उसने गाय की चौड़ाई, मुर्गे की लंबाई को मापा है और विभिन्न प्रकार के पत्तों का स्केच बनाया है। उसने कई प्रकार के बीजों को उनके उपयोग के अनुसार छांटना भी सीखा है। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि 13 साल की इस लड़की ने अपने सहपाठियों के साथ, “हमारे गाँव के नक्शे” बनाए हैं। इसने मांग की कि “मैं अपने ही गाँव, आस-पड़ोस, अपने ब्लॉक और जिले में बहुत सी चीज़ों का निरीक्षण करूँ। तब मैं इसे सही ढंग से बना सकती थी।”

लॉकडाउन के कारण संजना माझी शायद महीनों स्कूल से बाहर रही। लेकिन उसने कभी सीखना नहीं छोड़ा। ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले में इस आदिवासी लड़की का रवैया मार्क ट्वेन के प्रसिद्ध शब्दों को नया अर्थ देता है: “अपनी शिक्षा में स्कूल को कभी भी हस्तक्षेप न करने दें।” संजना के पास एक शिक्षक है, जो शारीरिक रूप से सक्रिय है भले ही उसका स्कूल न हो।

किसान आदिवासी समुदाय की यह नई किशोरी उन 53 बच्चों में से एक है, जिसे 26 वर्षीय रश्मि जयपुरिया स्कूल के बाहर पढ़ाती हैं। रश्मि के लिए, इसका मतलब है इस जिले के टुनमुरा गाँव में अधिकतर आदिवासी और दलित परिवारों की पाँच बस्तियों में जाना। “बच्चे खेती के बारे में जानते हैं,” वह कहती हैं। “उनके माता-पिता दिहाड़ी मज़दूर और किसान हैं। मैं उन्हें सिखा रही हूँ कि कैसे निरीक्षण करना है, कैसे अपने निष्कर्षों के नोट्स बनाने हैं और [अपने आसपास की चीज़ों के बारे में] पूछताछ करना है। इस व्यावहारिक शिक्षा में उन्हें आनंद मिल रहा है।” रश्मि की तरह, अन्य शिक्षक भी गरीबों के घरों तक शिक्षा पहुँचाने की चुनौती के लिए तैयार हो गए हैं।

“मैं इस क्लास को पास करके आगे निकल जाऊँगी,” शक्तिमय बेहेरा पूरे विश्वास से कहती है। “क्योंकि राखी [त्रिपाठी] टीचर मेरे घर [ओडिशा के जाजापुर जिले में] पढ़ाने के लिए आती हैं। इसलिए मेरा लिखने और अन्य पढ़ाई का काम लॉकडाउन के कारण बंद नहीं हुआ।” माधोपुर गाँव के गवर्नमेंट हाई स्कूल की 12 वर्षीय छात्रा, शक्तिमय डॉक्टर बनने के लिए पूरी तरह आश्वस्त है।

“मैंने उनके स्कूल की एक तस्वीर खींची और बच्चों को दिखाया कि कैसे बड़ी से बड़ी चीज़ को — जितना संभव हो उतने विस्तार से — छोटा बनाया जा सकता है।” सुंदरगढ़ की कुत्रा तहसील में रहने वाले 24 वर्षीय टीचर, नुटप बेहेरा बता रहे हैं। उनका मानना है कि लॉकडाउन ने, अपनी सभी समस्याओं के साथ, उन्हें पाठ्यपुस्तक पढ़ाने की क़ैद से मुक्त कर दिया है। वह स्थानीय नदी को पार करके गंगाजल गांव पहुँच कर अपने छात्रों को जीव विज्ञान पढ़ा सकते हैं। स्थानिक बुद्धिमत्ता का निर्माण करना और भूगोल पढ़ाना और भी रचनात्मक और ठोस बन जाता है। यही कारण है कि बच्चे अपनी बस्ती, गाँव, ग्राम पंचायत, ब्लॉक — और यहाँ तक कि दुनिया के नक्शे बनाने लगे।

छात्रों द्वारा हाथ से बनाए गए गाँव के नक़्शे देखने के लिए ऐरो पर क्लिक करें

यदि आप प्यासे हैं, तो हैंड पंप खोजने के लिए आप 10 वर्षीय आशीष कुमार मुदुली द्वारा बनाए गए उसके गाँव के नक्शे का उपयोग कर सकते हैं। यह स्पष्ट रूप से, जाजपुर जिले के सुकिंडा ब्लॉक में गाँव के तालाब, उसके स्कूल, आम के बगीचे, कृषि वाले खेतों, खुली जगहों और जंगल के साथ चिह्नित है।

संजना, शक्तिमय और आशीष भाग्यशाली हैं — स्कूल उनके घर आ गया है। लेकिन भारतीय शिक्षा में डिजिटल विभाजन ने कई बच्चों, ख़ासकर 11,02,783 सरकारी स्कूलों के छात्रों को कक्षा से बाहर कर दिया है। पहली पीढ़ी के शिक्षार्थियों के लिए, स्कूली शिक्षा में अंतराल अकादमिक रूप से घातक हो सकता है। ग्रामीण ओडिशा में, पाँच में से लगभग एक बच्चा स्कूल छोड़ देता है, और झारखंड में केवल 22 प्रतिशत ग्रामीण युवा ही अपनी स्कूली शिक्षा पूरी कर पाते हैं।

