यह स्टोरी मूल रूप से हिंदी में ही लिखी गई थी. पारी एजुकेशन, भारत के अलग-अलग इलाक़ों के तमाम ऐसे छात्रों, शोधार्थियों, और शिक्षकों के साथ मिलकर काम कर रहा है जो अपनी पसंदीदा भाषा में हमारे लिए लेखन, रिपोर्टिंग, और इलस्ट्रेशन तैयार कर रहे हैं.

अंततः इस वर्ष जुलाई में हमारे परिवार को मेरे पति राम सिंह की विकलांगता पेंशन के रूप में 750 रुपए की राशि मिलनी शुरू हो गई. यह सामाजिक सुरक्षा पेंशन राज्य सरकार द्वारा 58 वर्ष तक की आयु के विकलांग पुरुषों और 55 वर्ष की आयु तक की महिलाओं को दी जाती है. हमें राजस्थान सरकार द्वारा दी जाने वाली ऐसी किसी पेंशन-योजना की जानकारी नहीं थी. 

मेरे पति को इसे लेने के लिए ख़ुद अजीतगढ़ जाना होता है, जो हमारे घर से तीन किलोमीटर दूर है. हर बार उनके साथ किसी न किसी को जाना पड़ता है, और सामान्यतः यह काम मैं ही करती हूं. हम जाने-आने के लिए साझा किराए पर चलने वाला एक रिक्शा कर लेते हैं. पति को मिलने वाली पेंशन के सात सौ रुपए में दो सौ रुपए पेंशन लेने के लिए आने-जाने में ख़र्च हो जाते हैं. अगर यह रक़म हमें घर पर ही मिलने लगती, तो हम इन पैसों को बचा सकते थे.

मेरा नाम कला देवी है, लेकिन कुछेक काग़ज़ात में मेरे नाम का हिज्ज़ा ‘कैले’ भी लिखा हुआ है. मैं कलादेह पंचायत के अमनेर गांव में अपने पति और चार छोटे बच्चों – सीमा (16 साल), ललिता (15 साल), कोशल (9 साल) और कुसुम (6 साल) के साथ रहती हूं.

पहले हम कोटा में रहा करते थे, जहां मेरे पति एक मिठाई की दुकान में हलवाई का काम करते थे, और महीने का लगभग 6,000 रुपए कमाते थे. साल 2019 में अचानक उन्हें लकवा मार गया और तब से ही उनके शरीर का दायां हिस्सा पूरी तरह से निष्क्रिय हो चुका है. उनके इलाज का ख़र्च चुकाने के लिए मेरे पिता ने 40,000 रुपए उधार दिए थे, और अगले कुछ सालों में हमें अपना घर चलाने और दूसरी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए डेढ़ लाख रुपए का क़र्ज़ भी लेना पड़ा. हमारी बड़ी बेटी को सांस की परेशानियों और रक्ताल्पता (अनीमिया) के लिए दवाओं की ज़रूरत पड़ती है.

बाएं: कला देवी अपने घर के सामने की जगह पर खड़ी हैं. दाएं: दंपति के चारों बच्चे – सीमा, ललिता, कोशल, कुसुम (बाएं से दाएं)

अपने पति के लकवाग्रस्त होने के बाद अपने आर्थिक सामर्थ्य पर कोटा में रहना हमारे लिए असंभव था. इसलिए, हम यहां राजसमंद ज़िले में स्थित अपने गांव लौट आए. हमें उम्मीद थी कि यहां हमें काम मिल जाएगा और हम अपनी पुरानी उधारियां चुका पाने में सफल होंगे. लेकिन गांव में हमारे लिए काम मिलना बहुत मुश्किल था, इसलिए हम दोबारा कोटा लौट गए. वहां मुझे बच्चों के एक हॉस्टल में काम मिल गया. मुझे महीने के 5,000 रुपए मिलते थे, लेकिन इतने कम पैसों में हमारी ज़रूरतें पूरी नहीं होती थीं.

हमने सोचा कि अगर हम गांव लौट आते हैं, तो अपने घर में रह कर किराया तो बचा ही सकते हैं. लेकिन जब हम दोबारा यहां लौटे, तो हमने देखा कि हमारे रिश्तेदारों ने हमारा कच्चा घर ध्वस्त कर दिया था और मेरी ज़मीन पर घर बनाकर रहने लगे थे. हालांकि, उन्होंने इस क़ब्ज़े के एवज़ में हमें परती ज़मीन दे दी, लेकिन वह ज़मीन आज भी खाली पड़ी है, क्योंकि गांव की आवासीय सूची में हमारा नाम दर्ज नहीं है, इसलिए घर बनाने के लिए हमें सरकार की तरफ़ से कोई आर्थिक सहायता नहीं मिल सकती है.

