शिक्षक दिवस पर, हम सरकारी स्कूल के चार शिक्षकों की बातों को साझा कर रहे हैं. ये शिक्षक महाराष्ट्र के पालघर और ठाणे के ज़िला परिषद स्कूलों में पढ़ाते हैं. लॉकडाउन के दौरान उन्होंने अपने छात्रों को पढ़ाना जारी रखा. ज़्यादातर छात्र ऐसे थे जो अपनी पीढ़ी के पहले ऐसे सदस्य हैं जो शिक्षा ले रहे हैं. इन छात्रों में दिहाड़ी मज़दूरों और भूमिहीन किसानों के बच्चे भी शामिल हैं.

राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण की 2017-18 की रिपोर्ट के अनुसार, महाराष्ट्र में केवल 18.5 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के पास इंटरनेट की सुविधा है. लेकिन, सहानुभूति और अपने व्यावहारिक ज्ञान का उपयोग करते हुए, ये शिक्षक कर्तव्य पूरा करने की दिशा में अपने सामान्य रूटीन से आगे बढ़कर काम करने लगे, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि उनके छात्र महामारी के दौरान पढ़ने से वंचित न रह जाएं. उन्होंने इन प्रोफ़ाइलों को तैयार करने वाली, बाल साहित्य की लेखक और शिक्षक, चतुरा राव से बात की.

रोहिणी डंडगे रात 8 बजे अपनी कक्षा शुरू करती हैं, क्योंकि इसी समय उनके छात्रों के पास स्मार्टफ़ोन उपलब्ध हो पाता है.

रेखा स्वामी, ऐसे छात्रों को जो अपनी पीढ़ी के शिक्षा लेने वाले पहले सदस्य हैं, और ख़ास तौर से प्रवासी दिहाड़ी मज़दूरों के बच्चों को अपनी कक्षा में शामिल करने की कोशिश करती हैं, जो लॉकडाउन के दौरान काम की तलाश में भटकने वाले अपने माता-पिता के साथ एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए मजबूर हैं.

राजन गरुड़ इस मुश्किल वक़्त में अपने छात्रों को फिर से हंसाने के लिए कठपुतलियों का सहारा लेते हैं.

मिथिला भोसले को नवी मुंबई की बस्तियों में रहने वाले अपने छात्रों के माता-पिता को इंटरनेट के दुरुपयोग के बारे में बताना पड़ा.

ज़िला परिषद स्कूल 1,06,237 सरकारी स्कूलों में से एक है, जो महाराष्ट्र के 15 मिलियन (1.5 करोड़) छात्रों को प्राथमिक शिक्षा प्रदान करता है. राज्य के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, इनमें से बड़ी संख्या में बच्चे ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं, जिनकी संख्या 77 प्रतिशत है


‘नीली रोशनी में मैं उनके छोटे चमकते हुए चेहरे देखती हूं’

रात के 8 बजे हैं और मैंने अभी-अभी अपनी क्लास शुरू की है.

रोहिणी, महाराष्ट्र के ठाणे ज़िले की शहापुर तालुका के बारा बांग्ला में स्थित ज़ेड.पी. प्राइमरी स्कूल में पढ़ाती हैं

मैं देखती हूं कि मेरी क्लास के 15 बच्चों में से केवल तीन बच्चे ही ऑनलाइन आए हैं. बारा बंगला गांव में इस समय बिजली नहीं है, इसलिए वे मुझे अंधेरे कमरों से बैठकर देखते हैं. जब मैं उनसे बात करना शुरू करती हूं, तब उनके भाई-बहन या माता-पिता बच्चे पर टॉर्च की रोशनी डालते हैं और नीली रोशनी में मैं उनके छोटे चमकते चेहरों को देखती हूं.

ये मेरा रात में चलने वाला स्कूल है – इसे चलाने की योजना मैंने इसलिए बनाई, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि कक्षा दो, तीन, चार, और पांच के हमारे छात्रों न छूट जाएं. मुझे खुशी है कि जिन्होंने नाम नहीं (नामांकन) लिखवाया था और जो अपने प्रवासी माता-पिता के साथ गांव वापस आए वे भी इस ज़िला परिषद स्कूल में शामिल हुए हैं.

सात से लेकर नौ साल की उम्र के बच्चे, महार और ठाकर आदिवासी परिवार से हैं; और उनके माता-पिता धान के खेत में दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं, निर्माण स्थलों और शहापुर की छोटी प्लास्टिक यूनिट में काम करते हैं. कुछ माता-पिता ठाणे में कचरा साफ़ करने और चुनने का काम करते हैं और बाक़ी दूसरे माता-पिता (ज़्यादातर महिलाएं) छोटी सी फ़ीस लेकर कसारा (बीके) में गैस सिलेंडर भरवाने का काम करते हैं, जो लगभग ढाई किलोमीटर दूर स्थित सबसे नज़दीकी क़स्बा है.