“मैं अपने गाँव [बाडाजमदा] में बहुत सारे बच्चों को हाथ से मज़दूरी करते देखती हूँ। कुछ छात्र स्कूल जाना इसलिए छोड़ देते हैं क्योंकि उनके पास कॉपी, किताब या पेंसिल ख़रीदने तक के लिए पैसे नहीं होते,” चिंतित दिख रही रश्मि गोप कहती है। किशोरावस्था में प्रवेश कर रही रश्मि, झारखंड के नोआमुंडी जिले में अपने स्कूल में बने रहना और अंततः एक शिक्षक बनना चाहती है। उसकी टीचर, 24 वर्षीय संध्या रानी तानती कहती हैं कि लॉकडाउन ने उनके कई छात्रों को छीन लिया और उन्हें दैनिक मज़दूर के रूप में घरों में काम करने से वापस लाना पड़ा।

केवल 5.8 प्रतिशत ग्रामीण ओडिशा और 11.9 प्रतिशत ग्रामीण झारखंड में इंटरनेट है। चित्रणः अंतरा रमन

साइकिल और स्कूटर पर यात्रा करके, और यहाँ तक कि कई बार पैदल चलकर, संध्या, रश्मि जयपुरिया, राखी, नुटप और ग्रामीण ओडिशा और झारखंड के 700 अन्य शिक्षकों ने ऑनलाइन जैसा विकल्प ढूँढ लिया है। “जब मैंने शिक्षिका के रूप में शुरुआत की, तो मुझे साइकिल भी चलाना नहीं आता था, लेकिन अब मैं स्कूटी चला लेती हूँ। मैं बहुत अच्छा ड्राइव कर लेती हूँ!” 27 वर्षीय पिंकी साहू बताती हैं। गाड़ी चलाने का यह कौशल लॉकडाउन के दौरान ओडिशा के केंदुझार जिले (जिसे क्योंझार के नाम से भी जाना जाता है) के हरिचंदनपुर ब्लॉक में घूमने में उनके काम आने लगा।

इन शिक्षकों ने जून से अब तक सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय की है। वे अधिकतर ग्रामीण और निकटवर्ती जिलों- ओडिशा के जाजपुर, केंदुझार, ढेंकनाल और सुंदरगढ़ तथा झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले की यात्रा करते हैं — और इसे एक नए प्रकार की होमस्कूलिंग (घर में विद्यालय) कहते हैं। वे घर-घर जा रहे हैं, छोटे समूहों (एक समय में एक से पांच व्यक्ति) में छात्रों से मिल रहे हैं और पेड़ों के नीचे, घर के आँगन में और अन्य खुले स्थानों पर उनके साथ बातचीत कर रहे हैं।

“शुरू में यह लुका-छिपी का खेल लगता था,” निबदिता मोहंता हँसते हुए कहती हैं। केंदुझार जिले के भांडा गाँव की यह 23 वर्षीय शिक्षिका अपने छात्रों को ढूँढने के लिए खेतों में, नदी के पास और कहीं भी पहुँच जाती थीं।

अपने छात्रों का पीछा करते हुए, वे सबसे कमज़ोर और सबसे गरीब 31,000 छात्रों तक पहुँचने में कामयाब रहे, जिनके लिए ऑनलाइन शिक्षा किसी परी की कहानी के समान है: ग्रामीण ओडिशा के केवल 5.8 प्रतिशत और ग्रामीण झारखंड के 11.9 प्रतिशत में इंटरनेट है।

परिवार के पास स्मार्ट फ़ोन नहीं है, इसलिए अगर ‘दीदी’ नहीं आतीं तो अनिल की पढ़ाई रुक जाती। अपनी टीचर नंदिनी बेहेरा को वह दीदी’ कहता है। तबरेज़ अंसारी द्वारा खींची गई तस्वीर

“मैं ज़्यादा कुछ नहीं कर रहा होता, अगर ये कक्षाएं नहीं होतीं तो मैं शायद दिन भर घूमता रहता,” अनिल चंपिया स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है। दिहाड़ी मज़दूर के बेटे, 13 वर्षीय अनिल को अपने उन दोस्तों की याद आती है, जिनके साथ वह झारखंड के नोआमुंडी बाजार के सरकारी स्कूल में खेला करता था। परिवार के पास स्मार्टफोन नहीं है, इसलिए अगर ‘दीदी’ नहीं होतीं तो उसकी शिक्षा रुक जाती और इंजीनियर बनने का सपना जाता। वह अपनी टीचर नंदिनी बेहेरा को ‘दीदी’ कहता है, जो उसे और छात्रों के एक छोटे समूह को पढ़ाने के लिए उसके गाँव, लखनसाई आती हैं।

