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रूबसी देवी कहती हैं, “माएं अपने बच्चों को गहरी नींद में सुलाने के लिए फाग गाती थीं, ताकि जब वे बड़े हो जाएं, तो इस परंपरा को जीवित रख सकें.” क़रीब 45 साल की रूबसी नानकमत्ता गांव के गिनती के उन कुछ लोगों में हैं जो आज भी फाग गाते हैं. यह उत्तराखंड के पहाड़ी इलाक़ों के निवासियों की एक पुरानी लोकगीत-परंपरा है.
रूबसी बताती हैं, “इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता है कि अवसर क्या है, फाग को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है. यह कोई नहीं जानता कि पहला फाग किसने गाया था, और क्यों गाया था. लेकिन यह हमारे रीतिरिवाज़ और परंपरा का एक हिस्सा है.” कुमाऊंनी भाषा में लिखे फाग को बिरादरी की महिलाएं जन्म और विवाह जैसे अवसरों पर गाती हैं.
रूबसी, पिथौरागढ़ के थल गांव में पली-बढ़ी हैं, जहां उन्होंने अपनी मां को दूसरी औरतों के साथ विभिन्न मौक़ों और उत्सवों पर गाते सुनकर फाग सीखा. परिवार के उधमसिंहनगर ज़िले के नानकमत्ता गांव में आकर बस जाने के बाद भी उनके जीवन में फाग संगीत कभी नहीं रुका. वह कहती हैं, “फाग हमारे जीवन में अनेक पीढ़ियों से उपस्थित है.”
अलबत्ता कहीं बाहर नौकरी की तलाश में बड़ी तादाद में युवाओं का पहाड़ों से पलायन तेज़ी से जारी है, ऐसे में रूबसी को इस बात की आशंका है कि एक दिन फाग कहीं उनके जीवन से विलुप्त न हो जाए.
साल 2010 में यूनेस्को द्वारा प्रकाशित एटलस ऑफ़ द वर्ल्ड’स लैग्वेज़ेज इन डेंजर में कुमाऊंनी भाषा को असुरक्षित भाषा के रूप में सूचीबद्ध किया गया है. रिपोर्ट के अनुसार, कोई असुरक्षित भाषा वह है जिसे बहुत से लोग बोलते हैं, लेकिन सभी लोग नहीं बोलते हैं. इस सूची में शामिल भाषा किसी ख़ास समुदाय के परिवारों और बच्चों के द्वारा पैतृक भाषा के रूप में नहीं बोली जाती, बल्कि यह एक विशेष सामाजिक प्रक्षेत्र (डोमेन) तक ही सीमित रहती है.


रूबसी बताती हैं, “अगर किसी शुभ अवसर पर फाग गाने के लिए घर में कोई औरत न हो, तो दूसरे घरों की औरतें को भी फाग गाने के लिए बुलाया जा सकता है.” हालांकि, इस क्रम में जाति-पदानुक्रम का सख़्ती से पालन किया जाता है. इस बात का ध्यान रखा जाता है कि कौन फाग गा सकता है, और कौन नहीं गा सकता है. मिसाल देती हुईं रूबसी कहती हैं कि कथित तौर पर ऊंची जाति की औरतें नीची जाति वालों के लिए नहीं गाती हैं, और केवल ‘शुभ’ मानी जाने वाली औरतों को ही फाग गाने की इजाज़त होती है. समुदाय के बहुत से लोग मानते हैं कि माहवारी से गुज़र रही महिलाओं और विधवाओं के लिए फाग गाना वर्जित है.
यहां रूबसी देवी की आवाज़ में जिन फागों की रिकॉर्डिंग हुई हैं उनकी उत्पत्ति उत्तराखंड के चंपावत ज़िले में हुई मानी जाती है. वे विदाई समारोह, अर्थात जब नवविवाहिता अपने माता-पिता का घर छोड़ती है, उस समय गाए जाते हैं. इनमें अपनी बेटी को विदा करते माता-पिता और उन्हें छोड़कर अपने ससुराल जाने वाली वधू की शोकाकुल मन:स्थिति बयान होती है. शृंखला के अंतिम फाग में पूरी कहानी के समापन का चित्रण किया गया है, जब वधू विवाह के बाद बारातियों के साथ अपने ससुराल पहुंचने वाली होती है.
पारंपरिक विवाहों का स्थान लेते नए वैवाहिक समारोहों के कारण रूबसी के लिए अब फाग गाने के मौक़ों में कमी आ रही है. अब उनका ज़्यादातर समय अपने मवेशियों के लिए चारा इकट्ठा करने, किचनगार्डन (रसोई के लिए उपयोगी साग-सब्ज़ियां) का रखरखाव करने और घर के कामकाज संभालने में बीतता है.
लिखित रूप में कहीं सहेजे न होने के कारण, फागों को स्मृतियों के सहारे वाचिक परंपरा में सिखाया जाता है, और इसी तरह पिछली पीढ़ी से अगली पीढ़ी में हस्तांतरित होती हैं. “अब हमारी औलादें इसे सीखेंगी और इस लोकपरंपरा को जीवित रखेंगी. अगर वे फाग नहीं गाएंगी, तो एक दिन यह परंपरा ग़ायब हो जाएगी.”
