जंगली घास के झाड़ू, दो अलग-अलग तरह की मिट्टी से बने हुए बर्तन, देसी बत्तख, घर में उगाई जाने वाली सब्ज़ियों की कई क़िस्में, स्थानीय मसाले, नीम और दूसरे तेल, महुआ से बना शराब, खाने वाली चींटियां, और दूसरे वन्य भोज्य पदार्थों के साथ-साथ, दर्ज़ी, नाई, और खाने की दुकानें.

जुरुडी का हाट (साप्ताहिक बाज़ार) कुछ ऐसा दिखता है, जिसे हर मंगलवार को लगाया जाता है. गांव के बुज़ुर्ग हमें बताते हैं कि यह हाट कम से कम साल 1940 से लगातार लग रहा है.

जलहरी गांव की ललिता नायक (75 वर्ष) कुछ ज़रूरी सामान लेने हाट आई हैं. वह हमसे कहती हैं, “बचपन में, जब भी मेरे माता-पिता हाट आते, तो मैं अक्सर उनके साथ यहां आती थी. मुझे याद है कि जब मेरी शादी तय हुई थी, तब मेरे पिता ने यहां से बर्तन, कपड़े, और अन्य सामान ख़रीदा था. मैंने भी अपनी बेटी की शादी के लिए यहीं से ख़रीदारी की थी.”

केंदुझार (जिसे क्योंझर भी कहा जाता है) के जोडा ब्लॉक में लगने वाले इस हाट में सुबह से शाम तक, उनके जैसे हज़ारों लोगों के आने की उम्मीद है. ललिता हंसते हुए कहती हैं, “यहां कई तरह की चीज़ें मिलती हैं. मां-बाप छोड़कर, आप यहां कुछ भी ख़रीद सकते हैं….”

हम माध्यमिक विद्यालय में पढ़ने वाले छात्र हैं. हम जुरुडी हाट देखने आए हैं, जो हमारे इलाक़े का सबसे बड़ा हाट है. हम यहां सुबह 5 बजे ही पहुंच गए थे. हमारा घर यहां से दो किलोमीटर दूर स्थित जजंगा में है. हाट पहुंचने के बाद हमने दुकानदारों को अपनी दुकानें लगाते हुए देखा. हाट तक आने वाली सड़क का आख़िरी पांच किलोमीटर का रास्ता कच्चा है. जब हम यहां आ रहे थे, तो हमारी शिक्षक सुदीपा सेनापति ने चलते-चलते मज़ाक़ में कहा, “रास्ते में इतने सारे गड्ढे हैं कि मानसून के मौसम में, यदि कोई अपनी बाइक से गिर जाता है, तो वह दोबारा उठ नहीं पाएगा!”

क़रीब 40 किलोमीटर तक की दूरी तय करके, आस-पास के बंसपाल, झुमपुरा, और चंपुआ ब्लॉक से, दुकानदार और ख़रीदार पैदल, साइकल से, मोटरसाइकल से, टेंपो से, और बस से हाट आते हैं.

यह ज़िला मुख्यतः ओडिशा के ग्रामीण क्षेत्र में आता है, जिसकी जनसंख्या 18,01,733 है. इसमें से 86 प्रतिशत आबादी ग्रामीण क्षेत्रों (2011 की जनगणना के अनुसार) में रहती है. ज़्यादातर दुकानदार आदिवासी, भूमिहीन, सीमांत किसान, दलित, और बुज़ुर्ग हैं, जो गुज़ारे के लिए इस साप्ताहिक आय पर पूरी तरह निर्भर रहते हैं.

जैसे कि चिमिला के रहने वाले किसान और दर्ज़ी कृष्णा मुंडा, जो अपनी सिलाई मशीन सेट कर रहे हैं. वह इस मशीन के अलग-अलग हिस्सों को कंधे पर लटकाए हुए आए हैं. वह 60 साल के हैं और उन्हें बस इतना ही याद है कि वह पिछले दस साल से हर मंगलवार को इस हाट में आते हैं. वह कहते हैं, “मैं यहां कपड़े सिलकर और उनकी मरम्मत करके, क़रीब 200 से 250 रुपए कमा लेता हूं. सिलाई के काम के लिए मेरे पास कोई स्थायी दुकान नहीं है.”