नई शिक्षा नीति 2020 इस बात को स्वीकार करती है कि वर्तमान में 3.22 करोड़ बच्चे स्कूल से बाहर हैं और उन्हें वापस लाने के लिए, शिक्षकों को ‘समुदाय के साथ जुड़ना’ होगा और छात्रों को ‘पढ़ते कैसे हैं यह सीखाने के लिए’ पढ़ाना होगा।

“माता-पिता अपने बच्चों की शिक्षा में अधिक रुचि दिखा रहे हैं क्योंकि वे शिक्षकों को अक्सर और करीब के स्थानों पर देखते हैं। मैंने माता-पिता के साथ एक रिश्ता बनाया है और वे पढ़ाने के लिए मुझे अपने बरामदे की पेशकश करते हैं,” निबेदिता बताती हैं।

नए प्रकार की होमस्कूलिंग: शिक्षकों ने जून से अब तक सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय की है। वे अधिकतर ग्रामीण और निकटवर्ती जिलों-ओडिशा के जाजपुर, केंदुझार, ढेंकनाल और सुंदरगढ़ तथा झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले की यात्रा करते हैं

व्यक्तिगत ध्यान, अनुकूलित कार्यक्रम और व्यापक पाठ्यक्रम के एक साथ आने से शिक्षा के सभी परिणामों में उल्लेखनीय सुधार हो रहा है। गाँवों के नक्शे बनाने से लेकर कीटों की विस्तृत चित्रकारी, घरेलू सामानों के साथ विज्ञान के प्रयोग और थोड़ा कृषि-विज्ञान तक, ये शिक्षक छात्रों के साथ काम कर रहे हैं ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वे सीखते रहें और पढ़ाई न छोड़ें। ये ग्रामीण शिक्षाविद् गैर-सरकारी संगठन एस्पायर (ASPIRE) और टाटा स्टील फाउंडेशन की एक पहल का हिस्सा हैं।

बाल दिवस 2020 के अवसर पर, पारी एजुकेशन ग्रामीण ओडिशा और झारखंड के इन शिक्षकों की कहानियाँ और लॉकडाउन के दौरान उनके छात्रों द्वारा बनाए गए मानचित्र का नमूना पेश कर रहा है।

नक्शे क्यों? केंदुझार जिले के डिंबो गाँव की 22 वर्षीय शिक्षिका, मोनालिसा साहू बताती हैं: “हो सकता है कि हमारे बच्चे भारत का नक्शा जानते हों, लेकिन वे अपने गाँव को नहीं जानते। हमने अवलोकन की उनकी शक्तियों को विकसित होते देखा है — वे इस बात पर ध्यान देने लगे कि उनके गांवों में आसपास क्या हो रहा है। हमने सोचा कि वे नक्शे के माध्यम से इस बारे में सीख सकते हैं।”

अपने नक्शे को बनाने के बाद, कुत्रा तहसील के 10 वर्षीय गोंड आदिवासी लड़के, प्राची बरिहा ने बताया: “मुझे नहीं पता था कि दुनिया इतनी बड़ी है। मैं इसे पहले नहीं जानता था।”

दंबारू दार नियो
आयुः 39 वर्ष
स्थानः कुत्रा ब्लॉक, सुंदरगढ़ जिला, ओडिशा

ओडिशा में, कक्षा 8 की परीक्षा हो रही है और बच्चों को अपना नाम और अपने पिता का नाम लिखना है। कई बच्चे लिखने में असमर्थ हैं। अक्सर, दिखावा के लिए वे परीक्षा देते हैं और नाम लिखने के लिए अपने आधार कार्ड का उपयोग करते हैं। छात्रों को स्कूल की पढ़ाई जारी रखना मुश्किल लगता है और वे कक्षा 8 के बाद उसे छोड़ देते हैं।

मैं एक दलित हूं और मैंने अपने गृहनगर नुआपाड़ा के एक सरकारी स्कूल से पढ़ाई की है। अब मैं 400 किलोमीटर दूर, सुंदरगढ़ जिले में काम करता हूं — यहां 47 शिक्षकों को पढ़ाता और उनका पर्यवेक्षण करता हूँ।

हम सरकारी स्कूलों के साथ मिलकर काम करते हैं और देख रहे हैं कि शिक्षक अपने स्वयं के शिक्षण और छात्रों को पढ़ाने में बहुत कम रुचि दिखाते हैं। वे शिक्षा को केवल पाठ्यपुस्तक ज्ञान के रूप में देखते हैं। मैंने यह भी देखा कि ये लोग ख़ुद अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाते हैं!

