जब बीना देवी के पति की मृत्यु शराब के अत्यधिक नशे के कारण हुई, तब उन्हें अपने सास-ससुर से संपत्ति में अपना हक़ पाने के लिए आवाज़ उठानी पड़ी. वह कहती हैं, “मुझे अपने अधिकारों के लिए जूझना पड़ा. मैं अपने गांव के सरपंच के पास गई और उनसे कहा कि मैं घर की बहू हूं, और मुझे अपने पति का हिस्सा चाहिए. मुझे अपने बच्चों की परवरिश करनी थी. मैं उन्हें लेकर कहां जाती?”

हिमाचल प्रदेश के नैन गांव में रहने वाली 54 साल की बीना देवी एक दलित किसान, खेतिहर मज़दूर, सफ़ाईकर्मी, और राशन की दुकान की मालकिन हैं. कांगड़ा ज़िले के 249 लोगों वाले इस गांव में उन्हें एक साथ कई काम करने की आवश्यकता इसलिए भी है, ताकि वह अपना और अपने परिवार का पेट भर सकें.

बीना की शादी केवल 15 साल की उम्र में हो गई थी, और 19 साल की होते-होते वह तीन बच्चों की मां भी बन चुकी थीं. उनके पति गुरपाल सिंह एक मैकेनिक का काम करते थे. उनकी रोज़ की कमाई बमुश्किल 150-200 रुपए थी, जिसे वह अपनी शराब ख़रीदने में उड़ा देते थे. उन्होंने कहा, “उनके ज़िंदा रहने या नहीं रहने का मेरे लिए कोई अर्थ नहीं था. बल्कि उनकी मौत के बाद मेरी मुश्किलें पहले से कम ही हुई हैं.” गुरपाल की मृत्यु शराब के अत्यधिक नशे में 7 जनवरी, 2019 को हो गई. बीना ने आगे बताया, “उन्हें फेफड़ों की बीमारी थी और डॉक्टर ने उन्हें शराब कम पीने की हिदायत दी थी. लेकिन उन्होंने कभी इसकी परवाह नहीं की.”

पति की मृत्यु के बाद उनके सास-ससुर ने उन्हें घर छोड़कर जाने के लिए कह दिया. लेकिन संपत्ति में अपने न्यायोचित अधिकार के लिए दृढसंकल्पित बीना ने मामले को लेकर गांव के सरपंच का दरवाज़ा खटखटाया. वहां इस बात का फ़ैसला हुआ कि घर की बहू होने के नाते, बीना देवी को संपत्ति में बराबर का हिस्सा मिलना चाहिए.


अभी सुबह के सिर्फ़ चार बजे हैं और बीना देवी सोकर उठने के बाद अपने परिवार के लिए खाना – रोटी और राजमा पका रही हैं. जब वह घर से फावड़ा और कुदाल लेकर अपने खेत के लिए निकलती हैं, तब भी उनके दो बालिग बच्चे सो ही रहे हैं. घर से खेत की तीन किलोमीटर की दूरी वह लगभग 15 से 20 मिनट में तय करती हैं. अपने 2-3 कनाल (एक कनाल, एक एकड़ के लगभग दसवें हिस्से के बराबर होता है) के खेत में वह गेहूं, धान, और कभी-कभार कुछ सब्ज़ियां उगाती हैं. “मेरी आधी ज़मीन बंजर है, इसलिए मैं ज़्यादा कुछ नहीं उपजा सकती हूं. बहरहाल मैं अपनी उपज को बेचती नहीं. हम उनको ख़ुद खाते हैं.”

किसानी का काम उनके ख़ून में शामिल है, क्योंकि उनके मां-पिता के पास कांगड़ा ज़िले के एक छोटे से गांव नजरी में तक़रीबन दो बीघा ज़मीन थी, जिसपर वे गेहूं, धान और भिंडी, लौकी, और फलियां जैसी सब्ज़ियां उगाते थे. बीना को कभी स्कूल जाने का मौक़ा नहीं मिला, बल्कि उनको खेतों में अपने मां-पिता की मदद करनी होती थी, और उनके साथ ही दूसरों के खेतों में भी मज़दूरी करनी होती थी.

