
रामकुमार अपनी पत्नी से कहते हैं, “ज़्यादा फ़ालतू बात करने की क्या ज़रूरत है?”
झांकी थोड़ा शर्माकर मुस्कुराते हुए कहती हैं, “पति-पत्नी में सामान्य झगड़ा होता रहता है.”
हालांकि, रामकुमार और झांकी के वैवाहिक जीवन या आम ज़िंदगी में कुछ ही चीज़ें हैं, जो सामान्य कही जा सकती हैं.
क़रीब 10 साल से अधिक समय से, झांकी (वह सिर्फ़ इसी नाम का उपयोग करती हैं) नई दिल्ली की लोधी कॉलोनी में बेघरों के लिए बनाए गए एक आश्रयगृह में रहती आ रही हैं. उनके पति रामकुमार यहां से 14 किलोमीटर दूर, दिल्ली के तुगलकाबाद इलाक़े में प्रेम नगर बस स्टैंड के पास एक अस्थायी झोपड़ी में रहते हैं.
अपनी उम्र के छठें दशक में प्रवेश कर चुके इस जोड़े ने इस तरह रहना चुना नहीं था, लेकिन उन्हें मजबूरन इस स्थिति को स्वीकार करना पड़ा है; और अब ऐसा मालूम नहीं पड़ता कि स्थिति में कुछ बदलाव आएगा.
झांकी और रामकुमार दोनों एक-दूसरे से वर्ष 1993 में मिले थे. उस वक़्त झांकी नई दिल्ली के साकेत में स्थित गुजरमल मोदी अस्पताल में मेडिकल अटेंडेंट (चिकित्सकीय परिचारक) थीं. उत्तर प्रदेश के फ़ैज़ाबाद ज़िले (हाल ही में इसका नाम बदलकर अयोध्या कर दिया गया है) से पलायन करके आए रामकुमार की जिस बात ने उन्हें उनकी ओर आकर्षित किया उसे याद करते हुए वह कहती हैं, “वह एक अच्छे और दमदार व्यक्तित्व वाले इंसान थे.” झांकी के माता-पिता उनकी शादी के ख़िलाफ़ थे, क्योंकि वे तथाकथित रूप से ऊंची जाति से ताल्लुक़ रखते थे और रामकुमार नीची जाति से थे. उनके परिवार में आठ लोग थे (दो भाई और चार बहनें) और उनके माता-पिता तब दिल्ली के शास्त्री पार्क में रहते थे.
उन्होंने बताया, “हमने आर्य समाज के एक मंदिर में शादी कर ली और एक सर्वेंट क्वार्टर (नौकरों या निचले कर्मचारियों के लिए बनाए गए कमरे) में किराए पर रहने लगे. उस समय हम किराए के रूप में प्रति माह 400 रुपए का भुगतान करते थे.” उस समय रामकुमार आर.के.पुरम के सेक्टर 8 में स्थित अपने घर के पास एक पार्किंग में चाय की दुकान चलाते थे. शादी के दो साल बाद साल 1995 में उनकी बेटी राधा का जन्म हुआ.

कुछ ही समय बाद, रामकुमार को स्थानीय नगरपालिका समिति की ओर से चाय की दुकान को वहां से हटाने की बार-बार चेतावनी मिलने लगी. वह बताती हैं, “स्थानीय प्रशासन ने उनकी चाय की दुकान को वहां से कई बार हटाया. उन्होंने कहा कि वह सार्वजनिक स्थान पर अतिक्रमण कर रहे थे.”
इसलिए, साल 1997 में अपनी नवजात बेटी के साथ यह जोड़ा फ़रीदाबाद के सेक्टर 31 में मेवला महाराजपुर इलाक़े में रहने चला आया. वहां रामकुमार ने इलाक़े में स्थित औद्योगिक गोदामों में कबाड़ीवाले (स्क्रैप डीलर) के रूप में काम करना शुरू कर दिया. वे लोग एक कमरे के झुग्गी (अस्थायी आवास) में रहते थे, जिसके किराए के रूप में प्रति माह 600 रुपए का भुगतान करना होता था. रामकुमार की प्रतिमाह कमाई लगभग 2,000 रुपए थी, जिसके सहारे उनके परिवार का गुज़र-बसर होता रहा.