हम इससे अलग तरीके से पढाते हैं। हम गतिविधि-आधारित-शिक्षण प्रदान करते हैं और अधिकांश शिक्षकों को इसके बारे में पता नहीं है। अपने प्रशिक्षण में, हमने देखा कि शिक्षक शुरू में खुद इन गतिविधियों में भाग नहीं लेते हैं। जब वे भाग लेना शुरू कर देते हैं, तो इसके उपयोग को समझने लगते हैं।

सौर मंडल के बारे में पढ़ाने का ही उदाहरण ले लीजिए। आमतौर पर विज्ञान का शिक्षक इसे ब्लैक-बोर्ड पर बना देता है। हम बच्चों को विज्ञान पढ़ाने के लिए कक्षा से बाहर ले जाते हैं, हम उन्हें सौर मंडल के मॉडल दिखाते हैं और छात्रों को अपना संस्करण बनाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। विज्ञान को पढ़ाने के लिए अवलोकन एक महत्वपूर्ण मापदंड है। बच्चे पूरी तरह भाग लेने लगते हैं और गहरी सोच में सुधार होता है।


पिंकी साहू
आयुः 27 वर्ष
स्थानः हरिचंदनपुर ब्लॉक, कंदुझार जिला, ओडिशा

मेरी माता का हस्ताक्षर अंगूठे का निशान है। हमें कुछ अलग करना चाहिए।

मैंने जब 2015 में पढ़ाना शुरू किया, तो मुझे पता नहीं था कि साइकिल कैसे चलाते हैं। इसलिए मैं जंगल से होकर स्कूल जाती थी। 2017 में, मैंने सेकंड-हैंड स्कूटी खरीदी। लोग टिप्पणी करते [और पूछते], “उसे साइकिल [चलानी] तो आती नहीं, वह स्कूटी [चलाना] कैसे सीखेगी?” मैंने चुनौती को स्वीकार किया और अब मैंने एक और स्कूटी ख़रीद ली है। और मैं बहुत अच्छा चलाती हूँ!

‘शिक्षक और छात्र अक्सर एक ही भाषा नहीं बोलते हैं’

यहां के शिक्षकों के लिए भाषा सबसे बड़ी चुनौती है। मेरे क्षेत्र में सभी बच्चे आदिवासी और दलित हैं; वे ज्यादातर ‘संताली’ और ‘हो’ बोलते हैं, जिसे अन्य जातियों के शिक्षक हमेशा नहीं बोलते। फिर जाति एक कारण है, क्योंकि कुछ शिक्षक बच्चों के करीब भी नहीं जाएंगे और इसे खुले तौर पर नहीं दिखाएंगे। इसलिए बच्चे चुप रहते हैं और डरते हैं। इस माहौल में कोई कैसे सीख सकता है?

उनके माता-पिता मज़दूरी का काम ढूँढने के लिए जल्दी उठते हैं। इसलिए किसी को परवाह नहीं होती कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं या पढ़ाई कर रहे हैं कि नहीं। अगर बच्चे स्कूल जाते भी हैं, तो वे मछली पकड़ने या जलाऊ लकड़ी इकट्ठा करने के लिए वहां से भाग जाते हैं।

माता-पिता उड़िया नहीं बोलते, इसलिए शिक्षकों को माता-पिता से बात करने में कठिनाई होती है। ऐसा मेरे साथ भी हुआ: मुझे बच्चों को आने के लिए राज़ी करना पड़ा और जब वे आए तो उन्हें एक शब्द भी समझ नहीं आया। उन क्षणों में मुझे बहुत रोना आया। मेरी मां ने भी मुझे अपना स्कूल बदलने के लिए कहा। मैंने हार नहीं मानी; मैंने एक संथाल शिक्षिका पर ध्यान दिया, जो कक्षा 1 और 2 को पढ़ाती थीं, और मैंने उनसे ‘हो’ में कुछ शब्द सीखना शुरू किया।

हमने जब मानचित्र का अभ्यास किया, तो उन्हें बताया कि कैसे मानचित्र हमें चीज़ों को आसानी से देखने और खोजने की अनुमति देते हैं। शिक्षकों के रूप में, हमने गाँव का नक्शा बनाने में समुदाय के साथ मिलकर काम किया। इसलिए हमें प्रतीकों के बारे में जानकारी थी, लेकिन बच्चे कुछ नया लेकर आए। उदाहरण के लिए, ‘यूथ क्लब’ के लिए, उन्होंने छड़ी के साथ एक लड़के और लड़की के प्रतीक का उपयोग किया।

हम सुरक्षा को लेकर बहुत सावधान हैं। अगर हमें लगता है कि हमें बुखार या सर्दी है, तो हम नहीं जाते। हम बच्चों से भी यही कहते हैं कि अगर वे स्वस्थ महसूस नहीं कर रहे हैं, तो उन्हें नहीं आना चाहिए। वे जब आते हैं, तो मैं उनकी क़लम या कागज़ को नहीं छूती और बच्चों को भी एक-दूसरे की क़लम और कागज़ छूने की अनुमति नहीं देती। मैं उन्हें थोड़ी दूरी पर बैठाती हूँ और उनसे हाथ धोने के लिए कहती हूँ। उनके माता-पिता ने साबुन के लिए [पैसे का] योगदान दिया है।


