मेरे गांव सहतवार में अपनी झुकी हुई कमर लिए सुमित्रा दादी अक्सर घर-घर जाते हुए दिख जाती हैं. उनके बेहद ज़्यादा पतले शरीर की छाया भोजन के लिए हाथ फैलाने से पहले ही चौखट के पार दिख जाती है. पिछले 12 सालों से – जबसे उनके परिवार ने उनका स्वास्थ्य बिगड़ने के चलते उनको छोड़ दिया, वह ऐसा करके ही गुज़ारा कर रही हैं.

अब उनकी उम्र 60 के पार जा चुकी है. वह उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले में स्थित मेरे गांव और पड़ोसी ज़िले मऊ और फ़तेहपुर में भोजन और दवाएं मांगती हैं या उन्हें ख़रीदने के लिए घर-घर जाकर पैसे की फ़रियाद करती हैं.

उनके लिए मुफ़्त राशन किसी काम का नहीं है. वह बताती हैं, “मेरे पास खाना बनाने के लिए कोई जगह नहीं है.”

इसके बजाय, सुमित्रा (वह केवल इसी नाम का उपयोग करती हैं) पका हुआ खाना या रुपए लेना पसंद करती हैं, जिससे वह अपनी दवाएं ख़रीद सकती हैं. वह कहती हैं, “मेरे पेट में एक दर्दनाक गाठ [गांठ] है. वाराणसी के एक अस्पताल [100 किलोमीटर दूर] में कहा गया कि मुझे इसका ऑपरेशन करवाना चाहिए, लेकिन उन्हें कुछ काग़ज़ात पर मेरे किसी परिजन के हस्ताक्षर चाहिए थे. मेरा अपना कोई नहीं है, इसलिए मैं ऑपरेशन नहीं करा सकती.”

मैं और मेरा परिवार हाल ही में मुंबई से लौटकर अपने गांव सहतवार आए हैं. मुंबई में मेरे दिवंगत पिता गोपाल गुप्ता काम करते थे और देशव्यापी तालाबंदी से पहले हम स्कूल जाते थे. मेरे जैसे प्रवासी मेहनतकश परिवारों को वापस घर जाने को मजबूर होना पड़ा था. हमारे परिवार की कोविड के विरुद्ध जंग और उसके बाद के वित्तीय संघर्ष की कहानी आप यहां जान सकते हैं: कल्याण में कोविड के ख़िलाफ़ संघर्ष: कथा क़र्ज़ और मौत की.

सुमित्रा दादी कहती हैं, ‘…उन्हें कुछ काग़ज़ात पर मेरे किसी परिजन के हस्ताक्षर की ज़रूरत थी. मेरा अपना कोई नहीं है, इसलिए मैं ऑपरेशन नहीं करा सकती.’ तस्वीरें: ज्योति गुप्ता और शुश्बू गुप्ता

बेरुआरबारी प्रखंड में स्थित हमारे गांव में, हम हर रोज़ सुमित्रा को देखते हैं. वह हर वक़्त एक सुरक्षित जगह की तलाश में भटकती रहती हैं, जहां वह आराम कर सकें. उनके पास एक सफ़ेद प्लास्टिक बैग होता है, जिसमें दो साड़ी, उनकी दवाएं, उनकी मेडिकल रिपोर्ट, और स्टील की एक छोटी प्लेट होती है जिसमें वह खाना खाती हैं. वह हमें बताती हैं, “अपने मेडिकल काग़ज़ों को गीला होने या फटने से बचाकर रखना मेरे लिए बहुत मुश्किल है.”

हालांकि, वह राज्य और केंद्र सरकार की बुज़ुर्गों के लिए बनाई योजनाओं की पात्रता रखती हैं, लेकिन उनके पास योजनाओं में आवेदन के लिए ज़रूरी राशन कार्ड, आधार कार्ड या मतदाता पहचान-पत्र जैसे कोई भी दस्तावेज़ नहीं हैं. सुमित्रा कहती हैं, “मैंने अपना आधार कार्ड बनवाने की कोशिश की थी, लेकिन प्रक्रिया पूरी नहीं कर पाई.”

उनके लिए ऑनलाइन पंजीकरण करवाना एक मुश्किल काम है. आशा कार्यकर्ता सुरंगा वर्मा कहती हैं, “हम महिलाओं को पेंशन योजना का लाभ पाने के लिए ऑनलाइन पंजीकरण में उनकी मदद करते हैं. लेकिन सुमित्रा एक जगह से दूसरी जगह भटकती रहती हैं. इसके अलावा, उनके पास न तो कोई बैंक खाता है और न ही कोई पहचान-पत्र, इसलिए उनका पंजीकरण कराना मुश्किल है.”

भारत में 60 और उससे ज़्यादा की आयु के 7 करोड़ 30 लाख (जनगणना 2011 के अनुसार) लोग रहते हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में सुमित्रा जैसी बुज़ुर्ग महिलाओं की स्थिति ख़ासकर बेहद दयनीय है. सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा साल 2021 की प्रकाशित एक रिपोर्ट ‘भारत में बुज़ुर्ग’ के अनुसार, ग्रामीण इलाक़ों की 71 प्रतिशत (2017-2018 में) बुज़ुर्ग महिलाएं अपने जीवन-यापन के लिए दूसरों पर निर्भर हैं.


