विवेक और उसके दोस्त पांच से बारह वर्ष के बीच की उम्र के हैं. वे अपने रोज़मर्रा के खेल थोड़े अलग तरीक़े से खेलते हैं. जैसे कि वे भाग-भागकर ‘पुलिस-चोर’ खेलने के बजाय, काग़ज़ पर इसे खेलते हैं; नीचे बैठकर रुमाल की मदद ‘लुका-छिपी’ खेलते हैं. वे एक पैर पर कूदकर खेला जाने वाला खेल लंगड़ी टांग (यह ‘टैग’ खेल से मिलता-जुलता है, जिसे खुले मैदान में खेला जाता है) भी खेलते हैं, जहां विवेक भागने के लिए अपने किसी दोस्त से मदद ले लेता है.

विवेक की सुविधा के लिए खेलों में थोड़ा बदलाव किया गया है.

विवेक अपनी मां से पूछता है कि लोग उसका और उसके टेढ़े पैरों का मज़ाक़ क्यों उड़ाते हैं. तस्वीरें: गीता देवी

लैटिन भाषा की मेडिकल शब्दावली में विवेक की स्थिति को जेनु वेलगम कहा जाता है, और वहीं दूसरी ओर, इसे आमतौर पर पैर का डेढ़ा होना भी कहा जाता है, जिसमें व्यक्ति ठीक से चल नहीं पाता. जब वह खड़ा होता है, तो उसके घुटने आपस में भिड़ जाते हैं और पैर एक-दूसरे से उल्टी दिशा में फैलते हुए अलग हो जाते हैं. विवेक के लिए ऐसी स्थिति में खड़ा होना, अपना संतुलन बनाए रखना, और साथ ही चलना आसान नहीं होता है. विवेक के अनुसार, “मैं गिर जाता हूं, लेकिन मैं खड़ा भी हो जाता हूं.”

अपने बेटे की इस स्थिति के बारे में तथ्यात्मक रूप से बोलते हुए विवेक की मां गीता देवी कहती हैं, “उसके पैरों में गैप है. जोकर की तरह चलता है वह. उसे अपना संतुलन बनाने में दिक़्क़त होती है और सीढ़ियों से नीचे आते हुए वह अक्सर फिसल जाता है. वह तेज नहीं चल सकता और बहुत जल्दी थक जाता है.” गीता की उम्र 30 के क़रीब है, और वह दक्षिण-पूर्वी दिल्ली में स्थित एक हाउसिंग कॉलोनी सरिता विहार में घर-घर जाकर काम करती हैं.

विवेक ने अपनी इस स्थिति के बारे में बताते हुए कहा, “मेरे घुटने एक साथ मिल जाते हैं, जबकि दूसरों के घुटने ऐसे नहीं होते. भगवान ने मुझे [चलने की] अपनी शैली दी है.”

0-6 वर्ष के आयु वर्ग के, हर 100 बच्चों में से एक को किसी न किसी प्रकार की विकलांगता है. इसके अलावा, 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में 2 करोड़ 68 लाख से ज़्यादा लोग अक्षमता के शिकार हैं. इनमें 1 करोड़ 49 लाख से ज़्यादा पुरूष और 1 करोड़ 18 लाख महिलाएं हैं. पुरुषों में, 22 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो विवेक की तरह ठीक से चल-फिर नहीं सकते.

जब विवेक ने एक वर्ष की आयु पार की और उस उम्र में पहुंचा जहां अधिकांश बच्चे चलने की कोशिश करते हैं, तो गीता को लगा कि उसके पैर थोड़े अलग हैं. वह कहती हैं, “मैंने सोचा कि वह [अन्य बच्चों की तरह] चल नहीं पाएगा, क्योंकि उसका वज़न अपने उम्र के बच्चों के वज़न से ज़्यादा था.” जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया, उसे चलने में मुश्किलें आती गईं. 2019 की शुरुआत में, गीता गुजरात में अपने गृहनगर दाहोद में एक डॉक्टर से मिलीं. डॉक्टर ने उनसे दिल्ली में स्थित बच्चों के एक अस्पताल, चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय में एक डॉक्टर से मिलने के लिए कहा. जिस समय गीता और उनका परिवार विवेक को दिल्ली ले जाने के लिए, ज़रूरी इंतज़ाम कर रहे थे, उसी समय महामारी फैल गई. उसके बाद लॉकडाउन ने उनके लिए उस वक़्त दिल्ली जाना, लगभग नामुमकिन कर दिया.

