
यह स्टोरी मूल रूप से हिंदी में ही लिखी गई थी. पारी एजुकेशन, भारत के अलग-अलग इलाक़ों के तमाम ऐसे छात्रों, शोधार्थियों, और शिक्षकों के साथ मिलकर काम कर रहा है जो अपनी पसंदीदा भाषा में हमारे लिए लेखन, रिपोर्टिंग, और इलस्ट्रेशन तैयार कर रहे हैं.
जैसे ही मंसाराम तूतानिया शॉल की क़ीमत बताते हैं, ग्राहक की तत्काल प्रतिक्रिया आती है: “मैं सरकारी नौकरी नहीं करता. क्या आप पैसे कम कर सकते हैं?”
मंसाराम (72 वर्ष) टस से मस नहीं होते. वह कहते हैं, “रेट तो तय है,” और सौदा जल्द ही पूरा कर लिया जाता है. वह आगे कहते हैं, “शॉल बनाने में बहुत मेहनत लगती है. और फिर ऊन पाने के लिए भी बहुत हाथ-पैर मारने पड़ते हैं, क्योंकि आजकल बहुत कम लोग भेड़-बकरियों को पालते हैं.”


हिमाचल प्रदेश के कंडबाड़ी गांव में स्थित अपने घर में मंसाराम और उनकी पत्नी बिमला देवी हथकरघे पर काम करते हैं. वे दोनों क़रीब 50 साल से बुनकरी कर रहे हैं, और गर्दू (कंबल), शॉल, स्टोल, मफ़लर, और अन्य ऊनी वस्तुएं बनाते हैं. पालमपुर में मात्र 21 साल की उम्र में अपने पड़ोसी से यह शिल्प सीखने वाले मंसाराम कहते हैं, “मेरे परिवार के पास हमेशा से एक चरखा रखा था.” कभी स्कूली शिक्षा न मिल पाने की बात पर वह कहते हैं, “मेरे जीवन के शुरुआती 21 साल भेड़-बकरी चराने में ही खट गए, क्योंकि उस समय आसपास कोई पढ़ाई-लिखाई नहीं करता था और न पढ़ाई का माहौल ही था. परिवार के लोग भी पढ़ाई के लिए नहीं कहते थे.”


ऊन को कतरने, साफ़ करने, और सुखाने के बाद ऊन के रेशों को अलग करने के लिए चरखे का उपयोग किया जाता है. तस्वीरें: अमृता राजपूत

अपने शिल्प में माहिर बुनकर मंसाराम याद करते हैं कि उन्हें किस तरह खेतों में काम करने और परिवार के मवेशियों (गाय, भैंस, भेड़, और बकरियां) को चराने के बीच समय को बांटना पड़ता था. मंसाराम, गद्दी समुदाय से ताल्लुक़ रखते हैं, जो हिमाचल प्रदेश में अनुसूचित जनजाति के रूप में सूचीबद्ध है.
मंसाराम की पत्नी बिमला देवी कहती हैं कि बुनकरी की प्रक्रिया में कई चरण शामिल होते हैं. भेड़ से ऊन काटकर लाए जाने के बाद उसे साफ़ किया जाता है, और फिर धूप में सुखाया जाता है. फिर ऊन के रेशों को अलग करने के लिए एक मशीन का उपयोग किया जाता है. वह कहती हैं, “हम ऊन को घर लाते हैं और मैं चरखे का उपयोग करके इससे धागे बनाती हूं.” कताई का काम आमतौर पर महिलाएं करती हैं; बिमला घरेलू काम निपटाने के साथ-साथ इसके लिए अलग से समय निकालती हैं.
हम पूर्व में दिल्ली भी जा चुके हैं और प्रगति मैदान में एक महीने तक अपना काउंटर भी लगाया है. हमने सरकार से 50,000 रुपए में इस काउंटर को किराए पर लिया था…हम ज़्यादा सामान नहीं बेच सके थे, क्योंकि ग्राहक मुलायम कपड़ा ख़रीदना चाहते थे और हमारे कपड़े इतने नरम नहीं थे…
फिर काते हुए धागे के बंडलों को हथकरघे से जोड़ा जाता है, जो अब कंबल, शॉल, और कोट बुhनने के लिए तैयार होते हैं. मंसाराम कहते हैं, “बुनाई शुरू करने से पहले हम इसे धोते हैं, क्योंकि इससे मज़बूती मिलती है. जब मैं एक छोटा सा लड़का था, तब से मैंने इस काम को होते देखा था. मेरे मन में कभी कोई और काम करने का ख़्याल भी नहीं आया.”
जब उन्होंने बुनकरी शुरू की थी, तब एक शॉल 50 रुपए में बिकती थी. “एक शॉल बनाने की लागत ऊन पर निर्भर करती है. आजकल, ऊन की ही क़ीमत 100 रुपए प्रति किलो है. एक शॉल में 2-3 किलो ऊन की ज़रूरत पड़ती है, और यह मात्रा शॉल की लंबाई के आधार पर बढ़ भी सकती है. हम एक शॉल 1,500-2,000 रुपए में बेच सकते हैं.”


