नियाज़ हुसैन अपने बेडरूम की दीवार पर एक नवजात शिशु की अधूरी पेंटिंग टांग रहे हैं.

जब तक वह यह काम करते हैं, उनकी बेग़म समीरा (बदला हुआ नाम) उनके पेंटिंग ब्रश और कलर पैलेट ले आती हैं. यह 29 साल का कलाकार ख़याल रखने वाली अपनी बेग़म के अलावा भी कई दूसरे सहारों पर निर्भर है. वह अपनी कुहनी तक की बैसाखियों और रबर के कैलीपर्स की मदद से खड़े होते और चलते हैं; फिर वह अपनी बैसाखियों को आहिस्ते से हटा देते हैं, ताकि वह आराम से चित्र बना सकें. जब नियाज़ पूरी तरह से अपने काम में सहज हो जाते हैं, समीरा कमरे से बाहर चली जाती हैं.

उन्हें इन सहारों की बहुत ज़रूरत है, क्योंकि अपनी ज़िंदगी का ज़्यादातर हिस्सा उन्होंने पोलियो, जिसे चिकित्सा विज्ञान में पोलियोमेलाइटिस भी कहते हैं, के साथ गुज़ारा है.

नियाज़, दिल्ली के जामिया नगर के इलाक़े में रहने वाले एक चित्रकार हैं, और अपनी शारीरिक अक्षमताओं के बावजूद वह बड़े और भव्य म्यूरल पेंटिंग्स बनाते हैं. उनके अनुसार वह साल्वाडोर डाली और मधुबनी चित्रकारों के कामों से प्रेरणा हासिल करते हैं.

अपनी बनाई पेंटिंग के साथ नियाज़ हुसैन. हालांकि, नियाज़ बॉल-पॉइंट क़लम से चित्रकारी करने में माहिर हैं, लेकिन उसके अतिरिक्त रंगों से पोट्रेट भी बनाते हैं. उनकी प्रेरणा के स्रोत स्पेनिश पेंटर सल्वाडोर डाली हैं. तस्वीरें: विकी रॉय

नियाज़ याद करते हुए कहते हैं, “एक बार मैंने 15 फुट ऊंची एक पेंटिंग बनाई थी. कैनवास के सबसे ऊंचे वाले सिरे तक पहुंचने के लिए मैंने अपने कैलीपर्स उतार दिए थे और कुर्सी पर बंधे एक स्टूल पर बैठ गया. उस वक़्त मुझे गिरने का थोड़ा भी डर नहीं हुआ. ऐसा कई बार होता है कि मेरे घुटने कैलीपर्स से छिलने लगते हैं, लेकिन जब मैं पेंट करता होता हूं, तो अपने ज़ख़्मों के बारे में भूल जाता हूं.”

वह एक 1993 की एक दुर्भाग्यपूर्ण रात थी, जब दो साल के नियाज़ बुख़ार की चपेट में आ गए थे. कुछ दिनों बाद ही उनका बायां पांव भीतर की तरफ़ मुड़ना शुरू हो गया. सही वक़्त पर ज़रूरी इलाज और देखभाल के अभाव में नियाज़ को आंशिक रूप से लकवा भी मार गया. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की साल 2021 की एक रिपोर्ट के अनुसार, यह कोई अजूबा घटना नहीं है कि पोलियो से संक्रमित 5 साल से कम उम्र के 200 बच्चों में से कोई एक बच्चा स्थायी रूप लकवाग्रस्त हो सकता है.

साल 1995 में पूरी दुनिया में पोलियो के कुल मामलों में से 60 प्रतिशत मामले अकेले भारत में पाए गए थे. बूंदों के ज़रिए दिए जाने वाले टीके 1960 के दशक से ही इस्तेमाल में आने लगे थे, लेकिन इस रिपोर्ट के मुताबिक़ ऐसे टीकाकरण का असर कम होने की वजह से पोलियो के मामलों में कोई कमी नहीं आई. मुंह के ज़रिए दी जाने वाली पोलियो की ख़ुराक की ईजाद होने के कोई दो दशक बाद भारत को इस बीमारी के उन्मूलन में कामयाबी मिली.

