जहां तक कबीर मान याद कर पाते हैं, वह यही चाहते रहे हैं कि उन्हें पुरुष के तौर पर ही पहचाना जाए. तस्वीरें उनके पिता यशवंत ने ली थीं और वंदना बंसल ने इस लेख के लिए उन्हें संकलित किया

जहां तक मुझे याद है, मैं जन्म के समय मिली महिला की पहचान छोड़कर पुरुष बनना चाहता था. साल 2014 में, मैं अपनी उम्र के 24वें पड़ाव पर था और तभी मैंने 15वीं सदी के रहस्यवादी कवि कबीर दास के नाम पर, अपना नाम ‘कबीर’ रखा. मैंने तय कर लिया था कि मुझे अब मेरे माता-पिता द्वारा बेटी के रूप में दिया गया नाम ‘मनीषा’ कहकर नहीं पुकारा जाएगा. हम बलाई समुदाय के हैं. मेरा पुराना उपनाम ‘मानी’ था, जिसमें मेरे दलित पूर्वजों की छाप थी, लेकिन बाद में मैंने अपना उपनाम बदलकर ‘मान’ कर लिया.

मुझे हाल ही में पता चला कि मैं ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए [सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के तहत] बने राष्ट्रीय पोर्टल पर, आधिकारिक तौर पर अपना नाम बदलने के लिए आवेदन कर सकता हूं. इस पोर्टल को 29 सितंबर, 2020 को शुरू किया गया था. साथ ही, यह पोर्टल मेरे जैसे लोगों को एक पहचान पत्र भी देता है. मेरा आवेदन अब भी अटका हुआ है; जब भी मैं अपने आवेदन के बारे में जानने की कोशिश करता हूं, तो पोर्टल पर कोई ठीक जवाब नहीं मिलता. लेकिन मैं अपने आवेदन के स्वीकार होने का इंतज़ार करूंगा.

मुझे ‘मनीषा’ बनकर बड़ा होना सही नहीं लग रहा था. जब मैं बहुत छोटा था, तो लड़कियों वाले कपड़े मुझे असहज करते थे और मैं पैंट और शर्ट पहनना पसंद करता था. मैंने कभी भी दूसरी लड़कियों की तरह अपने बाल बड़े नहीं किए और इसे छोटा रखना ही पसंद किया. जब मैं बड़ा हुआ और मेरा मासिक धर्म शुरू नहीं हुआ, तो मैं खुश था, लेकिन मेरी मां मुझे एक स्त्री रोग विशेषज्ञ के पास ले गईं, जिन्होंने मुझे पीरियड्स लाने के लिए दवाईयां दीं.

मुझे याद है कि जब मैं 17 साल का था, तो एक दिन स्कूल के बाद मैंने साइकिल किराए पर ली और अपने घर से चार किलोमीटर दूर स्थित एक साइबर कैफे में जाकर ‘ऑपरेशन से स्त्री से पुरुष बनने’ के बारे में ऑनलाइन सर्च किया. मुझे वाक्य को सही ढंग से बनाने में मुश्किल आ रही थी, लेकिन सर्च इंजन ने मेरी ग़लतियों को अनदेखा करते हुए, मुझे कई प्लेटफ़ॉर्मों पर ले जाकर उत्तर दिखाया.

किशोरी के रूप में मेरा दैनिक जीवन आसान नहीं था. जैसे, स्कूल में लड़कियों के वॉशरूम में जाना मेरे लिए एक मुश्किल काम था, और इसलिए मैं घर पहुंचने तक रुका रहता था. इस वजह से मुझे दो बार यूरिनरी ट्रैक्ट इन्फ़ेक्शन हो गया – और इसके इलाज पर लगभग 40,000 रुपए ख़र्च हुए. अब भी, मैं सार्वजनिक वॉशरूम में जाना पसंद नहीं करता और घर पहुंचने तक इंतज़ार करता हूं. मुझे लगा कि अगर मैं एक पुरुष बन जाऊं, तो ये समस्याएं बंद हो जाएंगी.

जन्म के बाद मिली महिला की पहचान के साथ उनका जीवन कठिन रहा, और उन्हें एक ट्रांस पुरुष के रूप में अब भी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. तस्वीरें: वंदना बंसल

मेरे दादा-दादी विभाजन के दौरान राजस्थान के भरतपुर ज़िले से दिल्ली चले गए, और पुरानी दिल्ली के किशनगंज इलाक़े में बस गए. गांव में वे किसान थे, लेकिन शहर में मेरे दादाजी को दिल्ली कपड़ा मिल में काम मिल गया. मेरे पिता यशवंत एक स्वतंत्र फ़ोटोग्राफ़र थे और उन्हें कभी-कभार शादियों में काम मिल जाया करता था; ज़्यादातर समय वे घर में पड़े रहते और नशे में धुत रहते थे.