नुतप बेहेरा
आयुः 24 वर्ष
स्थानः गंगाजल गाँव, कुत्रा ब्लॉक, सुंदरगढ़ जिला, ओडिशा

लॉकडाउन से पहले, स्कूल में ‘पाठ्यपुस्तक’ की शिक्षा दी जाती थी। अब, कोई सीमा नहीं है। मेरा शिक्षण प्रकृति के साथ अधिक निकटता से जुड़ा हुआ है। जलीय जीवों के बारे में पढ़ाने के लिए, मैं उन्हें नदी के पास ले जाती हूँ। मैं जिन बच्चों को पढ़ाती हूँ उनमें से अधिकांश आदिवासी हैं और वे खेती के बारे में जानते हैं, लेकिन पूरी प्रक्रिया को नहीं जानते।

छात्र अपने समय का प्रबंधन करना, ख़ुद से कैसे बैठना और ध्यान देना है, यह सब सीखते हैं। बैजंती बरिहा के द्वारा खींची गई तस्वीर

हम खेतों में काम करने वाले लोगों से मिले और बात की। उस दिन उनका होमवर्क अपने स्वयं के बीज उगाना और विकास क्यों हुआ और क्यों नहीं हुआ, इस पर टिप्पणियों के साथ कक्षा में वापस आना था। दुनिया डिजिटल हो रही है। बच्चे डिजिटल [ज्ञान] की गहराई में जा रहे हैं और चीज़ों की पारंपरिक समझ खो रहे हैं।

मानचित्र बनाने की गतिविधि में, हम उन्हें दिखाना चाहते थे कि दुनिया बड़ी है, लेकिन हम इसे एक छोटे कागज़ पर कैसे दर्शा सकते हैं? वे नक्शे में कुछ भी समझाने में असमर्थ हैं, या यह कैसे बनाया जाता है। या इसके बिना दूरी को कैसे मापें। इसे बदलने के लिए, मैं उन्हें उनके स्कूल में ले गया और उसकी एक तस्वीर खींची। उन्होंने देखा कि कैसे किसी बड़ी चीज़ को — पूरे विस्तार के साथ — छोटे में बनाया जा सकता है। इसी परिप्रेक्ष्य से हम मानचित्रों को सामने लाने में सक्षम हुए। इसके माध्यम से, उन्होंने अपने नक्शे के लिए प्रतीक बनाए। इसे पूरा करने के बाद, उन्होंने अपनी ग्राम पंचायत का नक्शा बनाया, फिर अपने जिले, राज्य, देश, महाद्वीप और अंत में दुनिया का नक्शा बनाया। यदि आप मेरे किसी भी छात्र से पूछें कि ऑस्ट्रेलिया कहाँ है और किस चीज़ के लिए जाना जाता है, तो वे आपको बताएंगे!

स्कूल जब बंद हो गए, तो छात्रों को अपने शिक्षकों या माता-पिता के मार्गदर्शन के बिना, अपने समय का प्रबंधन करना सीखना पड़ा। धीरे-धीरे वे सीख रहे हैं कि ख़ुद से कैसे बैठें और केवल पढ़ाई ही नहीं, बल्कि किसी दूसरी चीज़ पर भी ध्यान कैसे केंद्रित करें। यह देखकर अच्छा लगता है। मैंने समय सारिणी इस तरह बनाई है कि उन्हें अपने दम पर अध्ययन करने और खेलने, दोनों का समय मिल जाता है।

एक शिक्षक के रूप में, मेरा ध्यान हमेशा कमज़ोर छात्रों पर रहा है। लेकिन कक्षा में, यदि आप दोहराते रहते हैं और उनके लिए धीमी गति से चलते हैं, तो दूसरे बच्चे ऊब जाते हैं या चिढ़ जाते हैं। छोटी कक्षाओं में, यह अब कोई समस्या नहीं है। हम दो से तीन घंटे बैठ सकते हैं और धीरे-धीरे काम करते हुए उनकी व्यक्तिगत शिक्षा पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं। कक्षा जैसा शोर और हंगामा भी नहीं होता, जो आमतौर पर मेरा बहुत समय लेता है।

इस मॉडल का चुनौतीपूर्ण हिस्सा यह है कि फ़सल कटाई के समय बच्चों को अभी भी अपने माता-पिता के साथ जाना पड़ता है। या अगर [प्रवासी] काम शुरू हो रहा हो। मैं अकेला रहता हूं, और कभी-कभी मेरी कक्षाएं रात के 8 से 9 बजे तक चलती हैं। जब तक मैं खाना बनाता और खाता हूँ, तब तक आधी रात हो चुकी होती है। लेकिन यह मेरी ज़िम्मेदारी है।

जब लॉकडाउन शुरू हुआ, तो अधिकांश स्कूल बच्चों को वर्चुअल तरीक़े से पढ़ाने लगे। बड़ी मुश्किल से, शायद मेरे दो या तीन छात्रों के परिवारों के पास एंड्रॉयड फ़ोन है, और उनके माता-पिता इसे काम पर ले जाते हैं। अगर उनके पास, या उनके माता-पिता के पास [स्मार्टफोन] है, तब भी इसे कैसे चलाना है यह सीखने में समय लगेगा।

