “मैं बोआई, फ़सल की कटाई, और धान को बोरियों में पैक करवाने के पीछे लगभग 3,000 रुपए ख़र्च करता हूं. बदले में हम, मज़दूरों को काटी गई फ़सल का एक तिहाई हिस्सा बतौर मजूरी देते हैं.”
बोआई का काम मुख्यतः ट्रैक्टरों के ज़रिए होता है. किसानों के ख़र्च में इज़ाफ़े की एक बड़ी वजह यह भी है. रामचंदर कहते हैं, “दो साल पहले एक बीघा ज़मीन में धान की बोआई करने के लिए मुझे लगभग 500 रुपए ख़र्च करने होते थे. आज मुझे एक बीघे में बोआई के लिए 700 रुपए लगते हैं.” उन्हें एक पैदावार के लिए बोआई का कुल ख़र्चा 2,800 पड़ता है, और डीजल की बढ़ी हुई क़ीमत को देखते हुए उन्हें इस ख़र्च के और अधिक बढ़ने का अंदेशा है.
अपर्याप्त और बेमौसम की बरसात इन दुविधाग्रस्त किसानों की चिंताओं को स्वाभाविक रूप से और बढ़ाता ही है. रामचंदर ने मुझसे कहा, “मूसलाधार बारिश के कारण प्रायः हमारे खेतों में जलजमाव हो जाता है. ऐसे में जलजमाव वाले हिस्सों की फ़सल को हमें समय से पहले ही काटना पड़ता है, ताकि वह सड़े नहीं.”


इस इलाक़े में किसानों की चिंता का एक बड़ा कारण आवारा मवेशी और नीलगाय भी हैं. इसीलिए, जैसे ही फ़सल उगने लगती है, किसान अपनी फ़सल के कटने तक उसकी रखवाली करते रहते हैं. कुछ किसान इस चौकीदारी में सहायता के लिए किराए पर मज़दूर भी रखते हैं.
रामचंदर जैसे काश्तकार किसानों के असंतोष का एक बड़ा कारण यह भी है कि वे प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना के अंतर्गत साल में तीन बार 2,000 रुपए की सहायता राशि पाने की पात्रता भी नहीं रखते हैं. वह शिकायती लहजे में कहते हैं, “ये पैसे भूस्वामियों के पास चले जाते हैं. लेकिन अगर खेतों में पानी भर जाए और फ़सल नष्ट हो जाए, तो बर्बादी हमारी होती है, भूस्वामियों की नहीं, जिन्हें बिना कुछ किए-धरे सरकारी योजना का लाभ मिल जाता है.”
किसान अपने पास पर्याप्त अनाज रखते हैं, ताकि अपने परिवार को साल भर खिला सकें और शेष बचा हुआ अनाज बेच देते हैं. रामचंदर यादव ने बताया, “मैं महीने भर के भीतर तक़रीबन 30 क्विंटल धान की कटाई कर लूंगा, जिसमें 15 क्विंटल के आसपास मैं अपने परिवार को खिलाने के लिए रखूंगा.” अक्टूबर के महीने में फ़सल लगभग 1,000 से 1,200 रुपए प्रति क्विंटल की दर से बेच दी जाएगी, जिससे यादव को मोटे तौर पर 16 से 17 हज़ार रुपयों की आमदनी होगी. यह अनुमान ख़र्च को घटाने से पहले का है. रामचंदर ने ब्यौरेवार ढंग से बताया, “एक पैदावार के लिए पूरी ज़मीन की ढंग से जुताई का ख़र्च लगभग दस हज़ार रुपया आता है.”
दोनों व्यक्ति ने बताया कि लगान व्यवस्था में इतनी कम आमदनी के कारण उन्हें निर्माण स्थलों पर दिहाड़ी मजदूरी करने की ज़रूरत पड़ती है, अन्यथा उनका जीवित रहना भी दूभर हो जाएगा. “महामारी ने हमारी मुश्किलों को और अधिक बढ़ा दिया है. कोविड-19 से पहले मुझे अमूमन 15 से 20 दिनों की मज़दूरी मिल जाया करती थी, लेकिन अब हमें मुश्किल से ही काम मिल पाता है. प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) के अधीन मिलने वाले मासिक राशन के 20 किलो गेहूं और 15 किलो चावल से उनका चार सदस्यों वाला परिवार – जिसमें उनके अलावा उनकी पत्नी और दो बच्चे हैं – किसी तरह अपना गुज़ारा कर रहा है.