मेरे परिवार में, मेरी मां सरला इकलौती कमाने वाली सदस्य थीं. वह एक सरकारी प्राथमिक स्कूल में शिक्षिका थीं और उनका वेतन 30,000 रुपए प्रति माह था. हर दिन, वह स्कूल पहुंचने के लिए किशनगंज के हमारे पुश्तैनी घर से ओखला तक जाती थीं. उन्हें इसके लिए हर रोज़ पूरे तीन घंटे बस में बिताने पड़ते थे.

हालांकि, मेरे पिता हमारे जीवन के खलनायक थे. मुझे उनके द्वारा काऊ मौक़ों पर घर में की गई घरेलू हिंसा याद है; लेकिन मैं मन ही मन उनकी कलात्मक ख़ूबी के लिए उन्हें पसंद करता रहा. उन्होंने रचनात्मक कलाओं, संगीत और फ़िल्मों से मेरा परिचय कराया. मुझे उनके कैमरे के फ़िल्म रोल बदलना याद है. उन्होंने ही मेरी सारी तस्वीरें खींचीं और मुझे कभी बेटी नहीं माना; शायद इसलिए, क्योंकि वह चाहते रहे होंगे कि उनका पहला बच्चा बेटा हो.

‘टॉमबॉय’

मैंने कक्षा 6 से 10 तक की पढ़ाई, सिर्फ़ लड़कियों के स्कूल में की और उस समय मुझे घुटन महसूस होती थी. 11वीं कक्षा में, मैं एक सह-शिक्षा (को-एड) संस्थान में चला गया और फिर चीज़ें बदल गईं. स्कूल, घर से बचने की एक जगह बन गया. मैं लड़कियों की टीम में था और मुझे खेलों में हिस्सा लेना अच्छा लगता था. मुझे अपनी पहचान के कारण पक्षपात का सामना नहीं करना पड़ा.

कबीर ने पिछले साल अपनी हार्मोन थेरेपी शुरू की और उनके चेहरे पर बाल आने लगे हैं. वह अगले साल लिंग परिवर्तन सर्जरी शुरू करने पर विचार कर रहे हैं. तस्वीरें: वंदना बंसल

मैं अपनी कक्षा की एक लड़की से प्रेम करने लगा; जिसे मैं सोनाक्षी नाम देना चाहूंगा. उसने एक दिन यह कहते हुए रिश्ता तोड़ दिया कि “हम किस ओर जा रहे हैं? क्या हम शादी करेंगे?” मैं अपनी लैंगिक पहचान को लेकर असुरक्षित महसूस करने लगा और अवसाद में चला गया.

स्कूल के बाद, मैंने मीडिया स्टडीज़ में डिग्री हासिल करने के लिए, दिल्ली के एक कॉलेज में दाख़िला लिया. मैंने कॉलेज में कभी इस बात का ख़ुलासा नहीं किया कि मैं एक ट्रांस पुरुष हूं; मैंने टॉमबॉय ‘मनीषा’ बने रहने का फ़ैसला किया. जीवन एकदम मस्त चल रही थी, लेकिन ऐसा ज़्यादा दिनों तक नहीं चला. मेरे बारे में अफ़वाहें फैलने लगीं. मैं एक दोस्त के साथ उसकी बाइक पर कॉलेज जाता था. लोग कहने लगे कि वह मेरा बॉयफ्रेंड है. दूसरे लोग कहने लगे कि मैं दूसरी लड़कियों को डेट कर रहा था. मैं अपने सेक्सुअल रुझान में न तो स्ट्रेट (इतरलिंगी) हूं और न ही समलैंगिक (समलैंगिक स्त्री), और इन सारी बातों ने मुझे परेशान कर दिया. इन सामाजिक दबावों को मैं संभाल नहीं सका और मैंने कॉलेज के अंतिम वर्ष [2015] में पढ़ाई छोड़ दी.

कुछ समय से, घर में चीज़ें ठीक नहीं थीं. मेरे पिता को अग्नाशय कैंसर हो गया था. मां ने अपनी सारी बचत उनके इलाज पर ख़र्च कर दी, फिर भी हम उन्हें बचा नहीं सके. हमें अपने रिश्तेदारों से पैसे उधार लेने पड़े, और हमने लगभग 35 लाख रुपए अस्पतालों और इलाज पर ख़र्च किए. सरकारी स्कूल की शिक्षिका होने की वजह से, मेरी मां की भविष्य निधि और चिकित्सा लाभों से मदद मिली, लेकिन क़र्ज़ खत्म करने में हमें छह साल लग गए.