मुंडा, कोल्हा आदिवासी समुदाय से हैं और उनके पास एक बीघा ज़मीन (आधा एकड़ से कम) है. इस ज़मीन पर वह धान (चावल), काले चने, और हरे चने के साथ-साथ सब्ज़ियां उगाते हैं. वह कहते हैं, “मैं घर के खाने के लिए चावल उगाता हूं, और अगर बचता है, तो बेच देता हूं.”

बंसपाल प्रखंड के फुलझड़ गांव की रहने वाली, किनारी देहुरी भी इस हाट में चींटी बेचने आती हैं. किनारी 56 वर्ष की हैं और अपने गांव से यहां तक पहुंचने में उन्हें 200 रुपए बस का किराया देना पड़ता है. वह यहां कुछ सौ ग्राम कुरकुटी (बुनकर चींटी), कुल्हारी फूल (सब्ज़ी के रूप में पकाया जाने वाला एक स्थानीय फूल), अरुम (तारो) के पत्ते और कॉफ़ी सेन्ना (सेन्ना ऑक्सिडेंटलिस) बेचती हैं. वह कहती हैं, “मैं कुल्हारी के फूल और कुरकुटी का एक गुच्छा 20 रुपए में बेचती हूं.”

देहुरी एक दलित किसान हैं और उनके परिवार के पास 16 डिसमिल (एक एकड़ का लगभग छठा हिस्सा) ज़मीन है, जिस पर वे धान (चावल) और सब्ज़ियां उगाते हैं. वह कहती हैं, “हमने पिछले सीज़न के सारे चावल बेच दिए, क्योंकि क्वालिटी अच्छी नहीं थी और हम उसे खा नहीं सके. हमने उन पैसों से अपने लिए बाहर से चावल ख़रीदा.”

बाएं: कृष्णा मुंडा, चंपुआ प्रखंड में स्थित चिमिला गांव के किसान और दर्ज़ी हैं. वह यहां कपड़े की सिलाई और मरम्मत करके, तक़रीबन 200 से 250 रुपए कमा लेते हैं. वह अपने खेत में चावल, काला चना, हरा चना, और सब्ज़ियां उगाते हैं. दाएं: पोंगामे, कुसुम, नीम, और मलिका के बीज से बने तेल बेचती हुई मिनती मुंडा. वह पेड़ की जड़ों और चावल से बनी एक स्थानीय शराब ‘हंड़िया’ भी बनाती हैं, जिसकी क़ीमत 50 रुपए प्रति 250 एमएल है

कुछ दुकान हटकर मिनती मुंडा की दुकान है. वह 55 साल की हैं और पोंगामे (मिलेटिया पिन्नाटा), कुसुम (श्लीचेरा ओलियोसा), मल्लिका आम, नीम (अज़ादिराच्टा इंडिका), महुआ (मधुका लोंगिफ़ोलिया) के बीजों से बने तेल बेच रही हैं. वह जलहरी गांव के पास की बस्ती रुगुडी साही की रहने वाली हैं और एक भूमिहीन कोल्हा आदिवासी समुदाय से हैं. मिनती स्थानीय शराब ‘हड़िया’ भी बनाती हैं, और 50 रुपए में उसका 250 एमएल बेचती हैं. मिनती कहती हैं, ”मैं महुआ के बीजों से पिड़िया [पेस्ट] बनाती हूं, जिसका इस्तेमाल दाद जैसे चर्म रोगों को ठीक करने के लिए किया जाता है.”

जल्द ही सारे स्टॉल लग चुके थे – कुछ नीली तिरपाल शीट के नीचे थे और कुछ बस पेड़ की छांव में. दुकानों पर शहद, महुआ के फूल, तेल, और जंगली मशरूम जैसे वन्य उत्पादों के अलावा बैंगन, टमाटर, गोभी, आलू, प्याज़, गाजर जैसी बहुत सी सब्ज़ियां भी बिकती हैं.