उत्तर प्रदेश के जौनपुर शहर में जहां नियाज़ की पैदाइश और परवरिश हुई, केंद्र सरकार का पल्स पोलियो टीकाकरण अभियान बड़े पैमाने पर चलाया गया था. उनकी अम्मी शहनाज़ बेग़म ने अपने शौहर ज़फर ख़ान और सास-ससुर को नियाज़ के टीकाकरण के लिए राज़ी करने की बहुत कोशिश की. वह बताती हैं, “लेकिन इसके अब्बा ने मेरी बात को अनसुना कर दिया, क्योंकि हमारे पड़ोस में एक बच्चा पोलियो ड्रॉप्स की ख़ुराक लेने के कुछ दिन बाद ही मर गया था. यह उन दिनों की बात है, जब जौनपुर में औरतों को अकेले कहीं आने-जाने की भी इजाज़त नहीं थी.”

साल 1993 की जिस रात नियाज़ को बुख़ार चढ़ा, शहनाज़ और उनके शौहर उनको लेकर जौनपुर के ज़िला अस्पताल भागे, जो उनके घर से तक़रीबन पांच किलोमीटर दूर था. शहनाज़ याद करती हुई कहती हैं, “डॉक्टरों ने बताया कि इसे पोलियो हुआ था, और कहा कि ‘उसके इलाज की वहां कोई व्यवस्था नहीं थी, हम उसे दिल्ली ले जाएं.” इसलिए उनका परिवार बेहतर इलाज की उम्मीद में साल 1993 में जौनपुर छोड़कर दिल्ली चला आया.

दिल्ली में नियाज़ को अनेक सरकारी अस्पतालों में दिखाया गया, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ. परिवार के सारे पैसे भी इस बीच ख़र्च हो गए और जैसा कि उन्होंने सोच रखा था, वे दोबारा जौनपुर लौटने की भी स्थिति में नहीं रहे. इसलिए उन्होंने दिल्ली में ही रहना तय किया और रोज़ी-रोटी के लिए वहीं काम भी ढूंढ लिया. शहनाज़ बताती हैं, “मैं और मेरे शौहर दिल्ली के गोविंदपुरी में एक टेलर की वर्कशॉप में काम करने लगे. हम लोगों को कपड़ों की गिनती के हिसाब से पैसे मिलते थे और सब मिलाकर हम किसी तरह महीने में तक़रीबन 2,500 रुपए कमा लेते थे.”

नियाज़ के बड़े होने के बीच भी उनकी अम्मी ने उनका इलाज बंद नहीं किया और घरेलू नुस्ख़े आज़माने लगीं. उन्हें विश्वास था कि इन इलाजों से नियाज़ एक दिन ठीक हो जाएंगे. नियाज़ बताते हैं, “अम्मा मेरे पैरों में रस्सी बांधकर उनमें ईंटें लटका देती थीं. जब मैं सो जाता था, तो वह इसका ख़याल रखती थीं कि ईंटें मेरी चारपाई के किनारों से लटकती रहें. ईंटों के वज़न से मेरे पांव रात भर सीधे रहते थे.” लेकिन उस दरम्यान उन्हें जिस भयानक दर्द की अनुभूति होती थी, उसकी लकीरें उनके चेहरे पर अब भी उभर आती हैं. ऐसा करने से उनके लकवे में तो सुधार ज़रूर हुआ, लेकिन उनके बाएं पैर की हालत पहले जैसी ही बनी रही.

नियाज़ आज भी इसी हाल में जी रहे हैं और उनके पास सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय का जारी किया हुआ प्रमाणपत्र है, जो इसकी तस्दीक़ करता है कि वह 90 फ़ीसदी अपाहिज हैं.


पहली दफा जब नियाज़ ने कैलीपर्स पहना था तो वे पांच साल के थे. “उन दिनों कैलीपर्स लोहे की छड़ों के बने आते थे जो कि बहुत वजनदार होते थे. उनका कुल वजन दो किलो होता था और कैलीपर्स पर लगे नीकैप्स से अक्सर मेरे कपड़े फट जाते थे,” वे कहते हैं.