सुमित्रा का जन्म यूपी के बलिया ज़िले के रेवती ब्लॉक में स्थित मून छपरा गांव में भूमिहीन मज़दूरों के एक दलित परिवार में हुआ था.

सुमित्रा कहती हैं, “मेरा बचपन चूल्हे [स्टोव] के लिए लकड़ियां इकट्ठा करने और अपनी छोटी बहन की देखभाल करने में बीता.” उन्हें याद भी नहीं कि जब उनकी शादी हुई थी, तब उनकी उम्र कितनी थी. वह कहती हैं, “मुझे इन बातों [विवाह] के बारे में बहुत कम पता था. मेरे दादा को लगा कि शादी से मुझे एक अच्छा घर मिलेगा, मेरी देखभाल होगी.” सुमित्रा अपनी छोटी बहन का ज़िक्र करती हैं, जिनकी मृत्यु किसी बीमारी के कारण हो गई थी, क्योंकि उनका परिवार इलाज का ख़र्च नहीं उठा सकता था.

बेहद छोटी उम्र में सुमित्रा की शादी शंभू गुप्ता नाम के व्यक्ति से हुई थी, जो विधुर थे और दो बच्चों के बाप थे. सुमित्रा की शादी की सबसे स्थायी यादें, उनके शराबी पति द्वारा उन पर की गई शारीरिक हिंसा है. वह खेतिहर मज़दूर था, लेकिन बहुत कभी-कभार ही काम पर जाता था. वे दोनों शंभू के पिता की उस कमाई पर निर्भर थे जो वह खेतिहर मज़दूर के रूप में 100 से 200 रुपए प्रति दिन के हिसाब से कमाते थे. परिवार ने एक एकड़ ज़मीन किराए पर ली थी, लेकिन सुमित्रा को याद आता है कि उन्हें घर से बाहर निकलकर खेत पर काम करने की अनुमति नहीं थी. वह कहती हैं, “मैं काम करना चाहती थी, लेकिन उन्होंने [उनके पति] मुझे कभी घर से बाहर नहीं निकलने दिया.”

सुमित्रा की शादी के एक साल बाद उन्हें बेटा हुआ, लेकिन कुछ ही महीनों में उसकी मौत हो गई. सुमित्रा कहती हैं, “कुपोसन से मर गइल मारा बचवा (मेरा बच्चा कुपोषण से मर गया). उसके बाद मुझे कोई बच्चा नहीं हुआ.” इतना कहने के बाद वह चुप हो जाती हैं.

सुमित्रा को वह समय याद है, जब उनके सौतेले बच्चे उनके साथ अच्छे से पेश आते थे. सुमित्रा कहती हैं, “लेकिन जैसे-जैसे वे बड़े होते गए, पड़ोसी और रिश्तेदार उन्हें याद दिलाते थे कि मैं उनकी मां नहीं हूं और मैं उनसे सबकुछ छीन लूंगी. और इसलिए उन्होंने ख़ुद को मुझसे दूर करना शुरू कर दिया.” वह एक दशक तक अपने पति के साथ रहीं; अंत में उनके पति ने उन्हें बहुत बुरी तरह पीटा और घर से निकाल दिया.

उनकी चचेरी बहन मीरा ने उन्हें रहने के लिए जगह दी. सुमित्रा उनके घर चली गईं और 15 साल से अधिक समय तक वहां रहीं. सुमित्रा घर का काम करती थीं और अपनी चचेरी बहन के तीनों बच्चों की देखभाल करती थीं. उनकी स्थिति कोई अपवाद नहीं है. एक रिपोर्ट के मुताबिक़, ग्रामीण भारत में 70 फ़ीसदी से अधिक बुज़ुर्ग महिलाएं ऐसे घरेलू श्रम में व्यस्त हैं जिसके लिए उनको कोई पैसे नहीं दिए जाते हैं.

दो साल बाद, सुमित्रा के पति का निधन हो गया, लेकिन उन्होंने अपने घर वापस न जाने का फ़ैसला किया. उनको डर था कि अबकी बार उनके सौतेले बेटे उन पर अत्याचार करेंगे.

एक दोपहर, सुमित्रा के पेट में तेज़ दर्द उठा और जब दर्द कम नहीं हुआ, तो उनके चचेरा भाई उन्हें पास के एक स्थानीय डॉक्टर के पास ले गए. “मुझे नहीं पता कि डॉक्टर ने क्या कहा, लेकिन मुझे पता चला कि मुझे चिकित्सकीय उपचार और एक छोटा से ऑपरेशन की ज़रूरत है. मुझे अगले 10 दिनों के लिए, दवाएं लेने को कहा गया.”