मैं 43 छात्रों के साथ काम करता हूँ और पाँच और उससे अधिक के समूहों का दौरा करता हूँ। आमतौर पर, मैं उनके घरों में पढ़ाता हूँ — बरामदा हमारे लिए काफी उपयुक्त है। मैं छात्रों के प्रत्येक समूह के साथ लगभग दो से तीन घंटे बिताता हूँ। मुझे सप्ताह में कम से कम एक बार सभी छात्रों तक पहुँचना होता है, इसलिए मैं अपनी साइकिल का उपयोग करता हूँ, और पैदल भी चलता हूँ।


चंद्रमणि माजी
आयुः 32 वर्ष
स्थानः कांधा आदिवासी, नोआमुंडी ब्लॉक, पश्चिमी सिंहभूम जिला, झारखंड

हमने जब शुरू किया, तो बच्चे के हाथ में किताब पकड़ाते ही वे भाग जाते थे’

हमने अपने क्षेत्र में देखा कि कई बच्चे स्कूल से बाहर थे। उनके नाम नामांकन के रूप में सूचीबद्ध थे, लेकिन वे स्कूल में मौजूद नहीं थे। जब बच्चे स्कूल आते थे, तब भी वे अपनी कक्षा के स्तर के अनुसार प्रदर्शन नहीं कर पाते थे। कक्षा 5 के छात्रों को पढ़ना और लिखना नहीं आता था।

हमने जब शुरू किया, तो बच्चे के हाथ में किताब पकड़ाते ही वे भाग जाते थे! धीरे-धीरे वे ख़ुद से पढ़ने लगे हैं। वे नई चीज़ें सीखना चाहते हैं और उनका शैक्षणिक काम अधिक नियमित हो गया है।

जब हमने बच्चों के साथ काम करना शुरू किया था, तब वे केवल यही कहते थे, ‘मैं एक शिक्षक या पुलिस या डॉक्टर बनूंगा’। अब कुछ कहते हैं, ‘मैं एक कलाकार बनूंगा,’ दूसरा कहता है खिलाड़ी [पहलवान] बनूंगा।

मैं ओडिशा से हूँ और झारखंड में शिक्षक समन्वयक के रूप में काम करता हूँ। सभी शिक्षकों की भर्ती इन क्षेत्रों से हुई है। अधिकांश लोग आदिवासी हैं और संताल और हो समुदायों से हैं।


निबेदिता महंता
आयुः 23 वर्ष
स्थानः भांडा गाँव, चंपुआ ब्लॉक, केंदुझार जिला, ओडिशा

शुरुआती दिनों में, माता-पिता और बच्चे घर पर उपलब्ध नहीं थे और मुझे छात्रों को उनके गाँव में तलाश करना पड़ता था। छात्रों को ढूँढने में मुझे दो से तीन घंटे लग जाते थे। वे मुझे देखते और कहते, ‘दीदी आ रही है’ और फिर भाग जाते थे! मुझे उनको खेतों में या नदी पर ढूँढना पड़ता था, यहाँ और वहाँ उन्हें तलाश करना पड़ता था। अब बच्चे मुझसे पहले पहुँच जाते हैं। मैंने उनके माता-पिता और गाँव के अन्य युवाओं के साथ एक रिश्ता बनाया है। क्योंकि माता-पिता मुझे पढ़ाते हुए देखते हैं, इसलिए बच्चे झूठ भी नहीं बोल सकते कि उनका शिक्षक स्कूल नहीं आया था!

लॉकडाउन में जब मैंने अपनी पहली कक्षा शुरू की, तो मुझे माता-पिता के साथ बातचीत करने, उनके त्योहारों, दैनिक जीवन के कार्य, भाषा आदि के बारे में जानने में कुछ समय लगा। जब मुझे पता चल गया तो मैं माता-पिता को अपने बच्चे की शिक्षा में शामिल होने के लिए प्रेरित करने लगी। कुछ दिनों के बाद माता-पिता मेरे साथ सहज हो गए और हमारी कक्षाओं का समर्थन करने लगे। मैं घर-घर जाती हूँ और माता-पिता मुझे छोटे समूहों में पढ़ाने के लिए अपने बरामदे की पेशकश करते हैं। मैंने प्रत्येक बच्चे के लिए एक समय सारिणी बनाई है और मैं सप्ताह में दो बार उन सभी 67 के पास जाती हूँ। मैं भीड़ से मुक्त स्थानों पर अपनी कक्षाएं लेने की कोशिश करती हूँ।

‘मैंने भारत की रूपरेखा ज़मीन पर बनाई। और यह दिखाने के लिए कि हर राज्य कहाँ है, इसे फ़्लैश कार्ड से भर दिया

मानचित्र की परियोजना इसलिए आई क्योंकि हमें लगा कि उन्हें अपने गाँव को अच्छी तरह से जानना चाहिए। कम से कम उन्हें भारत का नक्शा सिखाने से पहले। अपने गाँवों का नक्शा बनाते समय उन्होंने दिशाएँ सीखीं — आँगनवाड़ी कहाँ है, कौन से मार्ग कहाँ जा रहे हैं और उनके अपने घरों का स्थान कहाँ है।

