सुबह 4 बजे का समय है. चिड़ियों ने अभी तक चहचहाना शुरू नहीं किया है, लेकिन पानी बहने, स्टील और प्लास्टिक की बाल्टियों के टकराने और उनके उठापटक की आवाज़ें आने लगी हैं, क्योंकि इस वक़्त तक आसियाकी गोरावास की औरतें उठ चुकी होती हैं.

सुमित्रा (वह केवल इस नाम का उपयोग करती हैं) एक छोटे से डिब्बे में मुख्य सड़क पर एक सार्वजनिक नल से पानी भर रही हैं, जिसका उपयोग वह स्टील की बाल्टी और प्लास्टिक या मिट्टी के कुछ बर्तनों को भरने के लिए करती हैं.

यहां पानी की आपूर्ति हर रोज़ सार्वजनिक नल के ज़रिए की जाती है, लेकिन पानी आने का समय अलग-अलग हो सकता है. रेवाड़ी ज़िले के जटुसाना तहसील में पानी जमा करने के लिए लोगों को अपनी अनुमान लगाने की क्षमता, अपनी क़िस्मत, और पड़ोसियों की मदद पर निर्भर रहना पड़ता है, ताकि पानी ख़त्म होने से पहले वे उसे इकट्ठा कर सकें. सुमित्रा अपने सर पर अन्य ज़िम्मेदारियों का भार लिए कभी 11 बजे दिन में, 2 बजे रात में या सुबह तड़के 4 बजे यहां पानी लेने आती हैं. उनके आने का समय पानी की आपूर्ति के समय पर निर्भर करता है.

वह किसी दिन नागा नहीं करतीं और इस काम के लिए किसी और पर निर्भर नहीं रहतीं. असल में, मेरी मां पैसा कमाने, परिवार के लिए खाना बनाने और खिलाने जैसे किसी काम के लिए दूसरे पर निर्भर नहीं हैं.

वह कहती हैं, “कहां से दिन शुरू और कहां ख़त्म, हमें कोई अंदाज़ा नहीं.” दिन और रात उनके न ख़त्म होने वाले कामों की ज़िम्मेदारियों की भेंट चढ़ जाते हैं. मां 55 साल की हैं और उनके चार बच्चे हैं. मेरा सबसे बड़ा भाई हरिराम 29 साल और मेरी बहनें मंजू कुमारी और ऋतु, 26 और 23 साल की हैं. मैं सबसे छोटा (21 साल) हूं.

एक बार पानी इकट्ठा करके जमा कर लेने के बाद, सुमित्रा हमारे 6 सदस्यों के परिवार के लिए मिट्टी के चूल्हे पर सुबह का खाना, यानी सब्ज़ी और रोटी बनाना शुरू करती हैं. उसके बाद, वह काम पर जाने से पहले घर के दूसरे काम जल्दी-जल्दी निपटाती हैं.

मेरी मां जैसे दिहाड़ी मज़दूर के लिए एक-एक सेकंड की क़ीमत होती है, नहीं तो उनके हाथ से काम निकल जाएगा. यहां तक कि अपने लिए बनाए गए एक कप चाय को भी वह एक बार में ही सुड़क जाती हैं. अपने पड़ोसियों और साथ काम करने वाले मज़दूरों को आवाज़ देते हुए वह घर से निकल जाती हैं, जब घर के बाक़ी सदस्य मिट्टी और ईंट के बने अपने मकान में सो रहे होते हैं.

पड़ोसी शांता देवी (45 वर्षीय) दिन का खाना बना रही हैं. लेकिन, मेरी मां के बुलाने पर वह अपनी बेटी को सारा काम सौंपकर भागते हुए ट्रैक्टर के पास चली जाती हैं, जिसे ज़मीन के मालिक ने उनके जैसे कई मज़दूरों को खेतों तक ले आने के लिए भेजा है. दरवाज़े के पास लगी कील पर टंगा एक मर्दाना शर्ट उतारकर अपने साथ रख लेती हैं, ताकि खेत में काम करने के दौरान उसे पहने सकें और घर से निकलते वक़्त अपना सर दुपट्टे से ढंक लेती हैं.

फिर से देर हो जाने के कारण शांता का मन बहुत ख़राब है, जबकि अभी सारा दिन उन्हें कड़ी मेहनत करनी है. वह अपनी क़िस्मत को कोसते हुए कहती हैं, “भागे जावें भागे आवें, न खाने को टाइम न पीने का टाइम (पूरे वक़्त भागदौड़ लगी रहती है. न खाने का समय है, न ही पीने का).” वह बड़बड़ाती हुई दूसरी औरतों के साथ ट्रैक्टर पर चढ़कर बैठ जाती हैं.