शुरू में तो उनके चचेरे बहन ने उनकी दवाओं का ख़र्च उठा लिया, लेकिन जल्द ही बाक़ी परिवार और पड़ोसियों को विश्वास होने लगा कि मेरे शरीर में कोई आत्मा प्रवेश कर गई है. “मुझे पूरे दिन दर्द होता रहता था, मैं कराहती रहती थी, और मुझे चलने में बहुत कठिनाई होती थी. मेरे चचेरे भाई ने मुझे यह कहते हुए घर से निकाल दिया कि किसी आत्मा ने मेरे शरीर पर कब्ज़ा कर लिया है.”

सुमित्रा ने रिश्तेदारों से मदद और आश्रय मांगा, लेकिन लोगों ने उनसे मुंह मोड़ लिया. परिवार में कोई भी उन्हें साथ रखने को तैयार नहीं था. इसलिए, उनके पास गांव-गांव भटकने, मंदिरों और घरों के बाहर भीख मांगने, और किसी खुली जगह पर सोने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था.

कुछ नेकदिल लोगों ने उनकी मदद ज़रूर की. सुमित्रा कहती हैं, “कुछ महीनों में मैंने लगभग 200 रुपए जमा कर लिए थे, ताकि मैं इलाज के लिए सरकारी अस्पताल जा सकूं.” हालांकि, उनका अस्पताल जाना किसी काम का नहीं साबित होना था, क्योंकि बिना उनके परिवार के, डॉक्टर उनका इलाज करने के लिए तैयार नहीं थे.

जब दर्द असहनीय होता था और उनके पास अस्पताल जाने के लिए पैसे नहीं होते थे, तो दर्द दूर करने वाली दवाओं के लिए, वह आयुर्वेदिक या स्थानीय वैद्य-हकीम के पास जाती थीं. वह कहती हैं, “दर्द बार-बार वापस आता रहा और साल-दर-साल मेरी हालत और ख़राब होती गई है.”

सुमित्रा ने इन सरकारी योजनाओं के बारे में कभी नहीं सुना. वह कहती हैं, ‘मुझे नहीं पता कि ये मदद मुझे कैसे मिल पाएगी. वैसे भी, मेरे पास दिखाने के लिए कोई दस्तावेज़ नहीं है.’ तस्वीरें: ज्योति गुप्ता और खुश्बू गुप्ता

राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम के तहत सुमित्रा, बुज़ुर्गों को मिलने वाले बहुत सारे लाभ पाने की पात्रता रखती हैं. केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय की ये योजनाएं, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना की पेशकश करती है, जिसके तहत 60 वर्ष से ज़्यादा उम्र की और ग़रीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रही महिलाओं को ’79 वर्ष की आयु तक 200 रुपए मासिक पेंशन और उसके बाद 500 रुपए’ दिए जाते हैं. विधवा होने के चलते सुमित्रा, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय विधवा पेंशन योजना की भी हक़दार हैं, जिसके अनुसार ’40-59 वर्ष की आयु की बीपीएल कार्डधारी विधवा महिलाएं 200 रुपए मासिक पेंशन की हक़दार हैं.’

सुमित्रा ने इन योजनाओं के बारे में कभी नहीं सुना. वह कहती हैं, ‘मुझे नहीं पता कि ये चीज़ें मुझे कैसे मिलेंगी. इनमें से किसी एक योजना के लिए भी, मेरे पास दिखाने के लिए कोई दस्तावेज नहीं है.’

पिछले एक साल में, कोविड-19 के कारण सुमित्रा की स्थिति और ख़राब हो गई है. लोग उन्हें अपने घरों के क़रीब नहीं आने देते. वह कहती हैं, “मैं इधर-उधर भटकती हूं, इसलिए उन्हें डर है कि मुझे कोविड हो जाएगा और मेरे क़रीब आने से उन्हें भी हो जाएगा.”

हमारे पास से उठकर जाने से पहले सुमित्रा हमें बताती हैं, “इस बार मैं लखनऊ के अस्पताल [500 किलोमीटर दूर] जाने की सोच रही हूं, क्योंकि किसी ने मुझसे कहा था कि वहां मेरी मदद हो सकती है. मैं इस असहनीय दर्द से निजात पाना चाहती हूं.” यह कहकर वह गांव के मंदिर की ओर बढ़ जाती हैं, जहां बैठकर भिक्षा मांगेंगी.

हम अब गांव छोड़कर, मुंबई वाली ज़िंदगी में वापस लौट रहे हैं और हमें नहीं पता कि हम उन्हें फिर कब देख पाएंगे.

Editor's note

ज्योति गुप्ता, मुंबई के मंजूनाथ कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स की छात्र हैं, और खुश्बू गुप्ता मुंबई के जीआरसी हिंदी हाईस्कूल में 10वीं कक्षा के कॉरिस्पान्डेंस एग्ज़ाम के लिए पंजीकृत हैं.

ज्योति और खुश्बू ने यह स्टोरी तब लिखी थी जब उन्हें लॉकडाउन के दौरान अपने गृहनगर लौटना पड़ा था.

अनुवाद: अमित कुमार झा

अमित कुमार झा, पेशे से अनुवादक हैं. उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई की है और अब जर्मन सीख रहे हैं.