शहापुर तालुका का बारा बंगला गांव, मुंबई से 100 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम की दिशा में स्थित एक जंगली और पहाड़ी इलाक़ा है. यह उपनगरीय रेल नेटवर्क द्वारा मुंबई से जुड़ा हुआ है. मेरे स्कूल तक सिर्फ़ पैदल ही पहुंचा जा सकता है. यह कसारा स्टेशन से 20 मिनट की पैदल दूरी पर है. छह साल तक मैंने अपने घर टिटवाला से, लगभग 60 किलोमीटर दूर, कसारा (बीके) तक ट्रेन से सफ़र किया और फिर रेलवे ट्रैक से सटे एक रास्ते का इस्तेमाल करके बारा बंगला पहुंच जाती थी. अगर कोई रेलगाड़ी पहाड़ी से घूमकर आती थी, तो मैं पुल की रेलिंग से चिपक जाती थी, हवा और धूल से बचने के लिए अपनी आंखें बंद कर लेती थी, और उसके गुज़रने का इंतज़ार करती थी.

मार्च 2020 में लॉकडाउन शुरू होने पर मैंने यह सफ़र करना बंद कर दिया. इसके बजाय, मैंने रात में चलने वाला स्कूल शुरू किया!

मेरे छात्रों के माता-पिता दिन में काम की तलाश में रहते थे और वे अपना फ़ोन अपने साथ ले जाते थे. ऐसे में मेरे छात्रों के पास कोई भी डिजिटल डिवाइस मौजूद नहीं होते थे. यहां तक कि कुछ पिता तो कक्षाओं के लिए अपना फ़ोन नहीं देना चाहते थे. मैंने उन्हें मनाने की बहुत कोशिश की. एक बार जब वे फ़ोन देने के लिए तैयार हो गए, तो मैं अपनी कार से गांव गई, क्योंकि स्थानीय ट्रेन सेवाओं को लॉकडाउन की वजह से रोक दिया गया था, ताकि लोगों के सेल फ़ोन पर ज़ूम और दीक्षा ऐप इंस्टॉल करने और उन्हें इनका इस्तेमाल करने का तरीक़ा सिखा सकूं. [दीक्षा एक सरकारी प्लैटफ़ॉर्म है जो वीडियो, गीत, कविता, और नाटक के रूप में शिक्षण सामग्री उपलब्ध करवाता है.]

मैंने गांव के ऐसे युवा जिनके पास स्मार्टफ़ोन थे, उनका एक व्हाट्सऐप ग्रुप बनाया. मैंने उनसे अनुरोध किया कि वे अपना फ़ोन मेरे छात्रों को हर दिन एक घंटे के लिए दे दें. चूंकि उनके पास करने के लिए काम बहुत कम था, इसलिए वे आसानी से मान गए.

समय के साथ, मैंने अपनी कक्षाओं में पढ़ाने के लिए कई तरह के साधनों का इस्तेमाल किया. मैं प्रिंट मैटेरियल को स्कैन करके, कक्षा के व्हाट्सएप ग्रुप पर भेजती थी. मैंने महाराष्ट्र शिक्षक पैनल और शहापुर अध्यापक शिक्षा विकास जैसे टेलीग्राम ग्रुप पर पढ़ने के रिसोर्स भी भेजे, जो जुनूनी शिक्षकों द्वारा चलाए जाने वाला एक वॉलंटियर तौर पर चलने वाला ग्रुप है.

मैं अपनी कक्षा के व्हाट्सऐप ग्रुप पर मैसेज भेजती हूं और कुछ छात्रों को फ़ोन भी करती हूं. जैसे-जैसे छात्र ऑनलाइन क्लास में आते हैं, मैं अपनी स्क्रीन पर गाने और वीडियो साझा करना शुरू कर देती हूं, ताकि इंतज़ार में बैठे बच्चे इनका आनंद उठा सकें. मैं उन्हें वारली पेंटिंग, अच्छी रुचियों, और प्लास्टिक के कचरे के ख़तरों के बारे में लघु वीडियो दिखाती हूं.

लगभग 10 मिनट में, मेरी कक्षा के सारे बच्चे ऑनलाइन आ जाते हैं. कुछ बच्चे जोड़े में साथ बैठे हैं, और फ़ोन साझा कर रहे हैं. कुछ बच्चे गांव के सामुदायिक केंद्र, समाज मंदिर में किसी बड़े लड़के और लड़की के साथ बैठे हैं, जिन्होंने कक्षा में शामिल होने के लिए अपना फ़ोन दिया है.

मैं कक्षा 5 के बच्चों को सरकारी स्कॉलरशिप परीक्षा के लिए गाइडबुक से एक एक्सरसाइज़ पर काम करने के लिए कहती हूं. मैं कक्षा 4 के छात्रों से एक कविता याद करने के लिए कहती हूं. उन्हें 20 मिनट के बाद कक्षा में कविता सुनानी होगी.

जब मुझे बोर्ड का इस्तेमाल करने की ज़रूरत होती है, तो मैं अपने फ़ोन को किताबों के ढेर के सामने खड़ा कर देती हूं और नंबर बॉन्ड और प्लेस वैल्यू समझाती हूं. मैं घबराने वाले बच्चों के नाम ज़्यादा पुकारती हूं, और उन्हें प्रश्न पूछने के लिए कहती हूं. बाक़ी बच्चे कमेंट करते हैं, पूछते हैं, और स्वतंत्र रूप से चर्चा करते हैं, और जैसे-जैसे समय बीतता है, कक्षा जीवंत हो जाती है.