मेरी मां और शांता के साथ सन्नो, राजन देवी, आरती, और लीलावती हैं. आसियाकी गोरावास की ये सभी औरतें दिहाड़ी काम ढूंढती हैं. ये खेतिहर मज़दूर हैं, बड़े किसानों के खेतों में दिहाड़ी काम करके अपने और अपने परिवार का पेट पालती हैं. किसी भी रोज़ काम मिलने पर, वे क़रीब 100 किमी दूर तक भी अपने कार्यस्थल पर जाकर वापस आ सकती हैं.

मेरा गांव आसियाकी गोरावास दिल्ली से दक्षिण की ओर क़रीब 200 किमी दूर रेवाड़ी ज़िले में है, जिसकी जनसंख्या 2,862 है. इसमें से 1049 लोग दलित हैं, जिनके पास मेरी मां की तरह ही अपनी ज़मीन नहीं है.

मेरे पिता लिखी राम (63 वर्षीय) फेरी लगाते थे, जिसके लिए वे घरों से प्लास्टिक, तांबे, लोहे से बने या कोई भी बिक्री योग्य पुराने घरेलू सामान इकट्ठा करते थे. वह जटुसाना ब्लॉक के आस-पास साइकिल चलाते हुए इन सामानों को इकट्ठा करके, बाद में एक कबाड़ी की दुकान पर बेच देते थे.

दो साल पहले, वह सीढ़ी से गिर गए थे और उनके घुटने में चोट लग गई थी. उसके बाद से वह अब घर पर ही रहते हैं. मेरी मां चाहती हैं कि वह कम से कम एक दुकान पर काम करें, ताकि घर की आमदनी में वह कुछ सहयोग कर सकें.

अगर मेरी मां की क़िस्मत अच्छी हो, तो उन्हें एक महीने में बीस दिन काम मिल जाता है. लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि दो दिनों का काम भी मुश्किल से मिलता है. उन दिनों में वह घर के कामों में व्यस्त रहती हैं और उम्मीद करती हैं कि उन्हें कोई काम मिल जाएगा.

उनके जैसी औरतें एक महीने में औसतन पांच से छह हज़ार कमा पाती हैं. जब मैं उनसे अपने लिए कुछ ख़रीदने को कहता हूं, तो वह मुझे समझाते हुए कहती हैं, “खाने-पीने, बिजली के बिल, फ़ीस, स्कूल की किताबों, और दूसरे घरेलू ख़र्चों में सारी कमाई उड़ जाती है. उसके आगे ख़र्च करने के लिए कुछ बचता नहीं हैं. इसलिए, हमारे पास अपने लिए दुपट्टा या चूड़ी ख़रीदने के लिए पैसे नहीं बचते हैं.”

मां तबसे मजूरी कर रही हैं, जब वह 13 साल की थीं. जब 15 साल की उम्र में उनकी शादी हुई थी, तो केवल उसके बाद के दो महीने ऐसे थे, जब उन्होंने काम नहीं किया था. अपने चारों बच्चों के पैदा होने के दौरान भी वह लगातार काम करती रहीं; यहां तक कि वह अपने पहले बेटे (मेरे बड़े भाई हरिराम) को अपने साथ लेकर खेतों में काम करने जाती थीं.

खुले आसमान के नीचे खेतों में मशक्कत करती हुई मेरी मां, गर्मियों की तपन और सर्दियों की बर्फ़ीली हवाओं से डरती हैं. वह जानती हैं कि साल भर में खेती के महीने कौन से होते हैं और बताती हैं कि भले ही अप्रैल में गेंहू की कटाई मुश्किल हो, लेकिन मई और जून में कासनी की फ़सल काटना और भी ज़्यादा कठिन है, क्योंकि इस दौरान हरियाणा में तापमान 45 डिग्री तक पहुंच जाता है.

जुलाई में धान की बुआई के दौरान वह सुबह 7 बजे से शाम 7 बजे तक काम करती हैं, जिसके बीच वह केवल खाना खाने के लिए एक घंटे का अवकाश लेती हैं. 11 घंटों तक उनका पैर घुटनों तक पानी में डूबा रहता है. और वह पूरे समय झुककर काम करती हैं. वह अपने काम के बारे में बताते हुए कहती हैं, “जिस पानी में मैं [धान] रोपती हूं, वह लगभग दो फ़ीट गहरा और मटमैला होता है, इसलिए मैं उसके नीचे की ज़मीन नहीं देख पाती. उसके ऊपर सूरज इतनी ज़ोर से चमकता है कि ऐसा लगता है जैसे पानी उबल जाएगा.”

