यह स्टोरी मूल रूप से हिंदी में ही लिखी गई थी. पारी एजुकेशन, भारत के अलग-अलग इलाक़ों के तमाम ऐसे छात्रों, शोधार्थियों, और शिक्षकों के साथ मिलकर काम कर रहा है जो अपनी पसंदीदा भाषा में हमारे लिए लेखन, रिपोर्टिंग, और इलस्ट्रेशन तैयार कर रहे हैं.

जब मैं छोटी थी, तो मैं चाहती थी कि मेरे पास मेरे अपने नाम ‘मोरा देवी’ से आशा कार्यकर्ता (मान्यताप्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) का बैज हो. यहां तक कि मैंने वर्दी भी सिलवा ली थी. सफ़ेद सलवार-कमीज़ और हरा दुपट्टा! पूरे 150 रुपए लगे थे.

साल 2019 में 38 साल की उम्र में मेरा ये सपना पूरा हुआ.

मैं हिमांचल के कांगड़ा ज़िले के नैन गांव में रहती हूं. मेरे पिता हमारे गांव और उसके आसपास निर्माण स्थलों पर दिहाड़ी मज़दूर के रूप में काम करते थे. वह एक हिंसक आदमी थे, और अक्सर हम सभी के साथ मारपीट करते थे. जब भी उन्हें शराब के लिए पैसे चाहिए होते थे, वह मेरी मां को बहुत मारते थे. जब मैं दस साल की थी, तो उन्होंने आत्महत्या कर ली. उनके मरने के बाद ही मैं जल्द ही अपनी मां के साथ एक खेतिहर मज़दूर के तौर पर काम करने लगी, जिन्हें दिन भर की मेहनत के लगभग ढाई सौ रुपए मिलते थे. मैं स्कूल से लौटने के बाद उनके साथ काम करती थी.

जो आदमी हमारे साथ काम करते थे वे मेरी मां को परेशान करने लगे. बाद में इसीलिए वह हमारे गांव की दूसरी औरतों के साथ पास के चाय बागानों में काम करने चली गईं. वहां मज़दूरी और भी कम थी, एक दिन की मजूरी महज़ 150 रुपए.

जब मैं 15 साल की थी, तो मुझे याद है कि मैं स्कूल जाने से पहले 3 घंटे काम करती थी. मेरे भाई भी इसी तरह काम करते थे और हम सभी मिलकर हर रोज़ 200 रुपए कमा लेते थे. मैं सुबह 5:30 बजे उठकर सबके लिए रोटियां बनाती थी और फिर मेरी मां और मैं काम पर चले जाते थे. हमें सुबह 8 बजे तक खेत पहुंचना होता था, क्योंकि ज़रा सी देर होने पर किसी और को काम मिल सकता था. मकान मालिक के पास 5 बीघा (क़रीब 2.5 एकड़) ज़मीन थी, और वहां केवल 5 से 10 औरतों को काम दिया जाता था. जब मैं वापस घर पहुंचती, तो घर में झाड़ू लगाती, और घर का काम निपटाती थी.

मैं दसवीं की परीक्षा में दो विषयों में फेल हो गई थी, उसके बाद मैंने स्कूल छोड़ दिया. मेरे भाई ने भी बारहवीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी. हम चमार समुदाय से हैं, जो हिमाचल प्रदेश में अनुसूचित जाति के रूप में सूचीबद्ध है. हमारे पास कोई ज़मीन नहीं है. हम जब भी पालमपुर में अपने नाना-नानी के घर जाते, वहां हम उनके खेतों में भी काम करते थे. और उसके बदले हमारी नानी हमें अपनी फ़सल का आधा हिस्सा दे देती थीं.


पहली बार मैंने किसी आशा कार्यकर्ता को टीवी पर देखा था. उसके पास एक भारी सा बैग था और वह घर-घर जाकर बच्चों को पोलियो ड्रॉप्स पिला रही थी और साथ ही उनके अभिवावकों को उसके महत्त्व के बारे में समझा रही थी. मैंने उसके जैसा बनने का सपना देखा.