हमारे समाज में केवल बेटों को ही अंतिम संस्कार करने का अधिकार दिया जाता है, लेकिन जब मेरे पिता की मृत्यु हुई, तो मैंने तीन अन्य पुरुषों के साथ उनकी अर्थी को कंधा दिया था. श्मशान में, मेरे चाचा ने यह कहते हुए आपत्ति जताई, “मनीषा यह नहीं कर सकती”, लेकिन मेरे चचेरे भाई ने मेरा समर्थन करते हुए उनसे कहा, “लड़की कहीं और से नहीं आती है.” दाह-संस्कार के रिवाज़ निभाने के कारण मुझे सशक्त महसूस हुआ.

फिलवक़्त

2019 में, मैं एक लोकल ट्रेन से पहले साल की परीक्षा देने करनाल स्थित कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय जा रहा था. जैसे ही मैं ट्रेन में चढ़ा, कुछ साथी यात्रियों ने मेरे ऊपर टिप्पणी की. मेरी उनसे बहस हो गई और मामला गरमाने लगा. उन्होंने मुझे ट्रेन से धक्का देकर बाहर कर दिया. सौभाग्य से, ट्रेन कम स्पीड में चल रही थी और मैं प्लेटफ़ॉर्म पर कूद गया. हालांकि, उस दिन मेरी परीक्षा छूट गई और आगे पढ़ाई करना का वह मौक़ा मेरे हाथ से निकल गया. मुझे कुछ मामूली चोटें ही आईं और मैं बच गया, लेकिन उसके बाद मैं फिर से उस रास्ते जाने की हिम्मत नहीं कर सका.

कबीर ने मेट्रो से जाने-आने से बचने के लिए, और अपने दैनिक आवागमन के दौरान ट्रांसफ़ोबिक (पारद्वेषिता) फ़ब्तियों से बचने के लिए, अपने बचत के पैसों से एक साइकल ख़रीदी. तस्वीरें: वंदना बंसल

हाल ही में, मैंने दिल्ली मेट्रो से यात्रा करना भी छोड़ दिया. सुरक्षा जांच के लिए, प्रवेश द्वार पर अगर मैं महिलाओं वाली क़तार में खड़ा होता हूं, तो वे मुझे अंदर आने से मना कर देते हैं. अगर मैं पुरुषों की क़तार में जाता हूं, तो वे कहते हैं, “आप यहां से नहीं जा सकते.”

कई बार मेरे मन में ख़ुदकुशी करने का ख़याल आया है. मैंने एक बार ऐसा करने की कोशिश की और फिर मुझे तुरंत इसका पछतावा भी हुआ. 27 वर्ष की उम्र में, मैं एक गैर-सरकारी संगठन के संपर्क में आया, जो यौन शिक्षा पर काम करते हैं. मैं उनसे अपनी वास्तविक पहचान के बारे में निसंकोच बात कर सकता था और इस तरह एक ट्रांस पुरुष के रूप में, मेरी पहचान बनने लगी. उन्होंने मुझे मेरे मानसिक स्वास्थ्य पर, ध्यान देने में मदद की. [आत्महत्या रोकथाम हेल्पलाइन पर विस्तृत जानकारी के लिए, कृपया इस कहानी के अंत में दिए गए नोट को पढ़ें.]

रोज़मर्रा के जीवन के कलह और तनावों को देखते हुए, एक साल पहले मैंने पश्चिमी दिल्ली के द्वारका में स्थित एक क्लिनिक में, हार्मोन थेरेपी शुरू करने का फ़ैसला किया. मुझे लगता है कि इस थेरेपी से मेट्रो में आने-जाने और सार्वजनिक स्थानों पर ग़लत तरीक़े से पहचाने जाने को लेकर मेरी चिंता दूर हो जाएगी.

पिछले साल मैंने हार्मोन थेरेपी शुरू की और अब यह जीवन भर चलती रहेगी. इससे कारण मुझे कई तरह के दुष्प्रभावों का सामना करना पड़ सकता है. मुझे हर तीन महीने पर टेस्टोस्टेरॉन अंडेकेनोट का इंजेक्शन लेने के लिए, क्लिनिक जाना पड़ता है; जिसके एक इंजेक्शन की क़ीमत लगभग 360 रुपए है. लेकिन गोलियों, नियमित रूप से खून की जांच और पेट के अल्ट्रासाउंड के साथ हर बार क्लिनिक का ख़र्च लगभग 4,000 रुपए तक बढ़ जाता है. कहते हैं कि इस थेरेपी से मिज़ाज में बार-बार बदलाव, चिंता, ब्लड शुगर असंतुलन सहित कई दुष्प्रभावों का सामना करना पड़ता है. इसके साथ ही, इससे लीवर और किडनी पर भी प्रभाव पड़ता है.