धान की एक एकड़ की फ़सल को क़रीब 8 से 10 मज़दूरों की ज़रूरत होती है, और ज़मीन का मालिक (भूमिपति) इसके लिए उनके पूरे समूह को लगभग 3500 रुपए की मज़दूरी देता है. यानी कि एक मज़दूर को रोज़ाना 350 से 400 रुपए मिलते हैं. मां कहती हैं कि पिछले बीस सालों में काम की उपलब्धता घटती जा रही है, और इसकी वजह वह बताती हैं, “पहले तो फ़सल कटाई के लिए नई मशीनें आ गईं और अब बिहार से प्रवासी मज़दूर आने लगे हैं, जो कम मजूरी पर काम करने को तैयार हैं.”

धान के खेतों में काम करती हुईं औरतें. तस्वीरें: रमन रेवारिया

रेवाड़ी में अक्टूबर काफ़ी व्यस्त महीना होता है. इस दौरान धान के साथ-साथ, कपास और बाजरे की फ़सल भी काटी जाती है. कुछ महीने बाद, दिसंबर, जनवरी, और फरवरी में, मेरी मां दूसरे खेतिहर मज़दूरों की तरह हरी पत्तेदार सब्ज़ी बथुआ उखाड़ने का काम करती हैं, जो गेंहू और सरसों के बीच खरपतवार की तरह उग आती हैं. ज़मीन के मालिक उन्हें बथुआ बेचने से मिले पैसे रखने देते हैं, जहां उन्हें एक किलो बथुआ बेचने पर 3 से 5 रुपए मिलते हैं. और वे दिन भर में क़रीब 30 किलो तक बेच लेते हैं. इस सीज़न की यह ऊपरी कमाई उन्हें साल के आगे के महीनों में मदद करती है, जब उनके पास काम नहीं होता.

लेकिन अभी जुलाई का महीना चल रहा है और धान की बुआई जारी है. दोपहर या उसके थोड़े देर बाद, औरतें पास के किसी पेड़ के नीचे बैठती हैं, और खाना खाने के लिए एक घंटे का अवकाश लेती हैं. वे सभी अपने साथ टिफ़िन लाती हैं. सुबह के बनाए अपने खाने, चपाती और सब्ज़ी को एक-दूसरे को देती हैं. अपना बचा हुआ अतिरिक्त खाना वे उन औरतों को दे देती हैं जो आने की जल्दी में खाना नहीं बना पाई थीं.

अगर वे अपना खाना जल्दी ख़त्म कर लेती हैं, तो अपनी दुखती टांगों को फैलाकर कुछ देर लेट जाती हैं और अपने दुपट्टे को तकिए की तरह सिर के नीचे रख लेती हैं. वे आपस में बात करती हैं और एक-दूसरे से उनका हालचाल लेती हैं. उस दिन वे एक दिन पहले हुई भारी बारिश की चर्चा कर रही थीं, जब मैं उनके साथ गया था. अपने घर की छत से पानी टपकने को लेकर लीलावती ने मज़ाक़ में कहा, “घर के अंदर और बाहर होने वाली बारिश में कोई अंतर नहीं है.”

55 वर्षीय लीलावती भी 13 साल की उम्र से खेतों में काम कर रही हैं, और अपने चार सदस्यों वाले परिवार की इकलौती कमाऊ सदस्य हैं. लीलावती कहती हैं, “मेरे पति घर पर ही रहते हैं और मेरा बेटा कोई काम नहीं करता. उसका काम मुझे हर रोज़ बस तनाव देना ही है.” उनके हालात औरों से कुछ अलग नहीं हैं. उस क्षेत्र के बहुत से युवा न पढ़ाई करते हैं और न ही कोई काम. मेरे यह पूछने पर कि उन्होंने ये काम क्यों चुना, इस पर वह बताती हैं, “हम ग़रीब लोग हैं. अगर हम कमाएंगे तो ही खा पाएंगे, वरना भूखों मर जाएंगे.” 