गीता कहती हैं, “अस्पताल में डॉक्टरों ने कहा कि विवेक के आठ साल का होने से पहले ही इलाज किया जा सकता था, लेकिन हम उस समय अस्पताल जा नहीं सके.” परिवार को दिल्ली तक पहुंचने के लिए, तमाम तरह के संघर्ष का सामना करना पड़ा; इस कारण विवेक डॉक्टर से मिलने में एक साल से ज़्यादा लेट हो चुका था. “उन्होंने हमें कोविड टेस्ट रिपोर्ट लाने के लिए कहा और फिर सार्वजनिक अस्पतालों में लाइनें भी बहुत लंबी होती हैं…और इतना सब करने के बाद भी इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि विवेक ठीक हो जाएगा.”

वह आगे कहती हैं, “ऐसे देखते-देखते, इलाज हो नहीं पाया.”

विवेक के पिता धर्वेंद्र (वह केवल इस नाम का इस्तेमाल करते हैं) और गीता दिल्ली आए. उस समय विवेक क़रीब दो साल (2015) का था. इससे पहले धर्वेंद्र ने समोसा, जलेबी, और सब्ज़ियां बेचने जैसे कई दूसरे काम भी किए थे. अब, धर्वेंद्र दिल्ली-बदरपुर सीमा पर स्थित इलेक्ट्रॉनिक्स की एक बड़ी कंपनी में बतौर सुरक्षा गार्ड काम करते हैं. वह आमतौर पर, दोपहर 3 से 10 बजे की शिफ़्ट में काम करते हैं. गीता बताती हैं, “मेरे पति इस शिफ़्ट में इसलिए काम करते हैं, क्योंकि हमारी कोशिश रहती है कि हम उसे [विवेक को] कभी अकेला न छोड़ें. अगर मेरे पति घर पर नहीं रहते हैं, तो पड़ोसी उसका ध्यान रखते हैं.”

गीता कहती हैं, ‘हम उसे दो महीने तक ज़रूरी दवाएं और इंजेक्शन दे पाए; जिनसे काफ़ी मदद मिली.’ तस्वीर: गीता देवी

जबसे वे इस शहर आए हैं, गीता घर-घर जाकर काम करती हैं. साथ में, दोनों मिलकर क़रीब 20,000 रुपए प्रति माह कमा लेते हैं और प्रति माह क़रीब 4 से 5 हज़ार रुपए बचा लेते हैं. वे दिल्ली-हरियाणा सीमा के पास स्थित मदनपुर खादर में किराए के एक कमरे वाले घर में रहते हैं, जिसके लिए उन्हें 5,000 रुपए का भुगतान करना पड़ता है. गीता कहती हैं, “शुक्र है कि हमारे ऊपर कोई कर्ज़ नहीं है और हम उस चिंता से मुक्त हैं.”

विवेक तीन साल साल तक मदनपुर खादर के एक अंग्रेज़ी मीडियम स्कूल में पढ़ने जाता था. गीता ने उसके स्कूल जाने-आने के लिए, एक साइकिल रिक्शा की व्यवस्था कर दी थी. उसकी चचेरी बहनें, उसी स्कूल में कक्षा सात और नौ में पढ़ती थीं. वे दोनों विवेक को उसकी बांहों से पकड़कर अपने बीच बिठाती थीं और ध्यान से उसे साथ ले जाती थीं. गीता कहती हैं, “व्यस्त सड़कों को पार हुए वह बहुत घबरा जाता है और उसे डर लगता है कि कहीं वह गिर न जाए.”

जब लॉकडाउन हुआ, तो गीता और धर्वेंद्र के काम में भी समस्याएं आने लगीं और उनकी आय कम हो गई. विवेक के स्कूल की छह महीने की 12 हज़ार रुपए की फ़ीस का भुगतान नहीं हो सका और उसे स्कूल से निकाल दिया गया. इसके बाद उसे सरिता विहार में स्थित एक सरकारी स्कूल – सर्वोदय कन्या विद्यालय में डाल दिया गया.