जब छात्र नई कविता सुनाने के लिए स्क्रीन पर लौटते हैं, तो उन्हें बाक़ी कक्षा से तालियों की गड़गड़ाहट मिलती है. रात 9 बजे तक मैं थक जाती हूं, लेकिन खुश हूं. हम एक-दूसरे को गुड नाइट कहकर, लॉग आउट कर लेते हैं.

बारा बंगला जैसी जगह पर पढ़ाना कभी आसान नहीं था. गांव को हफ़्ते में एक बार ही पानी मिलता है, इसलिए स्कूल में न तो शौचालय है, न नल हैं, और न ही पीने का पानी मौजूद है. निकटतम शौचालय कसारा स्टेशन पर है, इसलिए मैं अपने सफ़र के दौरान बहुत कम पानी पीती हूं.

जब मैंने पहली बार 2014 में यहां पढ़ाना शुरू किया था, तब आठ बाय आठ फ़ीट के किराए के एक कमरे में स्कूल चलता था. चौदह बच्चों (कक्षा एक से पांच तक), मेरे एक सहकर्मी, और मैंने इस जगह को किताबों, स्टेशनरी के सामान, वर्णमाला और गिनती सीखने वाले चार्ट्स और अक्षर का उच्चारण करती आवाज़ों और पाठों के बीच होती हंसी और बकबक से भर दिया.

गांव के कई बच्चे हमारा स्कूल छोड़कर, कसारा (बीके) स्थित स्कूल चले जाते थे. जब मैंने दिलचस्प तरीक़े से चीज़ें सीखनी शुरू की, तो हमारे साथ 15 और बच्चों ने दाख़िला लिया, जिससे हमें एक बड़ी जगह लेने की ज़रूरत पड़ गई थी.

गांव के लोगों ने पैसे, मैटेरियल, और बिना मजूरी के श्रमदान के रूप में अपना योगदान दिया. हम शिक्षकों ने मिलकर सारी मदद इकट्ठा की और पैसों का योगदान किया. बिना बाड़ वाली एक ज़मीन के टुकड़े पर ईंट का एक कमरा बनाया गया और प्राथमिक छात्रों के लिए यही स्कूलघर बन गया. यह मोखावाने ग्राम पंचायत के सदस्यों और वन विभाग के लोगों के बीच हुए एक अनौपचारिक समझौते के तहत वन-भूमि पर बनाया गया है. हम आसानी से पैसे जुटाकर शौचालय बनवा सकते थे, मगर वन विभाग इस जगह को वापस मांग लेता, तो हमें सब हटाना पड़ता.

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‘मुझे उम्मीद है कि उनमें सीखने की दिलचस्पी बनी रहेगी’

मैं टीएपीएस (तारापुर परमाणु ऊर्जा स्टेशन) कॉलोनी, पालघर में स्थित ज़िला परिषद स्कूल में कक्षा दो के छात्रों को पढ़ाती हूं. आदिवासी, अहीर, और मराठा समुदाय के ज़्यादातर बच्चे, जिनकी उम्र 7 साल है वे घर में अलग-अलग भाषाएं बोलते हैं. मेरे छात्रों में उत्तर प्रदेश और बिहार के बच्चे भी शामिल हैं. ये बच्चे हिंदी और भोजपुरी बोलते हैं. मेरे छात्रों के माता-पिता, बोईसर इलाक़े में स्थित इंड्रस्ट्रियल यूनिट में मज़दूरी करते हैं. इनमें से कुछ लोग पेशेवर नहीं हैं या फिर बिना किसी ट्रेनिंग के काम करते हैं.

रेखा, महाराष्ट्र के पालघर ज़िले के पालघर तालुका के पस्थल गांव में स्थित टीएपीएस कॉलोनी के ज़िला परिषद स्कूल में पढ़ाती हैं.

मार्च 2020 में, जब देश में पूरी तरह से लॉकडाउन लग गया था, तब मज़दूरों के कुछ बच्चे अपने माता-पिता के साथ अपने-अपने गांव वापस चले गए थे. किसी शिक्षक का अपने छात्रों के साथ संपर्क में रहना बहुत मायने रखता है, क्योंकि छात्र जानते हैं कि उनका शिक्षक उनके बारे में बेहतर सोचता है. माता-पिता भी छात्रों के प्रति शिक्षक की चिंता को जानते हैं. यही वजह है, जो बच्चों और उनके माता-पिता को स्कूली शिक्षा जारी रखने के लिए प्रेरित करती है.