फिर काते हुए धागे के बंडलों को हथकरघे में जोड़ा जाता है, जो कंबल, शॉल, और कोट बुनने के लिए तैयार होते हैं. तस्वीरें: अमृता राजपूत
युवावस्था के दिनों में, उन्हें अपने उत्पाद बेचने के लिए हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा, स्पीति, कुल्लू व मनाली, और दिल्ली के शहरी इलाक़ों में भटकना याद है. अब अपनी उम्र और ख़राब तबीयत के चलते वह घर पर ही रहते हैं. वह कहते हैं, “अब मैं उतना बुन भी नहीं पाता जितना कभी बुन लेता था.”

एक शॉल बुनने में मंसाराम को पांच दिन लगते हैं, जबकि एक गर्दू कंबल बुनने में उन्हें 15 से 30 दिन लग जाते हैं. मुख्यतः मानसून और सर्दियों के मौसम के दौरान उपयोग किए जाने वाले गर्दू केवल हिमाचल प्रदेश में बुने जाते हैं. इसकी बुनाई में इस्तेमाल होने वाली तकनीक और उसके फ़ायदों के बारे में बताते हुए वह गर्व से कहते हैं, “बारिश या बर्फ़ और नमी इस कंबल में प्रवेश नहीं कर सकती. सर्दियों के दौरान ख़ुद को गर्म रखने के लिए केवल एक गर्दू काफ़ी होता है. वे बहुत जल्दी सूख भी जाते हैं.” एक गर्दू 8,000 रुपए में बिकता है.
मंसाराम ने कहा, “लॉकडाउन ने हमें प्रभावित नहीं किया, क्योंकि आस-पास के गांवों के लोग उस दौरान आते रहे. गद्दी समुदाय के लोग अब भी शादियों के दौरान दूल्हों के लिए हाथ से बुने हुए शॉल और कोट ख़रीदते हैं.” कांगड़ा में बुनकरों की संख्या में लगातार हो रही गिरावट के साथ, इस पारंपरिक शॉल की निरंतर मांग होने के चलते मंसाराम का परिवार अपने शिल्प के माध्यम से गुज़ारा कर पा रहा है.
वह कहते हैं, “मेरे परिवार में लगभग सभी लोग बुनाई करना जानते हैं, लेकिन अब कोई भी इस काम को नहीं करना चाहता, क्योंकि इसमें बहुत मेहनत लगती है.” मंसाराम और उनकी पत्नी के दो बेटे थे – एक बेटे की कुछ साल पहले मौत हो गई थी और दूसरा बेटा अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ उनके साथ ही रहता है.
वह कहते हैं, “हमारे गांव में हम ही बचे हैं जो अब भी बुनकरी करते हैं. मुझे नहीं पता कि हमारे जाने के बाद इस काम का क्या होगा.”
Editor's note
अमृता राजपूत, राजस्थान के अलवर में स्थित गौरी देवी गवर्नमेंट कॉलेज फ़ॉर विमेन से समाजशास्त्र विषय में स्नातक की पढ़ाई कर रही हैं और अंतिम वर्ष की छात्र हैं. ‘साझे सपने’ नाम के ग़ैर सरकारी संगठन ने उनका चयन एक वर्ष की सदस्यता और कौशल कार्यक्रम के लिए किया था. इस कार्यक्रम में पारी एजुकेशन के साथ एक वर्ष का प्रलेखन (डॉक्युमेंटेशन) का एक लघु पाठ्यक्रम भी शामिल था. अमृता कहती हैं, “मैंने कभी नहीं सोचा था कि पारी में इंटर्नशिप के दौरान मैं इतना कुछ सीखूंगी. मैंने स्टोरी लिखना, तस्वीरें लेना, और यहां तक कि डॉक्यूमेंट्री बनाना भी सीखा. मैंने सीखा कि एक अच्छी तस्वीर और वीडियो लेने के लिए बहुत धैर्य की ज़रूरत होती है. इस स्टोरी के लिए वीडियो बनाते समय मुझे लगा कि संवाद इसी तरह होने चाहिए - जैसे कि हम सामने वाले व्यक्ति की कहानी और रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा हो गए थे, जिसे हमारी बातचीत ने हमारे दिमाग़ में चस्पा कर दिया.
देवेश एक कवि, पत्रकार, फ़िल्ममेकर, और अनुवादक हैं. वह पीपल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया के लिए बतौर ‘ट्रांसलेशंस एडिटर: हिन्दी’ काम करते हैं.