छात्रों ने जब अपने नक्शे बना लिए और प्रतीकों को बनाना सीख लिया, तो हमने भारत के नक्शे को पेश किया। यह बहुत मुश्किल था। यहाँ तक कि विभिन्न राज्यों के नामों का उच्चारण भी कठिन था। इसके लिए मैंने एक बड़े कागज़ पर भारत का नक्शा बनाया और इसे प्रत्येक निवास स्थान पर ले गई। फिर मैंने ज़मीन पर भारत की रूपरेखा बनाई। और यह दिखाने के लिए कि प्रत्येक राज्य कहाँ है, इसे फ्लैशकार्ड से भर दिया। इस तरह उन्होंने उत्तर-दक्षिण-पूर्व-पश्चिम को समझा। उनका आकलन करने के लिए, मैं छात्र को किसी राज्य का फ्लैशकार्ड देती और उन्हें इसे मानचित्र पर रखने के लिए कहती। यह सफल रहा और अब हम जिले के नक्शे बनाने की ओर बढ़ रहे हैं।


रश्मि जयपुरिया
आयुः 26 वर्ष
स्थानः गोमारडीही बस्ती, टुनमुरा गाँव, कुत्रा ब्लॉक, सुंदरगढ़ जिला, ओडिशा

हमने फ़र्श की गतिविधि के साथ शुरुआत की — चाक के साथ हमने फ़र्श पर भारत का नक्शा बनाया और हमने राज्यों और उनकी राजधानियों की खोज और उनकी पहचान की। अब वे [बच्चे] आसानी से मुझे बता सकते हैं कि कौन से राज्य भारत के पूर्व में हैं और कौन पश्चिम में।

मैं किस बस्ती में जा रही हूँ, इसे ध्यान में रखकर पाठ तैयार करती हूँ

पहले 29 राज्य थे, अब लद्दाख जैसे स्थानों में परिवर्तन के कारण, मैं उन्हें इस गतिविधि के साथ उसके बारे में सिखाने में सक्षम रही। आंध्र प्रदेश में भी, पहले राजधानी हैदराबाद थी, लेकिन अब अमरावती है। तो अब बच्चों ने इन नई चीज़ों के बारे में सीख लिया है।

गाँव का नक़्शा बनाते समय, उन्होंने यह पहचान लिया है कि कच्ची सड़क कहाँ है और पक्की सड़कों के लिए किन प्रतीकों का इस्तेमाल किया जा सकता है। अब, सड़क पर प्रतीकों को देखने के बाद वे उन्हें पहचान सकते हैं, और वे जहाँ भी जाएं एक नक्शा बना सकते हैं। हम उन्हें अवलोकन करने और उसे अपनी नोटबुक में लिखने के लिए प्रोत्साहित करते हैं; यह उन्हें व्यस्त रखता है।

हमने उन्हें खेती के बारे में पढ़ाया और खेत में गए, और उन्होंने वापस आकर अपने खुद के पौधों को उगाने की कोशिश की, यह मापते हुए कि इसे काटने के लिए कितना लंबा होना चाहिए, और चावल को अच्छी तरह से उगाने के लिए एक-दूसरे से कितनी दूरी पर लगाना चाहिए। वे किसान परिवारों से आते हैं, लेकिन यह अवलोकन उनके लिए नया था। हमने विभिन्न प्रकार की जड़ें लगाईं और समुदाय ने इसमें हमारा साथ दिया। इस प्रकार छात्रों ने समझा कि मिट्टी को क्या चाहिए और कितना पानी देना है। अब पेड़ खिल गए हैं इसलिए वे इसे देखकर बहुत ख़ुश हैं। क्योंकि उन्होंने यह सब स्वयं, अपने हाथों से किया है।

हमारी गतिविधियों में से एक मुर्गी की ऊँचाई और गाय की चौड़ाई को मापना था। माता-पिता ने जब उद्देश्य को समझा, तो उन्होंने अपने बच्चों की सहायता की और अपने घरों में हमारा स्वागत किया। उनके माता-पिता ज्यादातर किसान और दिहाड़ी मज़दूर हैं; मैं उन्हें अपने बच्चों की शिक्षा में शामिल देखकर ख़ुशी महसूस करती हूँ।

निजी तौर पर, मैंने भी बहुत कुछ सीखा है। मैं किस बस्ती में जा रही हूँ, उसके आधार पर पाठ को तैयार करने में समय बिताती हूँ। जब मैं अन्य शिक्षकों के साथ काम करती हूँ, तो हम एक-दूसरे से सीखते हैं।


मोनालिसा साहू
आयुः 22 वर्ष
स्थानः डिंबो गाँव, केंदुझारगढ़ ब्लॉक, केंदुझार जिला, ओडिशा

मेरा दिन सुबह 6 बजे शुरू होता है और शाम को 6 बजे या उसके बाद खत्म होता है। मैं बच्चों के तीन समूहों, सभी में 41 छात्र, को पढ़ाने के लिए लगभग 15 किलोमीटर की दूरी तय करती हूँ।