अब भी किसी-किसी दिन, बीना दिहाड़ी मज़दूर के रूप में दूसरों के खेतों या घरों में काम करने जाती हैं. वह अपनी गायों और बकरियों के लिए घास भी काटती हैं. उन्होंने बताया, “मैं दिहाड़ी मज़दूर के रूप में रोज़ 150 रुपए कमाती हूं, और दूसरों के खेतों में घास काटकर मुझे कोई 50 या 60 रुपए अलग से मिल जाते हैं.” इसके बाद, वह राशन की अपनी छोटी सी दुकान पर बैठती हैं, जहां उनको प्रतिदिन लगभग 100 रुपए की आमदनी हो जाती है.

लेकिन उनका काम यहीं ख़त्म नहीं होता है. वह पिछले चार सालों से एक स्थानीय निजी स्कूल ‘उड़ान स्कूल’ में सफ़ाईकर्मी के तौर पर नियुक्त हैं. वह प्रतिदिन शाम 5 से 7 बजे तक स्कूल में नौकरी करती हैं और इस काम से महीने के 4,000 हज़ार रुपए कमा लेती हैं.

सालों पहले, जब उनको अपने बच्चों को स्कूल भेजने के लिए पैसों की ज़रूरत पड़ी, तो बीना ने कपड़ों की सिलाई का काम शुरू कर दिया. उन्होंने कहा, “मैं अपने बच्चों को पढ़ाना चाहती थी, इसलिए मैंने हिम्मत बटोरी और सिलाई का काम सीखा. इस काम से मुझे रोज़ के 150 से 200 रुपए मिलने लगे. मेरे पति अक्सर मेरे कमाए उन पैसों को मुझसे छीन लेते थे और उन्हें शराब में उड़ा देते थे.”

वह कहती हैं, “मैं बेहद ख़ुश हूं कि मेरी कड़ी मेहनत की बदौलत मेरे बच्चे पढ़-लिख पाए और आज के दिन वे सभी अपने-अपने पैरों पर खड़े हैं.” उनके चेहरे पर संतोष की लकीरें साफ़ दिखाई दे रही थीं. उनकी 40 वर्षीय बेटी सोनी ख़ुद का ब्यूटी पार्लर चलाती है, उनका बेटा संजीत (37 साल) चंडीगढ़ में एक होटल में काम करता है और छोटा बेटा मनजीत, जो अभी 36 बरस का है, ड्राईवर के तौर पर काम करता है, और ज़रूरत पड़ने पर खेत में उनकी मदद भी करता है.

बीना के अनुसार, “लोगबाग मेरी आमदनी को लेकर मुझ पर ताना भी कसते हैं. लेकिन मैं सिर्फ़ कड़ी मेहनत करती हूं. मेरे बच्चे अब अपना-अपना काम करते हैं, लेकिन इसके बावजूद मैं ख़ुद भी अपना काम करती हूं, क्योंकि मुझे अपने दम पर जीना आता है…मुझे काम करना अच्छा भी लगता है.”

Editor's note

ज्योति कुमारी, बिहार के जहानाबाद ज़िले में कतरासीन गांव की मूल निवासी हैं. उन्होंने 12वीं कक्षा तक की शिक्षा समीप के ही मखदमपुर के द्वारिका प्रसाद यादव विद्यालय में प्राप्त की. ‘साझे सपने’ नाम के ग़ैर सरकारी संगठन ने उनका चयन एक वर्ष की सदस्यता और कौशल कार्यक्रम के लिए किया था. इस कार्यक्रम में पारी एजुकेशन के साथ एक वर्ष का प्रलेखन (डॉक्युमेंटेशन) का एक लघु पाठ्यक्रम भी शामिल था.
ज्योति कहती हैं: "मुझे बीना देवी के निडर व्यक्तित्व ने बहुत प्रेरक किया - इस तरह की निडरता आमतौर पर राजनीति में शामिल महिलाएं दिखाती हैं. विधवा होने के बावजूद, उन्होंने ख़ुद को हाशिए पर ढकेले जाने से बचाए रखा. वह मेहनत के रास्ते पर आगे बढ़ती रहीं, और उन्होंने अपना और अपने बच्चों का जीवन बदल दिया. मैं उनका और उनके जैसी सारी महिलाओं का बहुत सम्मान करती हूं."
अनुवाद: प्रभात मिलिंद
प्रभात मिलिंद, शिक्षा: दिल्ली विश्विद्यालय से एम.ए. (इतिहास) की अधूरी पढाई, स्वतंत्र लेखक, अनुवादक और स्तंभकार, विभिन्न विधाओं पर अनुवाद की आठ पुस्तकें प्रकाशित और एक कविता संग्रह प्रकाशनाधीन.