इस दौरान, मेरी सबसे बड़ी चुनौती थी अपने छात्रों की स्कूल के काम में दिलचस्पी बनाए रखना. सबसे ज़्यादा चुनौती शिक्षा पाने वाले ऐसे छात्रों के लिए थी जो अपने परिवार की पहली पीढ़ी थे जिन्हें शिक्षा मिल रही थी. मुझे विशेष रूप से उन बच्चों की चिंता थी जिनके पास स्मार्टफ़ोन नहीं है या फिर जो उत्तर प्रदेश और बिहार वापस चले गए हैं और जिन बच्चों के माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ाई में मदद करने के लिए शिक्षित नहीं है. मुझे उम्मीद है कि पढ़ने में उनकी दिलचस्पी बनी रहेगी और जब वे वापस आएंगे, तो कक्षा 3 में उनका दाख़िला आसानी से हो जाएगा.

महामारी से पहले भी मैंने एक व्हाट्सऐप ग्रुप बनाया था, जिसमें 14 बच्चे व्हाट्सऐप के ज़रिए जुड़े थे, वहीं 6 बच्चे मैसेज के माध्यम से मुझसे जुड़े थे. इसके बावजूद, जब लॉकडाउन लगाया गया, तो मुझे पता था कि इन बच्चों के लिए पढ़ना-लिखना मुश्किल होगा. अगर किसी परिवार में एक स्मार्टफ़ोन होता है, तो ज़्यादातर उसका इस्तेमाल परिवार के बड़े बच्चे करते हैं. इसके अलावा, कुछ ही ऐसे परिवार हैं जो लगातार इंटरनेट का ख़र्च उठा सकते हैं.

अपने छात्रों की पढ़ाई न रुके, इसके लिए मैंने प्लान बनाया. सबसे पहले मैंने अपने छात्रों को पढ़ने के लिए प्रिंट किए हुए पेजों की फ़ोटो भेजी. इसके बाद, छात्रों को सवाल भी भेजे. छात्रों ने इन सवालों का जवाब पेज पर लिखा, फिर उसकी फ़ोटो खींचकर मुझे भेज दी. हालांकि, बाद में मैंने गूगल फ़ॉर्म और टेस्टमोज़ नाम के ऐप्लिकेशन का इस्तेमाल करना शुरू किया, जिसमें छात्रों के लिए बहुविकल्पी टेस्ट बनाए थे. छात्र जब अपने जवाब सबमिट कर देते थे, तो उनके स्कोर यहां पर दिखते थे. यह तरीक़ा छात्रों के साथ-साथ उनके माता-पिता के लिए भी रोचक था.

मैंने शिक्षा से जुड़े यूट्यूब वीडियो पोस्ट करना शुरू कर दिया, ताकि बच्चे ऐसे वीडियो देख सकें. हालांकि, मुझे पता चला कि मेरी कक्षा के 20 बच्चों में से सिर्फ़ आधे बच्चे ही वीडियो देख पाए, क्योंकि बाक़ी बच्चों के माता-पिता के पास इतने पैसे नहीं थे कि वे इंटरनेट का ख़र्च उठा सकें. यूट्यूब पर अपलोड किए गए वीडियो के साथ एक और समस्या थी कि छोटे-छोटे बच्चे अक्सर शर्मीले स्वभाव के होते हैं या फिर अजनबियों से घबराते हैं. इसके अलावा, हो सकता है अजनबी शिक्षकों वाले वीडियो देखते समय इन बच्चों का ध्यान आस-पास हो रही चीज़ों की वजह से भटक जाए. मुझे पूरा यक़ीन था कि पढ़ने के दौरान वे बच्चे मेरे साथ सहज महसूस करेंगे, क्योंकि वे मेरे चेहरे और आवाज़ को पहले से ही पहचानते हैं. इसलिए, मैंने अपने बच्चों का पुराना ब्लैकबोर्ड निकाला, उसे एक स्टैंड पर सेट किया, और एक्सरिकॉर्डर नाम के ऐप्लिकेशन का इस्तेमाल किया. कुछ वीडियो बेहद साधारण तरीक़े से बनाए गए थे, जैसे कि ब्लैकबोर्ड पर चॉक का इस्तेमाल करके, अपनी आवाज़ में बच्चों को विषय के बारे में समझाने की कोशिश करते हुए.

भाषाओं वाले वीडियो थोड़े अलग थे. जैसे कि मान लीजिए, मैंने ‘छोटे चित्रकार’ या ‘द स्मॉल पेंटर्स’ नाम की कहानी ली. यह कहानी प्रथम स्टोरीवीवर किताब से ली गई थी. इसमें मैंने अपनी तरह से कहानी के बारे में बताया. साथ ही, कहानी के आधार पर सवाल भी पूछा. मैंने कक्षा दो की मराठी टेक्स्टबुक से तितलियों की कविता के ऊपर 1-2 मिनट का वीडियो बनाया. इस वीडियो में प्रकृति में घूमती तितलियों का वीडियो था, जिसमें बच्चे की आवाज़ में कविता का पाठ सुनाई देता है. दरअसल, यह आवाज़ मेरी थी. बच्चे की तरह आवाज़ लगाने के लिए, मैंने काइनमास्टर नाम के ऐप्लिकेशन का इस्तेमाल किया. इसका फ़ायदा यह हुआ कि बच्चों को प्रकृति और उसके रंग के बारे में समझाने में काफ़ी मदद मिली.