संतोषी कुंवर द्वारा गाया गया पहला फाग
कुमाऊंनी
कसकै झूलो विरान मुलक,
आज छोड़ि ईजा मैले तेरी कोख, बाबा क देश.
मेरि कोख ल तू उत्पन्न है रे,
स्वामि कुल में हिल-मिल रए.
हिंदी अनुवाद:
विवाहिता बेटी: कैसे मैं किसी वीरान मुल्क जाऊं री?
मां, आज तुम्हारी गोद-पिता की धरती छूट रही
मां: तुमको अपनी कोख से जना है मेरी
तुम दोनों को ख़ुशी मिले ये दुआ हमेशा मेरी.
रूबसी देवी, चंद्रा देवी, तारा देवी, कलावती देवी, चंद्रा, पुष्पा चंद और संतोषी कुंवर द्वारा गाया गया दूसरा फाग
कुमाऊंनी
काला धुरा काला लेक एकली न जानू!
मैं त जिया एकली न जानू
काला धुरा काला लेक अकेलि न लगूँ।
अधि बाटि हुन्ना बालि डोल रे नगारा,
वो पाछा सोल सौ बरयात
उति पाछा पिठी को भायालो।
हिंदी अनुवाद:
विवाहिता बेटी: अंधेरे-अनजान देस अकेले नहीं जाना
मां, मैं वहां अकेले नहीं जाना.
मां: मैं भी न चाहूं उस अजनबी देस
तू अकेले जाए,
पर तेरे ससुराल से लोग
ढोल-बाजे संग आधे रास्ते आए
साथ-साथ में ख़ूब बाराती भी आए.
रूबसी देवी, चंद्रा देवी, तारा देवी, कलावती देवी, चंद्रा, पुष्पा चंद और संतोषी कुंवर द्वारा गाया गया तीसरा फाग
कुमाऊंनी
लुक-लुक बाली कन्या; गाँव की मज्याली
तेरी आँछ सोल सौ बरयात।
एक पात्या कामली को गाँठ पाढ़ो बाबा;
झानू बाबा डोली कान हालि ल्योनु;
आ पुज्या धरम जमाई, आ पुज्या किसना अवतारी।
झानू-झानू भाया मेरा; भिना न्योति ल्यूनो,
भिना न्यूति जगिना बसाल।
सोल सौ बरयात में को हुन्या मेरा भिना?
मैं त दीदी पच्याणी न पाँ।
सिर होलो मोर रे मुकुट;
कर्ण होली ढाल तलवार।
दान हाथ होली छाता उन होला भाया भिना तमारा।
दियो-दियो बाबा मेरी धुली रे अरग।
बता-बता रुख बिना क्याको दान होलो?
धुलि अरग में क्या-क्या चीज चालो?
ताम दान होलो;
बाबा काँसो दान होलो।
सबह बड़ो कन्या दान होलो।
हिंदी अनुवाद:
गांववाले: जाओ, पारी छुपा जाओ, ओ गांव की प्यारी
तेरा दूल्हा आया.
दुल्हन: जेवर और कपड़े कंबल की पतली गठरी में दे दो
मुझको अब जाना है
मेरी डोली को अपने कंधे का सहारा दो बाबा
किशन का अवतारी तुम्हारा जंवाई आया है
दुल्हन: प्यारे भैया मेरे, अब मैं जाती हूं
अपने जिज्जा को मंडप में ले जाओ
भाई: इतने लोगों में जिज्जा कौन है मेरा?
मैं पहचानूं कैसे.
दुल्हन: वो हैं माथे जिनके मुकुट धरा मोरपंखी का
एक हाथ तलवार और दूजे में छाता है
बस, वही तुम्हारे जिज्जा हैं
बाबा, अब रिवाज़ों करो पूरे
इसके लिए सामान लगेंगे कौन से सारे?
पिता: कांस्य-ताम्र व बहुत सी चीज़ें
जाएंगी उपहार साथ.
पर सबसे अनमोल हमारी बेटी
का हाथ.
पारी एजुकेशन टीम इस स्टोरी में मदद के लिए रोहन चोपड़ा के प्रति अपना आभार प्रकट करती है.
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Editor's note
दीपिका बोरा और गायत्री बोरा, नानकमत्ता पब्लिक स्कूल में 12वीं कक्षा में पढ़ती हैं. दोनों ही अपने समुदाय की परंपराओं के बारे में जानने में गहरी रुचि लेती हैं.
गायत्री कहती हैं, “मैं अपनी दादी मां और उनकी सहेलियों के गाए फागों को सुनती हुई बड़ी हुई हूं, लेकिन मैं उन्हें धीरे-धीरे विलुप्त होता देखकर चिंतित भी हूं. इसलिए उन्हें दर्ज करना चाहती थी.”
अनुवाद: प्रभात मिलिंद
प्रभात मिलिंद, शिक्षा: दिल्ली विश्विद्यालय से एम.ए. (इतिहास) की अधूरी पढाई, स्वतंत्र लेखक, अनुवादक और स्तंभकार, विभिन्न विधाओं पर अनुवाद की आठ पुस्तकें प्रकाशित और एक कविता संग्रह प्रकाशनाधीन.