इससे पहले, छात्र यह बताने में सक्षम थे कि उन्होंने क्या देखा लेकिन उसे लिख नहीं पाते थे। वे चित्र बनाने और लेबल करने में सक्षम थे लेकिन लिखते नहीं थे। अब वे लगभग 10 से 12 लाइनें लिखने में सक्षम हैं। हो सकता है कि हमारे बच्चे भारत का नक्शा जानते हों लेकिन वे अपने गाँव को नहीं जानते। हमने सोचा कि वे नक्शे के माध्यम से इस बारे में जान सकते हैं। हमने देखा कि उनकी सोचने-समझने की शक्ति भी विकसित हो रही है — उन्होंने अपने गाँव में अपने आसपास मौजूद चीज़ों को देखना और ख़ुद से पूछना शुरू किया कि क्या उन्हें इसके बारे में पता था।

लॉकडाउन में जब मैंने घर के स्तर पर पढ़ाना शुरू किया, तो मैंने देखा कि मेरे आधे छात्र वर्णमाला के स्तर पर थे [वर्णमाला की पहचान करने में सक्षम]। वे ओडिया और अंग्रेज़ी की केवल आधी वर्णमाला जानते थे। अब वे इन्हें लिखने में सक्षम हैं और साथ ही ओडिय़ा में एक से लेकर 100 तक की गिनती भी सुना सकते हैं।

मुझे शिक्षा का मूल्य पता है, लेकिन मैं इसका महत्व नहीं देख पाई थी। अब मैं देख रही हूँ कि उनकी सोच कैसे विकसित हो रही है।


राखी त्रिपाठी
आयुः 23 वर्ष
स्थानः एंपोलाबा गाँव, सुकिंडा ब्लॉक, जाजपुर जिला, ओडिशा

मेरे 70 प्रतिशत छात्रों के परिवारों के पास स्मार्टफ़ोन नहीं है। जिनके पास है, वे ऑनलाइन शिक्षा से दूर हैं। अब उन्हें सर्च बार में टाइप करने और स्पीकर के माध्यम से सवाल पूछने का अवसर मिल गया है। वे खोजने और सीखने के लिए इस ज्ञान का उपयोग कर रहे हैं।

मैं 14 बस्तियों [घरों के समूह] का दौरा करती हूँ और रोज़ाना लगभग आठ से 10 किलोमीटर साइकिल चलाती हूँ। पूरे सप्ताह, मैं उन पाँच बच्चों के साथ एक-एक करके कक्षाएं लेती हूँ जो दूसरों से बहुत दूर रहते हैं। अन्य 51 को मैं छोटे समूहों में पढ़ाती हूँ क्योंकि वे एक दूसरे के क़रीब रहते हैं। हमने इन पाँच बच्चों को समूह में पढ़ाने के लिए साथ लाने की कोशिश की, लेकिन हमें लगा कि उन्हें इतनी दूरी तय करने पर मजबूर करना उचित नहीं होगा।

मेरा दिन सुबह 5:30 बजे शुरू होता है और अपने घर का काम समाप्त करने के बाद मैं अपनी पहली कक्षा के लिए 6:30 बजे तक निकल जाती हूँ और फिर 12 घंटे बाद घर लौटती हूँ। सोमवार से शनिवार यह यही मेरी दिनचर्या है, और यदि सप्ताह के दौरान कोई बच्चा छूट जाता है, तो मैं रविवार को उससे मिलने जाती हूँ।

हम स्मिता अग्रवाल, तबरेज़ अंसारी और उन सभी शिक्षकों और छात्रों को धन्यवाद देना चाहते हैं जिन्होंने हमारे साथ अपना काम और समय साझा किया।

हिंदी अनुवादः मोहम्मद क़मर तबरेज़

Editor's note

रिया बहल अशोका विश्वविद्यालय में 2019-2020 की मदर टेरेसा फेलो हैं और पारी के साथ इंटर्नशिप कर रही हैं। उन्होंने कई साक्षात्कार किए और इस स्टोरी के लिए रिपोर्ट किया। वह बताती हैं, “मैंने प्रत्यक्ष रूप से सुना कि लॉकडाउन के दौरान शिक्षक, छात्रों तक पहुँचने के लिए इतनी लंबी दूरी तय कर रहे हैं और इस प्रकार की शिक्षा दी जा रही है। इस स्टोरी के लिए शोध एक शिक्षक होने की प्रतिबद्धता और साहस का एक सबक़ था।”

अंतरा रमन बैंगलोर में स्थित एक चित्रकार और ग्राफ़िक डिज़ाइनर हैं। उनकी कला पर सामाजिक विज्ञान और पारिस्थितिकी तथा संरक्षण के लिए जुनून का सबसे अधिक प्रभाव है। एक लालायिक पाठक के रूप में, पारी के लिए बनाए गए उनके चित्रों में वर्णनात्मक गुणवत्ता और रंग का लाक्षणिक उपयोग स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।