कई माता-पिता ने अपने बच्चों के साथ वीडियो देखे. कुछ लोगों ने मुझसे पूछा कि क्या बच्चे को ट्यूशन पढ़ाने वाले शिक्षक इन वीडियो का इस्तेमाल पढ़ाने के लिए कर सकते हैं, तो मैंने तुरंत ट्यूशन पढ़ाने वाले शिक्षकों को अपनी कक्षा के व्हाट्सऐप ग्रुप में शामिल कर लिया. आज भी मैं उनके संपर्क में हूं और मुझे लगा कि यह मेरे छात्रों तक पहुंचने का एक अच्छा तरीक़ा है.

मैं हरिजन पाड़ा में पढ़ाती थी. ज़्यादातर छात्र सुबह आस-पास के खेतों और फलों के बाग़ों में काम करते थे और दोपहर में ही स्कूल आ पाते थे. वे अपने छोटे भाई-बहनों को साथ लाते थे और सभी बच्चों को संभालने का काम मेरा था. एक ही कमरे में कक्षा एक से पांच तक के छात्र-छात्राएं शामिल थीं. मैं उन बच्चों को वारली और मराठी भाषा मिलाकर पढ़ाया करती थी. लगभग ऐसा ही तब भी था, जब शिक्षक के तौर पर मेरी पहली पोस्टिंग दहानू के आदिवासी गांव, आदिवासी पाड़ा में स्थित ज़िला परिषद स्कूल में हुई थी. मैं घर-घर जाकर बच्चों को ले आती या वे खुद भी आते. तब मुझे एहसास हुआ कि एक शिक्षक के तौर पर मेरा कितना योगदान है.

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कठपुतली, पहेलियां, अभिनय, और तस्वीरों से जुड़े क्विज

मैं सफाले में स्थित ज़िला प्राथमिक विद्यालय के कक्षा 3 और कक्षा 4 के छात्रों को पढ़ाता हूं. मेरे लगभग 60 प्रतिशत छात्र, खेती पर निर्भर इस जगह के किसान परिवारों से हैं. उनमें से अधिकांश अपनी ख़ुद की ज़मीन पर खेती करते हैं और कई माता-पिता काम के लिए मुंबई जाते हैं.

राजन, महाराष्ट्र के पालघर ज़िले के उंबर पाड़ा नांदेड़ में कर्दल के ज़ेड.पी. स्कूल में पढ़ाते हैं.

लॉकडाउन की शुरुआत में मैंने महसूस किया कि बच्चों के साथ जुड़े रहना ज़रूरी है. मैंने बच्चों के माता-पिता को फ़ोन किया और उनको बताया कि फ़ोन में ज़ूम ऐप्लिकेशन को कैसे इंस्टॉल करते हैं और कैसे इस ऐप्लिकेशन का इस्तेमाल किया जाता है. हमने लॉकडाउन शुरू होने के 7 दिन बाद, 1 अप्रैल, 2020 को ऑनलाइन कक्षाएं शुरू कर दीं.

कोविड -19 संकट के उन शुरुआती दिनों में माहौल इतना गंभीर और चिंताजनक था कि बस मैं चाहता था कि मैं अपने छात्रों से किसी तरह मिलने की एक जगह बना सकूं. इसलिए, मैंने पाठ्यक्रम से जुड़ी हुई किसी चीज़ को पढ़ाना शुरू नहीं किया. इसके बजाय, मैंने अपने कुछ कलाकार दोस्तों को बच्चों से मिलने के लिए बुलाया. दोस्तों ने ऑनलाइन कक्षा में बच्चों को कठपुतलियों का खेल दिखाया. इस तरह की गतिविधियों के ज़रिए, धीरे-धीरे बच्चों का ध्यान कोविड-19 की परेशानियों से हटना शुरू हो गया. मैंने स्क्रीन शेयर करके, टेक्स्ट और इमेज के ज़रिए बच्चों के साथ जुड़ना शुरू कर दिया. बच्चों ने भी काफ़ी उत्साह दिखाया. उन्होंने अपने अनुभवों को शेयर किया. एक तरह से कह सकते हैं कि वे स्कूल की कक्षाओं में एक घंटे में जो सीखते थे उतना ही वे एक तस्वीर के ज़रिए सीख रहे थे.

मैंने बच्चों की टेक्स्टबुक से तस्वीरों का इस्तेमाल किया. इन तस्वीरों के साथ ऐसे लेख भी होते थे जिन्हें बच्चों को याद करना था. हालांकि, मैंने उन्हें सीधे इन्हें लिखने के लिए नहीं कहा. मैंने उन बच्चों को कहा कि उन्होंने जो देखा उसके बारे में लिखें. चीज़ों को पहचानकर उनके बारे में सही तरह से लिखने के लिए, मैंने उन चीज़ों के बारे में पूरी जानकारी दी. मान लीजिए कि अगर शब्द होता था ‘घड़ी’, तो मैं छात्रों से पूछता था कि कक्षा कितने बजे शुरू होती है? स्कूल की टाइमिंग क्या है, जिसे इन दिनों हम फ़ॉलो नहीं कर पाते? सवालों और पहलियों के ज़रिए, मैंने उनको समय और घड़ी के बारे में बहुत कुछ बताया. इसका फ़ायदा यह हुआ कि वे घड़ी और समय के बारे में ज़्यादा सीख पाए. इस तरह, उनको घड़ियों के समय से जुड़े गणित को समझने में आसानी हुई. जैसे, घड़ी में कितने घंटे होते हैं, कितने मिनट होते हैं या फिर कितने सेकंड होते हैं.

