
दिल्ली में भलस्वा लैंडफिल कचरा फेंकने की एक बड़ी जगह है और कचरा बीनने वाले बहुत सारे प्रवासी कामगारों के लिए घर भी है. साल 2022 में आग लगने की घटना ने मीडिया का ध्यान इसकी तरफ़ खींचा था, लेकिन रहवासियों के लिए कुछ भी नहीं बदला
भलस्वा लैंडफिल लगभग उतना ही ऊंचा है जितना कि क़ुतुब मीनार. दोनों राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में स्थित हैं, लेकिन इनके बीच की समानता यहीं ख़त्म हो जाती है.
वास्तुकला की दृष्टि से ऐतिहासिक महत्व रखने वाले क़ुतुब मीनार और कचरे की इस छोटी पहाड़ी, जोकि उत्तरी दिल्ली में स्थित है, में कोई भी समानता नहीं है. राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) की रिपोर्ट के अनुसार, यहां भलस्वा में लगभग सभी तरह के कचरे का मिलाजुला ढेर 62 मीटर ऊंचा है, और मोटे तौर पर क़रीब 78 एकड़ में फैला है. साल 2006 में इस लैंडफिल को भविष्य में इस्तेमाल के लिए अनुपयोगी घोषित कर दिया गया था. लेकिन, शायद ही कभी सरकारी अफ़सर यहां आते हैं.
बीते साल 25 अप्रैल को जब लैंडफिल में आग लग गई, तो लैंडफिल के आस-पास रहते आए कचरा बीनने वाले, कचरा इकट्ठा करने वाले और कचरे के ट्रक ड्राइवर, प्लास्टिक और अन्य कचरों के जलने के कारण उससे उठते ज़हरीले धुएं से तत्काल प्रभावित हुए.




कचरा बीनने का काम करने वाली सुनीता देवी 25 साल से लैंडफिल के पास रहती आ रही हैं. उनका कहना है, “हम धुएं के बीच ही रहे, हमने धुएं के बीच ही खाना खाया. हमारे सभी बच्चे बीमार पड़ गए.” सुनीता देवी (45 वर्ष) अपने दो बेटों, बहुओं और उनके बच्चों के साथ रहती हैं. “ख़बरों में कहा गया कि यह आग चार दिन तक ही लगी थी. लेकिन इसे बुझने में महीने भर से ज़्यादा का समय लगा.”
जब उनके पोता-पोती बीमार पड़े, तो सुनीता उन्हें बाबू जगजीवन राम मेमोरियल हॉस्पिटल लेकर गईं, जोकि 5 किलोमीटर दूर स्थित निकटतम सरकारी अस्पताल है. वहां डॉक्टर ने दवाइयों के साथ लंबे समय तक चलने वाला उपचार बताया, जिसका ख़र्च उठाना परिवार के बस की बात नहीं थी. लिहाज़ा बच्चों को ख़ुद से ही ठीक होना पड़ा.
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अल्कुन बीबी कहती हैं, “चारों तरफ़ धुआं होने के कारण मैं कुछ देख नहीं पाती थी.” वह यहां दो दशकों से ज़्यादा समय से कचरा बीनती रही हैं. कचरा जलने के कारण उत्पन्न हुए प्रदूषण और ज़हरीले धुएं से उनकी आंखों की रोशनी कमज़ोर हो गई है.


