
स्थानीय कस्सारा (एक घास) की हाथ से बनाई गई एक पिटिरिया (डिब्बा) को हाथ में लिए हुए कन्यावती राणा पूरे दावे से कहती हैं, “इस पिटारे में रखी हुईं चपातियां प्लास्टिक या स्टील के बक्से में रखीं हुई चपातियों की बनिस्बत ज़्यादा नरम रहती हैं.”
कन्यावती, उत्तराखंड के उधम सिंह नगर ज़िले की सितारगंज तहसील के झनकट गांव में रहकर अपनी आजीविका चलाती हैं. वह थारू समुदाय की हैं, जो राज्य में एक अनुसूचित जनजाति के रूप में सूचीबद्ध है. यह जनजाति पहाड़ों वाले इस प्रदेश के तराई क्षेत्रों की मूल निवासी है. वह बताती हैं कि उनके गांव में सभी घरों की औरतें इस हस्तशिल्प में पारंगत हैं और समूहों में बैठकर टोकरियां, बैग, रस्सियां और अपने उपयोग में आने वाली दूसरी वस्तुएं बनाती हैं. उन सामानों को बाज़ार में बेचा भी जाता है.
यह महिला शिल्पकार (60 साल) आगे बताती हैं, “बचपन से हम हाथ से बनाने वाली चीज़ें बनाती रही हैं. यह एक पारंपरिक कारीगरी है जिसे हमने अपने पुरखों से सीखा है. इससे होने वाली आमदनी से मुझे ख़ुशी मिलती है. मैं अपने घर के लिए ज़रूरी सामान ख़रीद सकती हूं.” कन्यावती को पांचवीं कक्षा में अपनी पढ़ाई छोड़ देनी पड़ी थी, क्योंकि उनका परिवार को उनको आगे पढ़ाने में कोई रुचि नहीं थी.



उनकी मंडली रुद्रपुर, रामनगर, पंतनगर और देहरादून जैसे आसपास के नज़दीकी शहरों में लगने वाले स्थानीय मेलों में जाती है. अपने हाथों से बनाए हुए सामानों को बेचने के लिए जाड़े के दिनों में वे दिल्ली तक की यात्रा कर चुके हैं. कई बार तो उन्हें 400 सामानों का ऑर्डर मिल जाता है. कन्यावती अपने बनाए गए बैग को 600 रुपयों में और बास्केट को 300-350 रुपयों में बेचती हैं. वह बताती हैं कि हर सामान बनाने के लिए उन्हें मोटा-मोटी 150 रुपए का कच्चा माल ख़रीदना पड़ता है, और एक सामान को पूरा करने में उन्हें तीन दिन तक लग जाते हैं.
हाथ से बनाई जाने वस्तुओं के लिए थारू औरतें पत्ते, टहनियां और घास जैसी स्थानीय सामग्रियों का उपयोग करती हैं. ज़्यादातर सामान बरसात के मौसम के दौरान बनाए जाते हैं, क्योंकि उस समय घास प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती है. कन्यावती कहती हैं, “कई सामानों के लिए हम टाट और कस्सारा जैसी ख़ास तरह की स्थानीय घासों का ही इस्तेमाल करते हैं.” सूजा, जोकि चाकू के आकार का एक औज़ार होता है, का इस्तेमाल डलवा (बास्केट), ढाकना (ढक्कन) और छापरिया (मछलियां रखने वाला जालीदार डब्बा) बनाने के लिए किया जाता है.





रस्सियां बुनने के लिए कारीगर औरतें इलाक़े में होने वाले पटसन (जूट) की पतली टहनियों को काटकर उन्हें चार दिनों तक पानी में डुबो देती हैं. अच्छी तरह भींग जाने के बाद उन लंबी टहनियों से रेशों को अलग कर लिया जाता है और उनसे रस्सियां बुनी जाती हैं. घास कैलाश नदी के आसपास के इलाक़े से लाई जाती है, जो दोही नदी पर बने नानकसागर बांध के तट से तक़रीबन 8 किलोमीटर दूर है.
कन्यावती कहती हैं, “यहां आसपास बहुत से तालाब थे, जहां हम घास उगाया करते थे, लेकिन अब उन सबका पानी सूख चुका हैं और वे कीचड़ से भर चुके हैं. हमारा ख़ुद का घर भी जिस ज़मीन पर बना है वह कभी तालाब हुआ करती थी.” वह यह भी बताती हैं कि सरकार ने तालाबों के जीर्णोद्धार की अनेक योजनाएं आरंभ की हैं, लेकिन कम बारिश की वजह से पिछले दो वर्षों से तालाब सूखे पड़े हुए हैं.