मैंने विज्ञान से जुड़ी पहेलियों का भी इस्तेमाल किया. इसके अलावा, उन पेजों को भी शेयर किया जो मेरे पास थे. बच्चे इस पर चर्चा करते थे कि उन्होंने क्या देखा और उसके बारे में पता लगाने की कोशिश करते थे. बाद में, मैं विषय के बारे में और भी जानकारी देता था. लॉकडाउन से पहले मैं बोलकर पढ़ाता था – इससे बच्चों को नहीं पता होता कि मैं पढ़ा रहा हूं या फिर खेल रहा हूं! संवाद के ज़रिए सीखने के लिए, बच्चे अक्सर एक-दूसरे को पढ़ाते थे. हालांकि, ऐसा करते हुए सिर्फ़ मैं उन बच्चों को निदेश देता था.

इसके पीछे एक इतिहास है. 12 साल पहले, हाई स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद, मैंने डिप्लोमा इन एजुकेशन (डी.एड) प्रवेश परीक्षा दी थी. परीक्षा सिर्फ़ इसलिए दी थी, ताकि अपने दोस्त के साथ रह सकूं. बाद में जब मुझे एहसास हुआ कि ऐसा करने से मुझे कुछ भी हासिल नहीं होगा, तो मैंने स्टेज और स्क्रीन पर आने के अपने सपने को किनारे किया और पूरी शिद्दत से जुट गया कि मैं एक अच्छा शिक्षक बनूंगा. बाद में, मैंने अच्छे से डिप्लोमा इन एजुकेशन (डी.एड) कोर्स पूरा किया.

एक शिक्षक के तौर पर, मेरी पहली पोस्टिंग पालघर तालुका के खोरिचापाड़ा नाम के गांव में हुई थी. मेरे छात्र सिर्फ़ वारली भाषा बोलते थे.

साल 2009 का मानसून का सीज़न चल रहा था. स्कूल, जंगली पहाड़ियों और हरे-भरे खेतों से घिरा हुआ था. स्कूल, वैतरणा जलाशय के ठीक सामने बना हुआ था. जब मेरी पहली पोस्टिंग हुई थी, तो मैं 21 साल का था. मैं मुंबई में पैदा हुआ था और यहीं पला-बढ़ा था. लेकिन मैंने आज तक ऐसे नजारे नहीं देखे थे. देखा भी था, तो सिर्फ़ फ़िल्मों में.

खोरिचापाड़ा बहुत दुर्गम इलाक़े में पड़ता था और मुझे तनख़्वाह के तौर पर हर महीने सिर्फ़ 3,000 रुपए मिलते थे, इसलिए, मैंने स्कूल परिसर में अपना घर बना लिया. मैं सुबह 8 बजे स्कूल में पढ़ाना शुरू कर देता था, लेकिन स्कूल बंद होने का कोई समय नहीं था. यहां तक कि बच्चे रात का खाना खाने के बाद भी स्कूल में रहते थे.

चूंकि मैं प्रशिक्षित एक्टर था और हर भाषा सीखने के लिए तैयार रहता था, तो मुझे बच्चों की भाषा सीखने में सिर्फ़ 2 हफ़्ते लगे. अगले 12 सालों में, मैंने द्विभाषी कहानियां तैयार कीं, वारली-मराठी डिक्शनरी तैयार की, साथ ही, एक वर्णमाला की एक किताब प्रकाशित की. इस वर्णमाला में “अ” मराठी के अनानास [अनार] के लिए नहीं, बल्कि वारली भाषा के अनुना [कस्टर्ड सेब] के लिए है. मुझे भरोसा है कि यह वर्णमाला, पढ़ने-लिखने वाले युवा आदिवासी बच्चों के लिए बहुत कारगर होगी और भाषा की वजह से पढ़ाई में आनी वाली दिक़्क़तों को दूर करेगी.

कक्षा में मेरे पढ़ाने का तरीक़ा कुछ इस तरह था कि मैं हर बच्चे पर नज़र रख सकूं. इसका फ़ायदा यह हुआ कि मैं आसानी से पता कर पाया कि कक्षा में कौन सा बच्चा पढ़ने में अच्छा और कौन सा बच्चा कमज़ोर है. मैंने ख़ास तौर पर कमज़ोर बच्चों पर ध्यान दिया. एक बार जब पढ़ाई में कमज़ोर बच्चे, कक्षा में दूसरे बच्चों के स्तर पर आ जाते थे, तो इससे कक्षा में पढ़ने-लिखने का माहौल बहुत अच्छा हो जाता था. इस तरह से कक्षा में सभी बच्चे एक साथ सीखते हुए आगे बढ़ते थे.