अल्कुन अपनी सबसे बड़ी बेटी की सलाह पर कोलकाता से यहां आई थीं. उन्हें यहां बेहतर आमदनी मिलने की आशा थी. वह एक छोटी झोपड़ी में रहती हैं, जोकि लैंडफिल में एक खुले नाले के ऊपर बनी हुई है. अल्कुन बताती हैं, “कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि आप देश के किस हिस्से से आते हैं. यहां सबकुछ एक जैसा है. यहां हर कोई ग़रीब है.” उन्होंने अपनी गिरती सेहत और आंखों की कम होती रोशनी के कारण हाल ही में काम करना बंद कर दिया है.
दिल्ली में केशोपुर और सिविल लाइन्स जैसी जगहों से इकट्ठा किया गया घरेलू और औद्योगिक कचरा भलस्वा में फेंका जाता है. वेद इंटरप्राइजेज़ के मालिक राजेन्द्र कुमार कहते हैं, “भलस्वा में प्रतिदिन चार से पांच मीट्रिक टन कचरा फेंका जाता है. इस्तेमाल के लिहाज़ से साल 2006 में ही इस ज़मीन को अनुपयोगी घोषित कर दिए जाने के बावजूद सरकार के द्वारा यहां गतिविधि नहीं रोकी गई.” कचरा इकट्ठा करने वाली उनकी निजी कंपनी कचरा बीनने वालों और कचरे के ट्रक ड्राइवरों को भलस्वा में काम करने के लिए नौकरी पर रखती है.
सुंदर कुमार, उत्तर-प्रदेश के अपने गांव से 20 साल पहले भलस्वा आए थे. वह लैंडफिल में कचरा ढोने वाले ट्रक के ड्राइवर के तौर पर काम करते हैं. अपनी चिंता ज़ाहिर करते हुए और स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं न मिलने के बारे में वह कहते हैं, “रोज़ रात को जब मैं सोता हूं, यहां की हवा और बदबू से मेरा सिर फटता है. मेरी सांस की बीमारी ने सोना और मुश्किल कर दिया है.”
यहां के ज़्यादातर रहवासी प्रवासी मज़दूर हैं और उनका कहना है कि उनके पास कहीं और जाने की जगह नहीं है. सुनीता कहती हैं कि उन्हें आसपास के इलाक़े में कोई और काम नहीं मिल सका, इसलिए उन्हें कचरा बीनने का काम करना पड़ा. उनके दिवंगत पति परिवार में इकलौते ऐसे इंसान थे जिनके पास आधार कार्ड था. कुछ साल पहले दिल के दौरे से हुई मौत के बाद, सुनीता को राशन मिलना बंद हो गया. अपने नाम पर कोई क़ानूनी तौर पर मान्य दस्तावेज़ न होने के कारण वह आधार कार्ड भी नहीं बनवा सकती हैं, और न ही केंद्र सरकार की एक राष्ट्र एक राशन कार्ड (ओएनओआरसी) योजना के तहत राशन कार्ड हासिल कर सकती हैं.


सुंदर कहते हैं, “यहां आसपास कोई राशन की दुकान नहीं है. यहां तक कि हमें पानी भी नहीं मिलता.” पीने के पानी की कमी के चलते रहवासी बाहर से पानी मंगाने को विवश हैं. सुंदर कहते हैं, “पानी के टैंकर यहां कभी-कभार आते हैं, नियमित तौर पर नहीं. वे बहुत सारा पैसा मांगते हैं और हमारे पास मुश्किल से ही पैसे होते हैं.” सुंदर की मासिक आमदनी 7,000 से 10,000 के बीच होती है, जो इकट्ठा किए गए कचरे की मात्रा पर निर्भर करती है.
वह कहते हैं, “मजबूरी है, और कहां रहेंगे?”
भलस्वा में दीप्ति फ़ाउंडेशन एनजीओ के द्वारा चलाए जा रहे एकमात्र स्कूल में ही सुनीता के पोता-पोती पढ़ने जाते हैं. यहां चौथी कक्षा तक की पढ़ाई होती है. लैंडफिल के ज़्यादातर बच्चे यहां पढ़ते हैं. प्राइमरी स्कूल के बाद जो आगे पढ़ना चाहते हैं उन्हें दो किलोमीटर दूर स्थित सरकार द्वारा संचालित नव ज्योति पब्लिक स्कूल में जाना होता है. सुनीता बताती हैं कि निजी स्कूल उनकी पहुंच से बाहर हैं – महंगे हैं और काफ़ी दूर भी हैं.
सुनीता कहती हैं, “हम बस चाहते हैं कि यहां के सभी बच्चे स्कूल जाएं, पढ़-लिख लें, और उन्हें यह काम न करना पड़े. हम ऐसी उम्मीद करते हैं.”
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Editor's note
नव्या असोपा, सोनीपत के अशोक विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान और समाजशास्त्र की स्नातक की छात्र हैं. वह कहती हैं, “जितनी बार मैं इस इलाक़े से गुज़रती थी, मेरे सहयात्री खिड़की बंद कर लेते थे या दूसरी ओर देखने लगते थे. इस बात ने मुझे सोचने पर मजबूर किया कि लैंडफिल में काम करने वाले लोग कैसे बसर करते होंगे? लैंडफिल का वजूद है ही क्यों और कोई इस बारे में बात क्यों नहीं करता?”
अनुवाद: सीत मिश्रा
सीत मिश्रा एक लेखक हैं, और बतौर फ्रीलांस अनुवादक भी काम करती है।