हमारी पड़ोसी सन्नो उनकी बातों से हामी भरते हुए कहती हैं, “अगर हम यहां कमाने नहीं आएंगे, तो फिर हम क्या खाएंगे?” वह भी अपने घर में कमाने वाली इकलौती सदस्य हैं. उनके पति बलबीर सिंह कभी-कभार चौकीदारी करने जैसी नौकरी पा जाते हैं, लेकिन उनके दोनों बेटे, जिनकी उम्र 30 और 26 साल है, न तो पढ़ते हैं और न ही कोई काम करते हैं. उनके घर में 8 लोग हैं: उनके पति, दो बेटे व उनकी पत्नियां और उनके दो बच्चे. इन सभी की ज़िम्मेदारी उनके ऊपर है. वह कहती हैं, “काश, मेरे बेटे काम पर जाते!”

34 वर्षीय राजन दूसरी ज़्यादातर औरतों से छोटी उम्र की हैं. उनके पति भी मेरे पिता की तरह फेरी लगाते थे. उनकी पांच साल पहले लकवा मारने से मौत हो गई. वह अपने पांच साल के बेटे के साथ रहती हैं और दिहाड़ी मज़दूरी से अपना घर चलाती हैं. वह कहती हैं, “हम केवल गेंहू [सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत, सरकार इसे सब्सिडी पर बेचती है] तो खाकर नहीं रह सकते. हमें सब्ज़ियां, मसाला, दूध, तेल, और गैस भी तो चाहिए.” जब वह काम पर जाती हैं, तो उनकी चचेरी बहन उनके बच्चों की देखभाल में मदद करती हैं.

आरती (30 वर्षीय) भी आज खेत में हैं, जो घर पर अपने पीछे 2 और 6 साल के दो बहुत छोटे बच्चों को छोड़कर काम करने आई हैं. उनके पति, लक्ष्मी, एक मैकेनिक हैं और पटौदी क़स्बे के पास एक छोटी से गराज़ के मालिक हैं. उनके दोनों बच्चों का नाम स्कूल से कटवाना पड़ा, क्योंकि पिछले साल उनके प्राइवेट स्कूल ने अपनी फ़ीस बहुत बढ़ा दी और वे इस बढ़ी हुई फीस का भार नहीं उठा सकते थे. उनके बच्चे घर पर अपने दादा-दादी के संरक्षण में रहते हैं, जबकि आरती मज़दूरी के लिए घर से बाहर निकलती हैं.

शाम के वक़्त औरतें वापस ट्रैक्टर पर बैठकर घर लौटती हैं और शाम के खाने को लेकर चर्चा करती हैं. मेरी मां भी 10-12 घंटे खेतों में काम करने के बाद, मिट्टी में लथपथ और थकान से चूर होकर वापस लौटती हैं.

भले ही वे अपने परिवार का ख़र्च उठाती हों, लेकिन इन औरतों को घरेलू कामों से छुटकारा नहीं मिलता है. ट्रैक्टर से उतरते ही वे रात के खाने की तैयारियों में जुट जाती हैं, गंदे बर्तन मांजती हैं, परिवार का दिनभर का ब्योरा लेती हैं, कपड़े धोती हैं और सुखाने डालती हैं, खाना बनाने और खाने के बाद दोबारा फिर से बर्तन मांजती हैं, और पानी भरने के लिए सार्वजनिक नल के पास खड़ी होकर अपनी बारी का इंतज़ार करती हैं.

बड़ी बेटियां घर के कामों में उनकी मदद करती हैं, लेकिन राजन और सन्नो जैसी औरतों, जिनकी बेटियां नहीं हैं या बहुत कम उम्र की हैं, उनको सारा काम ख़ुद ही करना पड़ता है. बेटों से मदद की उम्मीद नहीं की जा सकती. ये मानी हुई सोच है कि “घर का काम लड़कियों के लिए है.”

मेरी मां उम्मीद करती हैं कि उनके चारों में से किसी भी बच्चे को वह काम न करना पड़े जो वह ख़ुद करती हैं. वह हम सभी के लिए सरकारी नौकरी चाहती हैं. मेरा भाई हरिराम अब एक इंजीनियर है और सिविल सेवा की तैयारी कर रहा है. मेरी बड़ी बहन ने अभी-अभी डेवलपमेंट स्टडीज़ से अपनी एमए की पढ़ाई पूरी की है और मध्य प्रदेश में शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे एक गैर सरकारी संगठन के साथ मिलकर काम कर रही है. मेरी दूसरी बहन और मैं ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रहे हैं. मेरी मां हमसे भी एक अच्छी सरकारी नौकरी की उम्मीद करती हैं.