मैं अगले साल (2022), ‘सेक्स रिअसाइनमेंट सर्जरी’ शुरू करने के बारे में विचार कर रहा हूं. यह सर्जरी केवल इसलिए नहीं करवाउंगा कि मुझे अपने व्यक्तित्व में बदलाव चाहिए या मेरे आधार कार्ड पर लिंग वाली जगह पर मैं ‘पुरुष’ लिख सकूं. मैं एक ट्रांस पुरुष के रूप में अपने वास्तविक जीवन को जीना चाहता हूं. हालांकि, इस पर क़रीब 7-10 लाख रुपए का ख़र्च आएगा. इस प्रक्रिया में तीन सर्जरी होगी – स्तनों को हटाने के लिए, लिंग बनाने के लिए, और साथ ही हार्मोन थेरेपी होगी. मैं पहली सर्जरी के लिए, पहले से ही पैसे बचा रहा हूं.

साथ देने वाला परिवार: कबीर अपने 26 वर्षीय भाई मुकुल (बिल्कुल बाएं), मां सरला और अपनी 24 वर्षीय बहन नम्रता (बिल्कुल दाएं) के साथ. तस्वीरें: वंदना बंसल

इस थेरेपी को निजी अस्पताल में करवाने के कारण आने वाले ऊंचे ख़र्चे के बावजूद, मैंने कभी भी सरकारी विकल्पों के बारे में नहीं सोचा. वहां के लोग भेदभाव करते हैं और मेरी चिंताओं को ‘समस्या’ समझते हैं. एक बार जब मैंने अपना केस एक सरकारी डॉक्टर को बताया, तो उन्होंने पूछा, “क्या आपका कोई बॉयफ्रेंड है? क्या आपने कभी सेक्स किया है? कोशिश करके देखो, इससे मदद मिलेगी.”

मैं हमेशा साथ देने वाले अपने परिवार के प्रति आभारी हूं. मेरी मां चिंतित रहती हैं और उन्हें लगता है कि मुझे स्त्री का शरीर रहने देना चाहिए और पुरुषों वाले कपड़े पहनने चाहिए. मेरा छोटा भाई और छोटी बहन, मेरे फ़ैसले को लेकर मेरा समर्थन करते हैं. मेरा छोटा भाई विज्ञापन की दुनिया में काम करता है और बहन प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रही है.

मैं अब एक मशहूर ई-कॉमर्स फ़र्म के गोदाम में, 10 घंटे के शिफ़्ट में काम करता हूं. इससे मैं लगभग 20 हज़ार रुपए प्रति माह कमा लेता हूं. मेरा सपना है कि मैं एक कैफ़ै खोलूं, जहां सभी तरह के लोगों का सम्मान हो. मैं लोगों को उनके जीवन के अवसाद से दूर, समय बिताने की एक शांत जगह देना चाहता हूं; जो मैं खोजता रहा, लेकिन कभी नहीं मिला.

यदि आपके मन में ख़ुदकुशी का ख़याल आता है या आप किसी ऐसे इंसान को जानते हैं जो संकट में है, तो कृपया राष्ट्रीय हेल्पलाइन ‘किरण’ को 1800-599-0019 (24/7 टोल फ़्री) पर या इनमें से किसी भी नज़दीकी हेल्पलाइन नंबर पर कॉल करें. मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम कर रहे लोगों और सेवाओं के बारे में जानकारी के लिए, कृपया एसपीआईएफ़ की मानसिक स्वास्थ्य निर्देशिका देखें.

Editor's note

संपादक के क़लम से: वंदना बंसल, नई दिल्ली के विवेकानंद इंस्टिट्यूट ऑफ़ प्रोफेशनल स्टडीज़ेड में पत्रकारिता और जनसंचार की अंतिम वर्ष की छात्र हैं. उन्होंने पारी एजुकेशन के साथ इंटर्न के रूप में काम करते हुए, यह स्टोरी लिखी है. वह कहती हैं, "हम ट्रांस पुरुषों की कहानियां शायद ही कभी सुनते हैं, क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज में उन्हें जगह नहीं मिलती है. कबीर से बात करके मैं जाति और लिंग के साथ-साथ, हमारे समाज में व्याप्त पारद्वेषिता (ट्रांसफ़ोबिया) के बारे सोचने पर मजबूर हो गई.” अनुवाद: अमित कुमार झा अमित कुमार झा, पेशे से अनुवादक हैं. उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई की है और अब जर्मन सीख रहे हैं.