विवेक अब तीसरी कक्षा में है और अपनी मां के स्मार्टफ़ोन पर ऑनलाइन क्लास लेता है. गीता ने उसके शिक्षकों से अनुरोध किया है कि विवेक पर ख़ास ध्यान दें, और वह जो भी करता है उसके बारे में ज़्यादा सावधान रहें.  गीता कहती हैं, “[उनके शिक्षक] उसका बहुत अच्छा ख़याल रखते हैं.” वह इंतज़ार कर रही हैं कि कब कोविड की स्थिति में सुधार हो और फिर वह यूनीक डिसेबिलिटी आईडी (यूडीआईडी) के लिए आवेदन करें. यह आईडी, केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के दिव्यांगजन सशक्तिकरण विभाग द्वारा अक्षमता के शिकार बच्चों को दिया जाता है. इसके तहत आने वाले लाभार्थियों की पहचान की पुष्टि के लिए यूडीआईडी ही अकेला दस्तावेज़ है.

विवेक की मां गीता कहती हैं कि उन्हें इस बात का डर है कि जब वह बड़ा होगा, तो कहीं अपनी भावनाओं को साझा करना बंद न कर दे. इलस्ट्रेशन: अंतरा रमन

कभी-कभी जब विवेक अपने दोस्तों के साथ खेल रहा होता है, सड़क पार कर रहा होता है या कुछ ऐसा कर रहा होता है जिसे जल्दी करना होता है, तो वह झिझक जाता है. गीता बताती हैं, “डर जाता है कि मैं इतना तेज़ नहीं चल पाऊंगा.”

शुरुआत में उसके लिए बच्चों के साथ खेलना शुरू करना मुश्किल था. गीता बताती हैं, “दूसरे बच्चे मुझसे शिकायत करते थे कि ‘वह बहुत ज़्यादा गिरता है’. मैं उनसे कहती थी कि ‘या तो उसे खेलने मत दो, लेकिन अगर तुम उसे साथ खेलने देते हो, तो उसका ख़याल रखना’.” गीता के नज़रिए ने विवेक के प्रति लोगों के अटपटेपन को कम कर दिया. वह कहती हैं, “अब बिल्डिंग में रहने वाले लोग और हमारे आस-पास का हर इंसान विवेक की स्थिति से अवगत हैं और उन्होंने विवेक की इस स्थिति के बारे में बातें बनाना बंद कर दिया.”

विवेक की इस स्थिति को लेकर परिवार के बड़े लोग उतने सहयोगी नहीं रहे हैं. वह कहती हैं, “हमारे परिवार के बड़े सदस्यों को विवेक की इस स्थिति से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है और वे पूछते हैं कि विवेक के पैर टेढ़े क्यों हैं और हमने [उसके माता-पिता] ने इस बारे में कुछ क्यों नहीं किया? अगर वे मुझसे या मेरे पति से ये बातें कहेंगे, तो मुझे कोई दिक़्क़त नहीं है. लेकिन जब लोग विवेक से ये बातें कहते हैं, तो मुझे चिंता होती है कि वह तनाव में न आ जाए…”

”जोकर आ गया!”

जब विवेक यह सुनता है, तो वह अक्सर गुस्से से भर जाता है, चिड़चिड़ा हो जाता है, और भ्रमित हो उठता है. वह अपनी मां से पूछता है कि लोग उसका मज़ाक़ क्यों उड़ाते हैं, “ये ऐसा क्यों करते हैं?” कभी-कभार मज़ाक़ का पात्र होने के बावजूद, वह अपने दोस्तों के साथ खेलना पसंद करता है, जो नियमित रूप से इमारत की छत पर खेलते हैं. गीता कहती हैं कि उन्हें इस बात का डर है कि जब वह बड़ा होगा, तो कहीं अपनी भावनाओं को व्यक्त करना बंद न कर दे.