अब हम इस कमरे में रहते हैं जिसे गांव के लोगों ने हमारे लिए ढूंढा था. हमें 500 रुपए का मासिक किराया चुकाना होता है. इस घर में बिजली का कनेक्शन नहीं है, इसलिए मुझे दूसरों के घर पर अपना फ़ोन चार्ज करना पड़ता है.

पिछले कुछ सालों से मैं ‘नरेगा’ (राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम) के अधीन काम कर रही हूं. एक साल में मुझे लगभग 125 दिन का काम मिल जाता है और मज़दूरी के रूप में मुझे एक दिन के 231 रुपए मिलते हैं. लेकिन इतनी कम आमदनी में हमारे ख़र्चे पूरे नहीं होते. हालांकि, मेरे भीतर इतनी ताक़त नहीं बचती है कि मैं दूसरे काम भी कर सकूं, फिर भी दूसरे कामों की तलाश में हूं.

हमारी कठिनाइयों को देखते हुए मज़दूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) के सदस्यों ने हमें सरकार की विकलांगता पेंशन योजना के बारे में बताया और हमें इसके लिए आवेदन करने के लिए कहा. गांव के पटवारी ने राजसमंद ज़िले से संबंधित काग़ज़ात उपलब्ध कराने में हमारी मदद की, जहां हम अब रहते हैं. यह एक मुश्किल काम था, क्योंकि मेरे पति के सभी दस्तावेज़ों के मुताबिक़ वह कोटा के निवासी थे जहां वह काम करते थे.

हमारे बच्चों की पढ़ाई भी इसलिए रुक गई, क्योंकि उनके सारे काग़ज़ात अभी भी कोटा में ही थे और बिना काग़ज़ात के कोई स्कूल उनका दाख़िला लेने को तैयार नहीं था. मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि उन काग़ज़ात को लाने के लिए वापस कोटा जाऊं. सीमा जो आठवीं कक्षा में पढ़ती थीं, घर पर ही अपने भाई-बहनों को पढ़ाने लगी. वह बड़ी होकर एक शिक्षिका बनना चाहती थी. उसकी मंगनी हो चुकी है, और अब जल्दी ही उसकी शादी भी हो जाएगी.

ख़ुशक़िस्मती से नवंबर 2022 में हमारा आधार कार्ड और दूसरे ज़रूरी काग़ज़ात हमें मिल गए और हमने अपने चारों बच्चों को राज्य सरकार की एक योजना के अंतर्गत निबंधित करा दिया है. इस योजना के अनुसार विकलांग मां या पिता के बच्चों को आर्थिक सहायता का प्रावधान है. जल्दी ही चारों बच्चों को मासिक एक-एक हज़ार रुपए की आर्थिक मदद मिलने लगेगी.

जितने भी पैसे हम बचा सकेंगे वह हमारे लिए ख़ुद का घर बनाने के काम आएंगे, ताकि हम मासिक किराए की चिंता से मुक्त होकर रह सकें.

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Editor's note

हाजी मोहम्मद ने राजस्थान के भीम में स्थित स्कूल फ़ॉर डेमोक्रेसी (एसएफ़डी) में आयोजित दो-दिवसीय ‘पारी पत्रकारिता कार्यशाला’ में भाग लिया था. एसएफ़डी, मज़दूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) के साथ सहयोग करने वाला संस्थान है.

वह कहते है: जब मैं वंचित लोगों को देखता था, तो मुझे बहुत बुरा लगता था, लेकिन मुझे अफ़सोस होता था कि मैं उनके लिए कुछ करने की स्थिति में नहीं था. जब मैंने पारी की कार्यशाला में हिस्सा लिया, तब मुझे महसूस हुआ कि मैं इस प्रशिक्षण के बाद मैं उनकी परेशानियों के बारे में लिख सकता हूं. अलग-अलग मसलों पर लिखने के मेरे अनुभव बहुत अच्छे रहे हैं और अब मैं अधिक से अधिक लिखना चाहता हूं.

अनुवाद: प्रभात मिलिंद

प्रभात मिलिंद, शिक्षा: दिल्ली विश्विद्यालय से एम.ए. (इतिहास) की अधूरी पढाई, स्वतंत्र लेखक, अनुवादक और स्तंभकार, विभिन्न विधाओं पर अनुवाद की आठ पुस्तकें प्रकाशित और एक कविता संग्रह प्रकाशनाधीन.