शारीरिक और बहुत सी दूसरी दिक़्क़तों के बावजूद स्कूल ही वह पहली जगह थी जहां कला के प्रति नियाज़ का झुकाव हुआ. तस्वीर: वंदना बंसल

अपनी दयनीय शारीरिक स्थिति और अलग-अलग अस्पतालों में इलाज के लिए दौड़-भाग करने में ज़ाया हुए वक़्त की वजह से आख़िरकार जब श्रीनिवासपुरी के सरकारी प्राथमिक विद्यालय की पहली कक्षा में नियाज़ का दाख़िला कराया गया, तब वह सात साल के हो चुके थे. उस समय वह चल नहीं सकते थे और उन्हें उनकी अम्मी गोद में लेकर स्कूल पहुंचाती थीं. स्कूल के दूसरे बच्चों की तरह उन्हें भी वाशरूम जाना होता था. ऐसी हालत में उनकी अम्मी को उनकी मदद के लिए घर से बुलाया जाता था.

इन दिक़्क़तों के बावजूद स्कूल ही वह जगह थी जहां कला के प्रति नियाज़ की रुचि विकसित हुई. अपने स्कूल के दिनों को याद करते हुए वह कहते हैं, “मैं अक्सर सबसे अंतिम बेंच पर अकेला बैठा रहता था.” चौथी कक्षा में उन्होंने एक चित्रकला प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए आवेदन किया था, लेकिन उनका चयन नहीं हुआ. वह कहते हैं, “मैं समझ गया, मुझमें सुधार की ज़रूरत थी.”

फ़्रीलांसिंग के दिनों में नियाज़ और उनकी टीम द्वारा बनाई गई वाल पेंटिंग्स, जो दिल्ली उच्च न्यायालय के क़रीब दिखीं. तस्वीर: विकी रॉय

घर पर उनके अब्बा को उनकी बनाई पेंटिंग्स से दिक़्क़त थी. वह नियाज़ की पिटाई भी करते थे, क्योंकि उनकी नज़र में नियाज़ की पेंटिंग्स प्रतिनिधित्ववादी अथवा विषयबोधक थीं, जो इस्लाम के मुताबिक़ हराम और अस्वीकार्य था.

बहरहाल, पोलियो चार बच्चों में सबसे बड़ा होने की वजह से नियाज़ को ज़िम्मेदारियों को महसूस करने में कोई रुकावट पैदा नहीं कर सका, और स्कूल से निकलते ही उन्होंने अपने परिवार की मदद के लिए काम करना शुरू कर दिया. वह अपने चाचा के साथ ओखला मंडी में सब्ज़ियां बेचते थे और दिनभर में 200-250 रुपए कमा लेते थे. सुबह के समय मंडी में कमाए गए पैसे वह अपने परिवार को दे देते थे, और दिन में हुई कमाई को कला के प्रति अपनी लगन के सुपुर्द कर देते थे. नियाज़ी बताते हैं, “मुझे मंडी में काम करने वाले मज़दूरों और काम के बीच दोपहर में झपकियां लेते लोगों की तस्वीर बनाना बहुत अच्छा लगता था.” क़रीब 19 साल की उम्र में उन्होंने थोड़े अंतराल के लिए बतौर मेंहदी और टैटू कलाकार काम किया और फ़र्नीचर की दुकान में लकड़ियों पर नक्काशी और खुदाई का काम भी किया. इस काम ने उनके भीतर के शिल्पकार को जगाने का काम किया. वह अपनी बात स्पष्ट करते हैं, “मैंने जो कुछ भी किया, हमेशा इस बात को ध्यान में रखते हुए किया कि उसका संबंध मेरी कला से रहे.”

साल 2015 में, जब नियाज़ 23 साल के थे, तब उनका दाख़िला फ़ाइन आर्ट्स के एक पाठ्यक्रम के लिए दिल्ली के प्रतिष्ठित जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में हुआ. वहां से अपनी चार साल की पढाई पूरी करने के बाद उन्होंने एक निजी कंपनी के लिए इंडिया गेट, बहादुर शाह ज़फर मार्ग, और दिल्ली गोल्फ़कोर्स और उसके आसपास के इलाक़ों में फ़्रीलांस म्यूरल पेंटिंग्स बनाने का काम किया.