महिला खेतिहर मज़दूरों की हालत कुछ अधिक ही ख़राब है. महिला मज़दूर ही खेतों की गुड़ाई, और सफ़ाई करती हैं. धान की रोपनी भी वे ही करती हैं, और फ़सल के पक जाने के बाद उनकी कटाई, गहाई, और बोरियों में धान की पैकिंग आदि जैसे काम प्रमुखतः महिलाओं के ही हवाले होते हैं. इन कामों के बदले उन्हें रोज़ 100 से 120 रुपयों की दिहाड़ी मिलती है, जोकि उत्तर प्रदेश में महिला और पुरुष दोनों के लिए मनरेगा के अधीन निर्धारित पारिश्रमिक 201 रुपए की आधी है.
खेतिहर मज़दूर उषा देवी (35 वर्षी) ने अपनी तक़लीफ़ बताई, “कोविड-19 के बाद से हमें केवल महीने के आधे दिनों में ही काम मिलता है, और पैसे के अभाव में हम घर पर ही रहने के लिए बाध्य हैं.” वह पांच बेटियों की मां हैं और उनकी बड़ी बेटी रानी बिंद अभी सिर्फ़ 13 साल की हैं. उनके पति भी एक निर्माण मज़दूर हैं और उनको भी फ़िलहाल रोज़गार की भारी तंगी से जूझना पड़ रहा है. उन्होंने आगे बताया, “हमें कोविड की वजह से कोई काम नहीं मिल रहा था और हम बड़ी मुश्किल से ख़ुद का गुज़ारा कर पाने में सफल हुए. सभी स्कूल भी बंद थे, इसलिए मेरी बेटी स्कूल में मिलने वाले मिड-डे मील (मध्याह्न भोजन) से भी वंचित थी.”
चालीस के आसपास की उम्र की खेतिहर मज़दूर पार्वती देवी यह मानती हैं कि चूंकि रोज़गार देने वाले सभी लोग पुरुष हैं, इसलिए वे मर्दों को ही अधिक दिहाड़ी भी देते हैं. उन्होंने क्षुब्ध स्वर में कहा, “महिलाओं की मेहनत का महत्व समझने वाला कोई नहीं है.” पार्वती देवी पास के ही खेत में धान की कटाई करने जा रही थीं, जो उनके घर से कोई दो किलोमीटर दूर है. वह बताती हैं कि फ़सल की कटाई के बदले उन्हें गुड़ाई किए गए अनाज का एक चौथाई हिस्सा मज़दूरी के रूप में मिलेगा.


मनाई पासवान (81 साल) कहते हैं, “मेरे पिता एक खेतिहर मज़दूर थे, मैं भी एक खेतिहर मज़दूर हूं, और मेरे बच्चे भी मज़दूरी करते हैं.” वह आखर में ईंट और गारे की बनी झोपड़ी में अपनी पांच बकरियों के साथ रहते हैं, जिन्हें उनको दिन भर में दो दफ़ा चराने ले जाना पड़ता है. पासवान एक भूमिहीन किसान हैं और उन्होंने खेती करने के लिए एक बीघा ज़मीन पट्टे पर ली हैं, जिसके बदले उनको लगान के रूप में 7,000 रुपए चुकाने होते हैं. उन्होंने बताया, “मेरे चार बेटे हैं और वे चारों दिहाड़ी मज़दूर के रूप में काम करते हैं.”
बलिया में उन किसानों की भी हालत कोई बहुत अच्छी नहीं है जिनके पास अपना ख़ुद का खेत है. रमाशंकर मिश्र (59 साल) बोले, “सिर्फ़ किसानी करके अब आप अपना पेट नहीं पाल सकते हैं. अगर आप शहर में मज़दूरी करते हैं, तो आपको काम पूरा करने के बाद नक़द पैसे मिलते हैं. लेकिन यहां गांव में एक किसान के रूप में हम मुश्किल से अपना और परिवार का पेट भर पाते हैं.” वह क़रीब आधा एकड़ ज़मीन के स्वामी हैं. रमाशंकर की छह बेटियां और एक बेटा हैं. उनकी चार बेटियों का विवाह हो चुका है और उनको उम्मीद है कि उनके बेटे को किसी बड़े शहर में नौकरी मिल जाएगी.
उन्होंने निष्कर्ष के रूप में यह कहकर बात ख़त्म कर दी, “बड़े शहर में नौकरी करके आप कुछ पैसे कमा सकते हैं. लोगबाग खेती इसलिए छोड़ रहे हैं, क्योंकि बहुत अधिक शारीरिक श्रम करने के बाद भी इस काम में पैसे नहीं हैं.”
Editor's note
आर्यन पांडेय, दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज में अंग्रेज़ी (ऑनर्स) में द्वितीय वर्ष के छात्र हैं. पारी के बारे उन्हें संस्थापक संपादक पी. साईनाथ के भाषणों से जानकारी मिली. आर्यन कहते हैं, “मैं यह स्टोरी इसलिए करना चाहता था, ताकि हमारे देश में भूमिहीन खेतिहर मज़दूरों की दयनीय स्थिति को दुनिया को दिखाया जा सके. पारी एजुकेशन के लिए रिपोर्टिंग करके मैंने हमारी व्यवस्था को समझने का प्रयास किया. ग्रामीण भारत की पत्रकारिता का वास्तविक प्रारूप और उद्देश्य भी दरअसल यही है.”अनुवाद: प्रभात मिलिंद
प्रभात मिलिंद, शिक्षा: दिल्ली विश्विद्यालय से एम.ए. (इतिहास) की अधूरी पढाई, स्वतंत्र लेखक, अनुवादक और स्तंभकार, विभिन्न विधाओं पर अनुवाद की आठ पुस्तकें प्रकाशित और एक कविता संग्रह प्रकाशनाधीन.