जब मैं 19 की हुई, तो मेरी शादी रोशन लाल से हो गई. मैं उनके पिता शक्ति चंद और मां बिमला देवी के साथ नैन गांव में रहने लगी. रोशन बढ़ई का काम करते हैं और 5,000 रुपए प्रति महीना कमा लेते हैं. मैं अपने ससुर के साथ अपने एक बीघा ज़मीन पर काम करती हूं, जहां हम अपने लिए चावल, मक्का, गेंहू और कुछ सब्ज़ियां उगाते हैं. हमारी धान की फसल एक साल तक के लिए पर्याप्त होती है.

रोशन और मेरे दो बेटे हैं – राजेश्वर और अमित. मेरा बड़ा बेटा राजेश्वर बीए की पढ़ाई कर रहा है और सेना में भर्ती होना चाहता है. उसका भाई अमित अभी बारहवीं में है और उसने ये तय नहीं किया है कि उसे आगे क्या करना है.

बाएं से दाएं: बिमला, मोरा, अमित, रोशन, शक्ति, और राजेश्वर नैन गांव में अपने घर के बाहर. तस्वीरें: सिंपल कुमारी

ज़िंदगी आगे चलती गई और मैंने अपने सपने के बारे में किसी से बात नहीं की. फिर 2014 में नैन के कुछ लोगों ने सुझाव दिया कि मैं वार्ड के चुनाव में हिस्सा लूं. मैंने उसी दौरान सरपंच के साथ बैठक में टूटे हुए पुल के बारे में बात की, जिसके बारे में किसी ने कुछ नहीं कहा. पुल पूरी तरह से टूटा हुआ नहीं था, लेकिन बहुत लंबे समय से पिघलती बर्फ़ की समस्या के चलते उसका एक हिस्सा उखड़ गया था. जिसके कारण सड़क पर पानी फैल जाता था, और लोगों के लिए पैदल चलना मुश्किल हो जाता था. मेरे गांव से दो महिलाओं ने चुनाव में हिस्सा लिया, और मेरी जीत हुई!

मुझे वार्ड पार्षद की पहली बैठक याद है जहां मुझे 200 से भी ज़्यादा लोगों से बात करनी थी. पूरा गांव और मेरा परिवार में सामने बैठा था और मुझे बोलने में थोड़ी हिचक हो रही थी.

नैन गांव में कुल 249 लोग रहते हैं, और वार्ड पार्षद के रूप में मैं 45 परिवारों के लिए ज़िम्मेदार थी. हमने परिवारों के लिए नल लगवाए, सरकारी योजनाओं की सहायता से गांववालों की मदद की कोशिशें की. मेरे पति रोशन ने मेरे काम में मेरी बहुत सहायता की.

जब मेरे बच्चे बहुत छोटे थे, तब मैं उनके स्कूल जाने के बाद काम पर जाती थी. मैं सुबह 10 बजे से शाम 4 बजे तक काम करती थी. एक साल हमारे पास अपने बच्चों की स्कूल फ़ीस के लिए पैसे कम पड़े गए और मैं 800 रुपए के अपने वज़ीफ़े से उनकी फ़ीस जमा करने में सक्षम थी. ऐसा करके मुझे बहुत खुशी हुई.

साल 2018 में, मेरा वार्ड पार्षद का पांच साल का कार्यकाल ख़त्म हो रहा था. आंगनवाड़ी में पूछताछ करने पर पता चला कि हमारे गांव के लिए एक आशा कार्यकर्ता की ज़रूरत है. बिना समय बर्बाद किए मैंने आंगनवाड़ी शिक्षिका से एक फ़ॉर्म मांगा, घर जाकर अपने पति से इस बारे में चर्चा की.

फ़ॉर्म भरने के एक हफ़्ते बाद मुझे इंटरव्यू के लिए बुलाया गया. मेरे गांव से तीन अन्य औरतों ने भी फ़ॉर्म भरा था और हम सभी चयनित हुए थे. नैन से आधे घंटे की दूरी पर एक स्वास्थ्य केंद्र पर हमारा प्रशिक्षण हुआ. हमने गर्भवती महिलाओं को दवाईयां देना, उन्हें प्रसव से पहले और उस दौरान जांच के लिए स्वास्थ्य केंद्र पर ले जाना सीखा. हमें सिखाया गया कि टीबी के रोगियों की पहचान कैसे करें और उन्हें दवा कब दें. जिस तरह से मैंने टीवी पर देखा था, उसी तरह हमें सिखाया गया कि हम कब और कैसे बच्चों को पोलियो की खुराक दें.