मार्च 2020 में जब पहली बार लॉकडाउन लगाया गया, तब से मैं लगभग अपने सभी 58 छात्रों के संपर्क में हूं. मैं अक्सर उनके माता-पिता को फ़ोन करके पूछता हूं कि उनके बच्चों की पढ़ाई कैसी चल रही है. हाल ही में एक ऑनलाइन कक्षा में, स्वभाव से शर्मीले छात्र वेदांत ने पूछा, “सर, हमारा स्कूल कब शुरू होगा? कब हमें आमने-सामने मिलने और पूरा दिन एक साथ बिताने का मौका मिलेगा?” एक छात्र की तरफ़ से मासूमियत से पूछे गए इस सवाल ने मुझे खुशी का एहसास कराया. मुझे गर्व हुआ कि मैं एक शिक्षक हूं.

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नवी मुंबई की झुग्गी बस्तियों में पढ़ाना

मैं नवी मुंबई की झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले बच्चों को पढ़ाती हूं. वे पैसे और बेहतर जीवन शैली के अभाव से घिरे हुए हैं. मैं 20 साल से नवी मुंबई नगर निगम स्कूल में मिडिल स्कूल के बच्चों को पढ़ा रही हूं.

मिथिला, महाराष्ट्र के ठाणे ज़िले के नवी मुंबई-यूआरसी 1 ब्लॉक के सानपाड़ा में स्थित एनएमएमसी स्कूल नंबर 18, सेक्टर 5 में पढ़ाती हैं

अप्रैल 2020 में जब पूरे देश में लॉकडाउन हो गया, तो झुग्गियों में रह रहे बच्चों और उनके परिवारों पर अचानक और गंभीर संकट आन पड़ा था. उनके माता-पिता ऑटो रिक्शा चालक, घरेलू सहायक, सब्ज़ी और फल विक्रेता के रूप में, और वाशी में कृषि उपज बाज़ार (एपीएमसी) में मज़दूर के रूप में काम करते रहे हैं. रातोंरात उनकी रोज़ी-रोटी चली गई और पूरा परिवार अपने गांवों के लिए निकल गया.

हर कोई खाने के लिए संघर्ष कर रहा था और उनके पास इंटरनेट कनेक्शन लेने के लिए पैसे नहीं थे, जिससे उनके बच्चे अपनी शिक्षा ऑनलाइन जारी रख सकें.

जुलाई के बाद कुछ माता-पिता गांव से वापस आए और काम की तलाश करने लगे, लेकिन वे अपने बच्चों को गांव में ही छोड़ आए थे. इसलिए परिवार का स्मार्टफ़ोन अब बच्चों के लिए उपलब्ध नहीं था, क्योंकि उनके माता-पिता इसे अपने साथ काम करने के लिए ले जाते थे. माता-पिता चाहते थे कि उनके बच्चे पढ़ाई करें, लेकिन उनके पास डिवाइस दिलाने के लिए पैसे नहीं थे. मैंने अपने उपकरण – दो स्मार्टफ़ोन और एक टैब – उन छात्रों को दिए, जिन्हें ऑनलाइन कक्षाओं में शामिल होने के लिए इनकी ज़रूरत थी. मेरे सहयोगियों ने भी इससे प्रेरित होकर छात्रों के बीच अपने उपकरणों को बांटा. अपनी कॉर्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी (सीएसआर) के तहत, अमेज़न ने इन्हें रिचार्ज करने में मदद की.

मैंने कक्षा 7 के अपने 90 छात्रों के लिए पीडीएफ़ और वीडियो के रूप में स्टडी मैटेरियल पोस्ट किया. वे गूगल फ़ॉर्म में प्रश्नों के उत्तर देने में माहिर हो गए. मैंने दीक्षा के वीडियो को गूगल फ़ॉर्म के साथ जोड़ (एम्बेड) दिया. दीक्षा एक सरकारी प्लैटफ़ॉर्म है और स्टडी मैटेरियल उपलब्ध करवाता है. छात्र इन रिसोर्स के ज़रिए पढ़ने लगे और फिर मुझे अपने उत्तर भेजते थे.

जैसे ही माता-पिता ने फ़ोन की व्यवस्था की, बच्चों ने फ़ेसबुक, यूट्यूब, और अन्य प्लैटफ़ॉर्म का इस्तेमाल करके टिकटॉक के लिए वीडियो बनाना शुरू कर दिया. कई माता-पिता इस बात से एकदम अनजान थे कि उनके बच्चे फ़ोन मिलने पर उसका कैसा इस्तेमाल कर रहे थे. मैंने कई बच्चों के माता-पिता को कॉल किया और उनके साथ मीटिंग करने के लिए ज़ूम ऐप डाउनलोड करने में उनकी मदद की. मैंने उनसे निवेदन किया कि वे इस बात पर ध्यान दें कि उनके बच्चे फ़ोन के साथ असल में कर क्या रहे हैं.