गर्मियों में, जोकि खेती का मौसम होता है, औरतें के खेतों में व्यस्त हो जाने से उनकी कारीगरी कुछ वक़्त के लिए स्थगित हो जाती है. कन्यावती अपने पति वीरेंद्र सिंह और दो बेटों के साथ रहती हैं. उनका परिवार अपनी पांच एकड़ ज़मीन पर धान, गेंहू, हल्दी और अदरक उपजाता है. उनके पास 1.5 एकड़ का आमों का एक बगीचा भी है. उनकी दो बेटियों की शादी हो चुकी है और वे अब अपने-अपने परिवार के साथ रहती हैं.
झनकट की हाटों में घास के हस्तशिल्प की नकल कर बनाए गए प्लास्टिक के सामान सभी दुकानों में भरे हुए हैं. वीरेंद्र सिंह बताते हैं, “कारीगरी के कामों में लोगों की रुचियां दिन-ब-दिन घटती जा रही हैं. हस्तकला हमारी बिरादरी में कमोबेश धर्म की तरह महत्वपूर्ण है.”


कन्यावती इस बात को लेकर बहुत निराश हैं कि युवाओं के पास अपनी पारंपरिक हस्तकला सीखने के लिए पर्याप्त समय और रुचि नहीं है. “आज सिर्फ़ पुरानी पीढ़ी ही इस कला को जीवित रखे हुए है. युवा लड़के-लड़कियां पढ़ाई-लिखाई कर दूसरे शहरों में नौकरी करना चाहते हैं. अगर वे इसी तरह अपनी परंपरागत कलाओं के प्रति उदासीन रहे, तो एक दिन हमारे हस्तशिल्प का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा.”
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Editor's note
पंकज जोशी और रोहित भट्ट, उत्तराखंड के उधम सिंह नगर ज़िले के नानकमत्ता पब्लिक स्कूल में पढ़ते हैं.
“इस स्टोरी को पूरा करते हुए हमने तथ्यों को दर्ज करने और उन पर शोध करने जैसी अनेक बारीक तकनीकें सीखीं. साथ ही इस क्रम में हमने यह भी सीखा कि अपने समाज के अन्य समुदायों के साथ संबंध कैसे विकसित किए जा सकते हैं. ग्रामीण भारत को जानने-समझने और उसका दस्तावेज़ीकरण करने की इस प्रक्रिया ने हमें अपनी कक्षाओं की सुविधाजनक दुनिया और किताबों के गूढ़ सिद्धांतों से बाहर निकलने में मदद की.”
मेघना रेड्डी, बेंगलुरु के सृष्टि इंस्टिट्यूट ऑफ़ आर्ट, डिज़ाइन एंड टेक्नोलॉजी में स्नातक की चौथे वर्ष की छात्र हैं. उन्होंने पारी एजुकेशन के साथ अपनी इंटर्नशिप के दौरान इस स्टोरी के लिए एक इलस्ट्रेशन बनाया था. वह कहती हैं, "इस इलस्ट्रेशन को बनाते समय, मुझे सुनिश्चित करना था कि यह बहुत काल्पनिक न हो और स्टोरी के किरदारों के साथ न्याय करे. मैंने पारी की जो भी स्टोरी पढ़ी है उसने मेरी जिज्ञासा काफ़ी बढ़ाई है. ये स्टोरीज़ विस्तृत ढंग से लिखी जाती हैं, और उन जगहों की कहानी कहती हैं जिनके बारे में मैंने कभी सुना भी नहीं था. पारी अपने पाठक के सामने एक अलग दृष्टिकोण लेकर आता है."
अनुवाद: प्रभात मिलिंद
प्रभात मिलिंद, शिक्षा: दिल्ली विश्विद्यालय से एम.ए. (इतिहास) की अधूरी पढाई, स्वतंत्र लेखक, अनुवादक और स्तंभकार, विभिन्न विधाओं पर अनुवाद की आठ पुस्तकें प्रकाशित और एक कविता संग्रह प्रकाशनाधीन.