कार्तिक नायक, भुइयां आदिवासी समुदाय से हैं और यहां ख़रीदारी करने आए हैं. वह कहते हैं, “क्योंझर ज़िले के 40 से अधिक गांवों के लोग, यहां दैनिक उपयोग की वस्तुएं ख़रीदने के लिए आते हैं. दूरदराज़ के गांवों और बस्तियों में रहने वालों के लिए, यही एकमात्र जगह है जहां वे नमक, मसाला, और तेल जैसी ज़रूरी चीज़ें ख़रीद सकते हैं.”

यहां लोग बत्तख भी ख़रीद सकते हैं, जैसी सोनू मुंडा के आस-पास डगमगाती रही हैं. सोनू 55 वर्ष के हैं और मुंडा आदिवासी किसान हैं. सोनू बत्तख पालन करते हैं और आज आठ बत्तखों को साथ लेकर बाज़ार आए हैं. अपनी बाक़ी 60 बत्तखों को वह तेलकोई ब्लॉक में स्थित अपने गांव खंडबंधा में छोड़कर आए हैं. बाज़ार में एक बत्तख की क़ीमत 650 रुपए है.

वह कहते हैं, “मुझे बत्तख बेचने से जो पैसा मिलता है उससे मैं अपने परिवार का पेट पालता हूं. मेरे पास 20 डिस्मिल [एक एकड़ ज़मीन का लगभग पांचवां हिस्सा] ज़मीन है, लेकिन मैं इसके केवल आधे हिस्से पर खेती कर सकता हूं; आधा [ज़मीन] जानवरो को चरने के लिए छोड़ देता हूं.”

यदि आप मुर्गियां (साथ ही बत्तख) खोज रहे हैं, तो रिमुली के चितरंजन दास के पास जाएं. एक पक्षी की क़ीमत 450 से 500 रुपए तक है. वह कंदारा गांव, बिलीपाड़ा गांव, और रिमुली के दूसरे हाटों में भी पक्षियां बेचते हैं.

चितरंजन एक दलित किसान हैं, उनके पास एक एकड़ ज़मीन है. “हम मौसम के अनुसार आलू, प्याज़, लहसुन, गोभी, अरुम, और अदरक जैसी सब्ज़ियां उगाते हैं. हम अपने द्वारा उगाए गए चावल को बेचते हैं और इसके बदले पीडीएस (सार्वजनिक वितरण की दुकानों) में बिकने वाले चावल खाते हैं.

चंपुआ प्रखंड के रिमुली गांव की रहने वाली भारती कैबार्ता भी, ‘साल’ के हरे पत्तों पर कुछ सूखी मछलियां रखकर, उसे करीने से बांधकर बेचने आई हैं. रावला, झींगा, एलीशी, कोकिला, शीला, और पिटा करंदी जैसी तमाम सूखी मछलियां उनके सामने रखी हुई हैं.

उम्र के 60वें दशक के उत्तरार्ध में खड़े सुदर्शन कैबार्ता, बरबिल शहर के पास के एक गांव से हैं और पिछले तीन दशकों से यहां आ रहे हैं. उनके पास स्थानीय पकवान – चिकन, सब्ज़ी, और मशरूम की करी पकाने के लिए, अलग-अलग मसाले से तैयार छोटी-छोटी पुड़िया रखी है. सुदर्शन भूमिहीन हैं और बताते हैं कि वह अपनी पत्नी के साथ अकेले रहते हैं, क्योंकि उनका इकलौता बेटा और बहू उनकी देखभाल नहीं करते हैं. उन्होंने कहा, “मैं ख़ुद का और अपनी पत्नी का पेट भरने के लिए, यह काम लगातार करता रहूंगा, लेकिन कभी भीख नहीं मांगूंगा.”

सुदर्शन की तरह, कई दूसरे बुज़ुर्ग दुकानदारों के पास भी ज़मीन नहीं है. झुमपुरा प्रखंड के कनकाना गांव के रहने वाले 74 वर्षीय ‘हो मुंडा’ आदिवासी सिरा जॉन कलंद ​भी टोकरियां, मछली पकड़ने का जाल, बांस से बने अन्य सामान बेचने के लिए आए हैं. उन्होंने कहा, “काश मुझे सरकारी पेंशन योजना मिल जाती, ताकि इस उम्र में मुझे अपने परिवार का पेट पालने के लिए टोकरियां न बेचनी पड़तीं.”