मैंने उन्हें पढ़ाने के लिए 15 से अधिक वीडियो बनाए, ताकि उन्हें यह महसूस हो कि मेरे द्वारा कक्षा में पढ़ाया जा रहा है. मैंने हर पाठ पर आधारित लगभग एक-पंक्ति वाले 15 प्रश्न और उत्तर तैयार किए, इन्हें प्रिंट करवाया, और जब उनके माता-पिता मासिक राशन लेने के लिए स्कूल आए, तो उन्हें दे दिया.

मेरे छात्रों के माता-पिता देर शाम को काम से घर वापस लौटते थे, इसलिए मैंने अपनी दिन की ऑनलाइन कक्षाओं को शाम 7 बजे के बाद रखना शुरू कर दिया, क्योंकि उस वक़्त सभी छात्रों के पास फ़ोन होने की संभावना ज़्यादा होती थी.

कई बच्चे ऐसे टूट चुके परिवारों से ताल्लुक़ रखते हैं जहां माता-पिता में से कोई एक घर छोड़ चुका है; और ये बच्चे अपनी उम्र से पहले ही बड़े हो गए. मैं उनकी समस्याओं की जड़ में जाने की कोशिश करती हूं. उनमें से कई मुंबई जाकर एक्टर या डांसर बनने का सपना देखते हैं और मैं उन्हें ज़्यादा वास्तविक और स्थिरता देने वाले करियर विकल्पों पर ध्यान केंद्रित करवाने की कोशिश करती हूं. मैं चाहती हूं कि मेरे छात्र सूझ-बूझ से काम लेने वाले इंसान के तौर पर तैयार हो सकें.

मेरे कई छात्र अब बड़े हो गए हैं और अलग-अलग क्षेत्रों – पार्सल और कूरियर सेवाओं, बैंकों में, नर्सों के रूप में, और बिल्डरों के कार्यालयों में काम करते हैं. उनमें से कुछ कंप्यूटर भी पढ़ाते हैं, और कुछ ने अपना छोटा बिज़नस शुरू किया है, जैसे पाव भाजी की दुकान और जूस सेंटर.

पढ़ाना (अध्यापन) पेशा नहीं है, यह एक सेवा है. मेरे दादाजी कहा करते थे, “एक आदर्श शिक्षक बनने की कोशिश करने के बजाय, एक ईमानदार शिक्षक बनो.” मेरा उद्देश्य हमेशा एक ईमानदार शिक्षक बनना रहा है.

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नोट: इस स्टोरी में शामिल शिक्षक महाराष्ट्र के चंद्रपुर, गढ़चिरौली, पालघर, नासिक, ठाणे, और मुंबई ज़िलों में, कम आय वाले स्कूलों के शिक्षकों के लिए सीईक्यूयूई (CEQUE) के प्रोफ़ेशनल डेवलपमेंट प्रोग्राम का हिस्सा थे. पारी एजुकेशन, CEQUE – सेंटर फ़ॉर इक्विटी एंड क्वालिटी इन यूनिवर्सल एजुकेशन – को इन कहानियों को साझा करने के लिए धन्यवाद देना चाहता है.

Editor's note

चतुरा राव, बेंगलुरु के सृष्टि-मणिपाल इंस्टीट्यूट ऑफ़ आर्ट, डिज़ाइन एंड टेक्नोलॉजी में रचनात्मक लेखन, इन्फॉर्मेशन आर्ट्स, और इन्फ़ॉर्मेशन डिज़ाइन प्रैक्टिसेज़ की शिक्षक हैं. वह कहती हैं: “मैंने सरकारी स्कूल के कई शिक्षकों से मुलाक़ात की और उनका इंटरव्यू लिया. यहां तक कि जब वे मेरे साथ बात करने के लिए बैठते थे, तो मैंने देखा कि कैसे उनका ध्यान बार-बार अपने छात्रों की ओर बना रहता था, और कैसे उन्होंने एक ही समय में छात्रों की इतनी सारी मांगों को समझदारी और धैर्य के साथ पूरा किया. उनमें से कई दस साल से ज़्यादा समय से एक स्कूल में काम कर रहे थे और अपने समुदाय के सम्मानित सदस्य थे; उनके ट्रांसफ़र की ख़बर सुनकर लोग रो पड़े. एक लेखक और शिक्षक के तौर पर, मैं लॉकडाउन से जुड़े उनके किस्सों को सुनकर काफ़ी प्रेरित और खुश महसूस कर रही थी.” इलस्ट्रेटर

अंतरा रमन, सृष्टि इंस्टीट्यूट ऑफ़ आर्ट, डिज़ाइन एंड टेक्नोलॉजी, बेंगलुरु से विज़ुअल कम्युनिकेशन में स्नातक की पढ़ाई कर चुकी हैं. उनके इलस्ट्रेशन और डिज़ाइन की प्रैक्टिस पर वैचारिक कला और स्टोरीटेलिंग के सभी रूपों का गहरा प्रभाव है.

अनुवाद: नीलिमा प्रकाश एक कवि-लेखक, कंटेंट डेवेलपर, फ़्रीलांस अनुवादक, और भावी फ़िल्मकार हैं. उनकी रुचि हिंदी साहित्य में है. संपर्क : neelima171092@gmail.com