मेरे माता-पिता ने हमेशा हमारी शिक्षा को प्राथमिकता दी. हमें उन्होंने तब प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने को भेजा, जब हमारे समुदाय और गांव में कोई वहां पढ़ने नहीं गया था. उन दोनों ने कड़ी मेहनत की, ताकि वे हमें अच्छी शिक्षा दे सकें और ये सब आसान नहीं था, लेकिन वे दृढ़ संकल्पित थे.

रमन अपनी मां सुमित्रा के साथ. तस्वीरें: रमन रेवारिया

कक्षा 4 में मेरा भाई कुछ दिनों तक स्कूल नहीं गया. जब मेरे पिता ने इस बारे में सुना, तो वह बहुत नाराज़ हुए थे. मेरे पिता ने भाई को पीटते हुए कहा कि स्कूल छोड़ने का विकल्प नहीं है. उसने फिर कभी स्कूल नहीं छोड़ा और जब वह कक्षा पांच में गया, तो मेरे माता-पिता ने सरकारी स्कूल के एक टीचर से रेवाड़ी के नवोदय स्कूल में उसके एडमिशन का फ़ॉर्म भरने को कहा. [जवाहर नवोदय विद्यालय, आवासीय केंद्रीय विद्यालय हैं, जो अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों के प्रतिभाशाली बच्चों के लिए हैं]. मेरे भाई को वहां भेज दिया गया, और उसके बाद हम सबको भी वहां जल्द ही जाना था.

मां अक्सर कहती हैं कि उनकी ज़िंदगी अलग और बेहतर होती, अगर उन्हें शिक्षा मिली होती. मेरे पिता कक्षा 8 तक पढ़े हैं. उसके बाद उन्हें पढ़ाई छोड़नी पड़ी और वह मज़दूरी करने लगे. इसके बावजूद, उन्होंने और मेरी मां ने हमसे मज़दूर बनने को नहीं कहा. फिर भी, मुझे याद नहीं आता कि मुझ पर पढ़ने के लिए भी ज़ोर डाला गया हो. हम अपने-आप समझ गए कि ऐसा करना ज़रूरी था, इसलिए हमने अपने-आप ही पढ़ाई की. हम हर दिन स्कूल से लौटने पर, होमवर्क करने जुट जाते थे.

बीते सालों में, मां को हमारे जाटव समुदाय [राज्य में अनुसूचित जाति के तौर पर सूचीबद्ध] के लोगों और रिश्तेदारों से ताने और भद्दी टिप्पणियां सुननी पड़ी हैं, क्योंकि उन्होंने अपने बच्चों को बहुत आज़ादी दे रखी है; ख़ासकर लड़कियों को. वह इन सब बातों पर कभी ध्यान नहीं देती और उनकी अपनी तरह जल्दी शादी करने के बजाय, उन्होंने उन्हें हमेशा पढ़ने के लिए प्रेरित किया और उनके सपनों में उनका साथ दिया, जबकि वह ख़ुद कभी स्कूल नहीं जा सकी थीं.

जब हम रात में बैठकर बातें करते हैं, तो वह कहती हैं, “मेरी ज़िंदगी तो अब ख़त्म हो चुकी है. मैं अब जो कुछ भी कर रही हूं, वह तुम सब [बच्चों] के लिए है, ताकि तुम लोगों को अलग और बेहतर ज़िंदगी मिल पाए.”

“मेरी ज़िंदगी तो तुम्हारे साथ ही आगे बढ़ रही है, बस साथ चल रही है.”

Editor's note

रमन रेवारिया, बेंगलुरु के अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में स्नातक की पढ़ाई कर रहे हैं. जब उन्होंने इस लेख को लिखा था, तब वह पारी के साथ 2021 की गर्मियों में एजुकेशन इंटर्न के रूप में काम कर रहे थे. वह कहते हैं, "पिछड़े तबकों की औरतों के संघर्षों की कहानियों को मीडिया में बहुत कम जगह मिलती है; उनकी ज़िंदगियां बहुत अलग हैं. मैंने अपनी मां की कहानी के बारे में लिखने का फ़ैसला किया, क्योंकि मैं उनसे ही सबसे ज़्यादा प्रभावित होता हूं. पारी ने मुझे यह मौक़ा दिया और उनकी ज़िंदगी की कहानी लिखने में मेरी सहायता की."

 

अनुवाद: प्रतिमा

 

प्रतिमा एक काउंसलर हैं और फ़्रीलांस अनुवादक के तौर पर भी काम करती हैं.