नियाज़, समीरा से पहली दफ़ा तब मिले, जब वह समीरा की बहन ममता के लिए शारीरिक रूप से अक्षम होने का प्रमाणपत्र बनवाने में उनके परिवार की मदद करने के इरादे से उनके घर गए थे. वह इस काम में लोगों की मदद करने अक्सर आसपास की झुग्गियों और बस्तियों में जाते थे. नियाज़ बताते हैं, “मैं श्रीनिवासपुरी में लोगों की छिटपुट मदद किया करता था और इसी सिलसिले में एक रोज़ समीरा से मेरी मुलाक़ात हो गई.” साल 2020 में, सात साल एक-दूसरे के साथ गुज़ारने के बाद दोनों ने शादी करने का फ़ैसला कर लिया. समीरा बताती हैं, “उन्होंने अंसल प्लाज़ा में एक फूल देते हुए अपने प्यार का इज़हार किया, और यह क़ुबूल किया कि वह मुझे पसंद करते हैं और मुझसे शादी करना चाहते हैं.”

नियाज़ अब अपनी बीवी, अब्बा-अम्मी, और तीन छोटे भाई-बहनों के साथ जामिया नगर में एक किराए के फ्लैट में रहते हैं. वह साल भर औसतन अपनी तीन-चार पेंटिंग्स बेच लेते हैं, जिनकी क़ीमत 30,000 रुपयों से लेकर 2.8 लाख रुपयों के बीच कुछ भी हो सकती है. उनके पास एक ग़ैर सरकारी संगठन (जिसका नाम बताने में वह अनिच्छुक दिखे) की पूर्णकालिक नौकरी भी है, जहां वह ग्राफ़िक डिज़ाइनर के बतौर काम करते हैं और कलात्मक शिल्प की स्थापना करते हैं. “महामारी का दौर मेरी कला के लिए हैरत-अंगेज़ रूप से बेहतर साबित हुआ. मैंने घर में रहते हुए अपनी नौकरी की और चित्रकारी करने के लिए मुझे काफ़ी वक़्त मिल गया. सिर्फ़ तीन महीने में ही मेरी छह पेंटिंग्स बिक गईं,” उनकी आवाज़ में संतोष की झलक सुनाई देती है, “मेरा मक़सद पैसा कमाना नहीं है. मैं अपना ख़ुद का एक नाम बनाना चाहता हूं. लोगों को ‘नियाज़ हुसैन’ के बारे में पता होना चाहिए.”

पारी एजुकेशन छात्रों को वंचित समुदायों पर लिखने के लिए प्रोत्साहित करता रहा है. शारीरिक अक्षमता से जूझते लोगों पर आधारित इस शृंखला को पुणे के तथापि ट्रस्ट ने अपनी मदद दी है. यदि आप इस आलेख को पुनर्प्रकाशित करना चाहते हैं, तो कृपया  zahra@ruralindiaonline.org पर मेल करें और इसकी एक कॉपी namita@ruralindiaonline.org पर भेज दें

Editor's note

वंदना बंसल, नई दिल्ली के ‘विवेकानंद इंस्टिट्यूट ऑफ़ प्रोफ़ेशनल स्टडीज़’ में पत्रकारिता और जनसंचार विभाग में अंतिम वर्ष की छात्र हैं. वह कहती हैं, “नियाज़ की ज़िंदगी पर लिखना एक चुनौतीपूर्ण काम था, क्योंकि उनका परिवार अपनी बहुत सी कड़वी यादों को भुला चुका था, और मुझे बहुत संभलकर इस कहानी को लिखने की ज़रूरत थी. संपादकीय प्रक्रियाओं ने मेरे भीतर सूक्ष्म जानकारियों को पत्रकारिता के नज़रिए से देखने का कौशल विकसित किया है. इस क्रम में मैंने सीखा कि शारीरिक अक्षमता से जूझते लोगों की कहानियों में कैसे दाख़िल होना चाहिए, ताकि उनकी अस्मिता की भी हिफ़ाज़त हो सके.” पारी में इससे पहले उनकी रपट ‘मैं ट्रांस पुरुष हूं और इसी पहचान के साथ जीना चाहता हूं’, नवंबर 27, 2021 को प्रकाशित हो चुकी है. अनुवाद: प्रभात मिलिंद प्रभात मिलिंद, शिक्षा: दिल्ली विश्विद्यालय से एम.ए. (इतिहास) की अधूरी पढाई, स्वतंत्र लेखक, अनुवादक और स्तंभकार, विभिन्न विधाओं पर अनुवाद की आठ पुस्तकें प्रकाशित और एक कविता संग्रह प्रकाशनाधीन.