मेरे कार्यकाल के आख़िरी समय में मैं प्रशिक्षण ले रही थी. इसीलिए जब मुझे वार्ड की बैठकों में हिस्सा लेना होता था, तो मैं प्रशिक्षण से एक या दो घंटे की छुट्टी ले लेती थी.

चूंकि मेरे पास दसवीं का प्रमाण पत्र नहीं था, इसलिए मुझे चिंता थी कि प्रशिक्षण के बाद मैं परीक्षा में उत्तीर्ण नहीं हो पाऊंगी. हालांकि, हमें प्रशिक्षण के दौरान जो पढ़ाया गया था, उसी पर सारे प्रश्न आधारित थे. हमारी कक्षा की 12 औरतों में हम तीन लोग (अलग-अलग ग्राम पंचायतों की) सफ़ल रहे.

मैं तब से ही अपनी सफ़ेद सलवार-कमीज़, हरे दुपट्टे के साथ पहन रही हूं.

सुबह 6 बजे से मेरा काम शुरू हो जाता है. मैं अपने घरवालों के लिए खाना बनाती हूं, घर साफ़ करती हूं, और गाय को चारा देती हूं. उसके बाद अपने घर के पिछवाड़े से गाय के लिए घास काटकर रख देती हूं, ताकि मेरी बूढ़ी सास को कोई समस्या न हो और वह आराम से गाय को चारा दे सकें. फिर मैं अपने लिए दो रोटी बनाती हूं, अपनी यूनिफ़ॉर्म पहनती हूं और अपने काम के लिए पूरे गांव का दौरा करती हूं.

कभी-कभी मुझे लगता है कि मेरे पास सांस लेने की भी फ़ुर्सत नहीं है. मैं रात में सोने से पहले अगले दिन के बारे में सोचना शुरू कर देती हूं कि अगले दिन मुझे क्या करना है. मुझे याद नहीं है कि आख़िरी बार मैंने कब आराम किया था.

जब मैं काम से लौटती हूं, तो मैं घर के अंदर घुसने से पहले अपने हाथ और पैर धोती हूं. मुझे डर लगता है कि मेरे कारण मेरे परिवार को कुछ हो न जाए. वे मुझसे कहते हैं, “तुम जो चाहे करो, लेकिन अपना ख़याल रखो.” उन्हें लगता है कि मैं अपना ख़याल नहीं रखती. मैं महीने में चार हज़ार रुपए कमा लेती हूं, लेकिन इस काम से मुझे जो ख़ुशी मिलती है उसकी तुलना नहीं की जा सकती.

Editor's note

सिंपल कुमारी, बिहार के गया ज़िले के पन्नो देवी शिक्षण संस्थान कॉलेज से बिजनेस मैनेजमेंट की पढ़ाई कर रही हैं. ‘साझे सपने’ नाम के ग़ैर सरकारी संगठन ने उनका चयन एक वर्ष की सदस्यता और कौशल कार्यक्रम के लिए किया था. इस कार्यक्रम में पारी एजुकेशन के साथ एक वर्ष का प्रलेखन (डॉक्युमेंटेशन) का एक लघु पाठ्यक्रम भी शामिल था.

वह कहती हैं: "पारी के साथ इंटर्नशिप करने से पहले मुझे लगता था कि एक अच्छी स्टोरी लिखने के लिए सिर्फ़ कल्पना की ज़रूरत पड़ती है. लेकिन मोरा देवी से मिलने के बाद मैंने महसूस किया कि हर इंसान के लिए कल्पना ही सिर्फ़ किसी कहानी का स्रोत नहीं. सबके जीवन में संघर्ष की कहानी छिपी होती है. मैंने यह भी जाना कि हमें लोगों के साथ काफ़ी समय बिताना होता है, तब जाकर वे अपनी कहानी साझा कर पाने में सहज होते हैं. अब मुझे लोगों से बात करने में हिचकिचाहट भी नहीं होती है.”