विवेक की छोटी बहन, जाह्नवी की स्थिति भी ऐसी ही थी, लेकिन दो साल की उम्र में ही उसका इलाज शुरू हो गया था, और वह अब ठीक है. शरीर में कैल्शियम की कमी को पूरा करने के लिए, जाह्नवी को विटामिन डी3 का इंजेक्शन दिया गया. कहा जाता है कि इस उपचार का इस्तेमाल हड्डियों को मज़बूत करने के लिए किया जाता है. इसके साथ ही, यह उपचार कैल्शियम की कमी को दूर करके, घुटनों को सीधा करने में मदद करता है.

गीता ने एक मेडिकल स्टोर से इंजेक्शन ख़रीदे और सार्वजनिक अस्पताल से सहायता ली. गीता कहती हैं, “हम उसे दो महीने तक ज़रूरी दवाएं और इंजेक्शन दे पाए; जिनसे काफ़ी मदद मिली. उसके टेढ़े पैर धीरे-धीरे सीधे हो गए. हमने उसे ख़ास जूते भी पहनाए. कुल मिलाकर, उसकी स्थिति विवेक की तुलना में बहुत बेहतर है.” गीता आगे बताती हैं कि उन्हें अब भी चिंता सताती है, कहीं उम्र बढ़ने के साथ-साथ, जाह्नवी की स्थिति पहले जैसी न हो जाए.

कोविड के कारण जाह्नवी के इंजेक्शन लगने बंद हो गए, क्योंकि सार्वजनिक अस्पताल पूरी तरह से कोविड के मामलों से भरे हुए थे. गीता ने उसके डॉक्टरों की सलाह पर विटामिन डी3 सिरप देना शुरू किया. जाह्नवी को विशेष आर्थोपेडिक जूते भी दिए जाएंगे, जिनसे उसकी इस परेशानी का इलाज करने में मदद मिल सकती है.

परिवार को डर है कि विवेक की स्थिति और भी ख़राब हो सकती है. गीता कहती हैं, “उसके पैरों के बीच दूरी धीरे-धीरे बढ़ रही है और जैसे-जैसे वह बड़ा होगा, उसके पैरों के बीच की दूरी ज़्यादा बढ़ जाएगी. उसके लिए संतुलन बनाए रखना और चलना मुश्किल होगा.” वह उम्मीद जताते हुए कहती हैं, “हमने तय किया है कि वह जब तक चाहे, तब तक पढ़ सकता है. और उसके बाद हम उसे एक छोटी सी दुकान दे देंगे, जहां उसे चलने की ज़रूरत नहीं होगी. हो सकता है कि वह एक आइसक्रीम की दुकान हो.”

पारी एजुकेशन, छात्रों को समाज के वंचित समुदायों पर लिखने के लिए प्रोत्साहित करता है. अक्षमता के शिकार लोगों पर आधारित इस शृंखला को, पुणे के तथापि ट्रस्ट का सहयोग हासिल है. अगर आप इस लेख को प्रकाशित करना चाहते हैं, तो कृपया zahra@ruralindiaonline.org पर मेल करें और उसकी एक कॉपी namita@ruralindiaonline.org पर भी भेज दें.

Editor's note

रोहन चोपड़ा, अशोक यूनिवर्सटी में राजनीति विज्ञान के द्वितीय वर्ष के छात्र हैं. पारी पर उनकी पिछली स्टोरी 'कॉलेज की डिग्री नौकरी की गारंटी नहीं देती' 2 नवंबर, 2021 को प्रकाशित हुई थी. उन्होंने कम आय वाले परिवारों के, शारीरिक अक्षमता के शिकार बच्चों की मुश्किलों को बेहतर ढंग से समझने के लिए, इस स्टोरी को लिखने का निर्णय लिया था. वह कहते हैं: “इस स्टोरी को लिखते समय, मुझे गीता दीदी जैसे लोगों के जीवन की मुश्किलों और उनके जैसे माता-पिताओं पर पड़ने वाला दबाव की झलक मिल पाई. मैं उनका आभारी हूं कि उन्होंने अपनी व्यक्तिगत जानकारी और भावनाओं को मेरे साथ साझा करने का फ़ैसला किया.”

इलस्ट्रेशन: अंतरा रमन

अनुवाद: अमित कुमार झा पेशे से अनुवादक हैं. उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई की है और अब जर्मन सीख रहे हैं.