दलित कुम्हार भरत चंद्र बेहरा, हाट से 25 किलोमीटर दूर स्थित महादेवपुर से आए हैं. भरत का परिवार कई पीढ़ियों से बर्तन बना रहा है. उनका कहना है कि इन बर्तनों को बनाने के लिए उन्हें दो तरह की मिट्टी की ज़रूरत पड़ती है – काली और लाल के साथ रेतीली मिट्टी. वह कहते हैं, “मुझे [मिट्टी लेने के लिए] वन विभाग से अनुमति लेनी पड़ती है और इसके लिए मुझे कुछ रिश्वत भी देनी होती है.”

भरत, जुरुडी और उखुंडा हाट के साथ-साथ झुमपुरा ब्लॉक के कुछ दूसरे हाटों में भी सामान बेचने जाते हैं. उनके एक बर्तन की क़ीमत 200 रुपए है. भरत कहते हैं कि जब उनका दिन अच्छा हो, तो वह 1 हज़ार रुपए तक का लाभ कमा लेते हैं.

मोहम्मद आज़ाद बताते हैं कि झाड़ू बनाने के लिए कच्चा माल ढूंढना आसान नहीं है. वह आगे कहते हैं, “इसलिए मैंने एक झाड़ू की क़ीमत 10 रुपए से बढ़ाकर 50 रुपए कर दी है. मैं हर दिन बाज़ार में 200 से 300 रुपए तक का मुनाफ़ा कमा सकता हूं.”

जैसे-जैसे शाम ढलने लगती है वैसे ही क़ीमतें भी घटने लगती हैं. शाम ढलने के साथ, दुकानदार अपने सामान को कम क़ीमत पर बेचने को तैयार हो जाते हैं, सब्ज़ियां 10 से 20 रुपए प्रति किलो तक हो जाती हैं. हम दुकानों के पास प्लास्टिक, फेंका गया खाना, और सब्ज़ियों के कचरे देख सकते हैं. कचरा बीनने वाले, कचरे में से फिर से इस्तेमाल हो सकने वाले प्लास्टिक को छांट रहे हैं. इसके बाद, गायें और भैंस फेंकी गई सब्ज़ियां खाने आएंगी.

हम अपना सामान पैक करते हैं और अपने गांव की ओर निकल पड़ते हैं.

माध्यमिक विद्यालय के ये छात्र, गैर-सरकारी संगठन अस्पाइर (ASPIRE- समावेशी और प्रासंगिक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए बनी सोसाइटी) और टाटा स्टील फ़ाउंडेशन के थाउज़ेंड स्कूल प्रोजेक्ट के लर्निंग एन्हैसमेंट प्रोग्राम का हिस्सा हैं. उन्होंने अपने आस-पास के परिवेश को जानने से जुड़े प्रोजेक्ट के तहत यह स्टोरी की है.

पारी एजुकेशन की टीम, सुदीपा सेनापति और स्मिता अग्रवाल को इस स्टोरी में मदद के लिए धन्यवाद देती है.

Editor's note

संपादक के क़लम से: अनन्या टोपनो, रोहित गगराई, आकाश एका (कक्षा 6) और पल्लबी लुगुन (कक्षा 7) जोडा ब्लॉक के जजंगा क़स्बे से हैं. पल्लबी कहती हैं,''इस तरह का [शोध] काम करना हमारे लिए कुछ नया करने जैसा है. हमने देखा कि लोग सब्ज़ी बेचने वालों के साथ मोलभाव करते हैं, जबकि हमें पता है कि सब्ज़ियां उगाना कितना कठिन है. इसलिए, हमें हैरत हुई कि लोग किसानों के साथ क़ीमतों को लेकर मोलभाव क्यों करते हैं?”

स्टोरी में शामिल सभी तस्वीरें अनन्या टोपनो, रोहित गगराई, आकाश एका और पल्लबी लुगुन ने खींची हैं.