साल 2005 में रामकुमार बीमार पड़ गए और उन्हें ख़ून वाली खांसी होने लगी, जिसके कारण वह कठिन परिश्रम करने असमर्थ हो गए. फरीदाबाद के एक सरकारी अस्पताल में उनका इलाज चला, और जिस कारखाने के लिए वह स्क्रैप डीलर के रूप में काम करते, उसी कारखाने में बाद में चौकीदार वाला काम करने लगे, जिसमें उन्हें ज़्यादा मेहनत नहीं करना पड़ता था. दो साल बाद उनका स्वास्थ्य और ज़्यादा ख़राब हो गया, उनकी नज़र धुंधली हो गई और उनका शुगर भी बढ़ गया. इन सबके चलते उनकी नौकरी चली गई और उनको मिलने वाली वह नाममात्र आय भी रातोंरात चल गई.
झांकी कहती हैं, “कोई आमदनी थी नहीं. हम किराया नहीं दे सके. फिर हम फुटपाथ पर रहने चले आए और भीख मांगने लगे.” एक साल बाद, झांकी को बॉम्बे प्रिवेंशन ऑफ बेगिंग एक्ट 1959, जिसे दिल्ली प्रिवेंशन ऑफ बेगिंग एक्ट 1960 भी कहते हैं, के तहत भीख मांगने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया. इस क़ानून के मुताबिक़, “कोई भी पुलिस अधिकारी या इस संबंध में अधिकृत कोई भी व्यक्ति, बिना वारंट के किसी भी व्यक्ति को भीख मांगते हुए पाए जाने पर गिरफ़्तार कर सकता है.”
साल 2008 के उस वाक़ये को याद करते हुए वह कहती हैं: “वह मंगलवार का दिन था, और मैं कनॉट प्लेस [नई दिल्ली में] के एक मंदिर में भिक्षा लेने गई थी. मुझे [पुलिस द्वारा] एक अन्य बुज़ुर्ग महिला के साथ गिरफ़्तार कर लिया गया, और भिखारियों के लिए बनाए गए आश्रय गृह सेवा कुटीर ले जाया गया. थोड़ी सी भिक्षा के लिए हमें इतना कुछ झेलना पड़ा.”
किंग्सवे कैंप, जिसे दिल्ली सरकार के समाज कल्याण विभाग की वेबसाइट के अनुसार ‘रिसीविंग सेंटर’ कहा जाता है, में पहले से ही लगभग 30-35 महिलाएं थीं – यह उन 11 संस्थानों में से एक है जो भिखारियों को हिरासत में रखने के लिए बनाया गया है.


इन केंद्रों पर, झांकी जैसे लोगों को वर्दी पहननी पड़ती है और उन्हें साफ़-सफ़ाई, खाना पकाना, और यहां तक कि बाग़वानी के काम में मदद करना पड़ता है. वह शेल्टर से जुड़े अपने अनुभव के बारे में बताती हैं, “यहां [केंद्र में] आपको सज़ा के तौर पर काम करना होता है.”
हालांकि, वहां उनके साथ अच्छा व्यवहार किया गया, लेकिन झांकी का कहना है कि वहां रहने से उन्हें भीख मांगना छोड़ने और जीवनयापन के लिए, काम का कोई विकल्प ढूंढने में मदद नहीं मिली. वह आगे कहती हैं, “हमें कोई प्रशिक्षण नहीं मिला. व्यक्तिगत रूप से कोई प्रगति नहीं हुई.” हालांकि, वेबसाइट के अनुसार, “…शेल्टर के निवासियों को व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाता है, ताकि रिहा होने के बाद उन्हें समाज में लौटकर लाभकारी रोज़गार मिल सके.”
झांकी को याद है कि महीनों बाद, पूर्वी दिल्ली के शाहदरा में स्थित कड़कड़डूमा ज़िला अदालत में मजिस्ट्रेट ने उनसे पूछा था, “आप भीख क्यों मांगती हैं?”
झांकी ने जवाब दिया, “कोई भी अपनी मर्ज़ी से भीख नहीं मांगता. मैं अपनी बेटी की पढ़ाई के लिए भीख मांग रही थी.” जब झांकी को गिरफ़्तार किया गया था, तब उनकी बेटी राधा का फ़रीदाबाद के एक सरकारी हाईस्कूल में दाख़िला हुआ था.
चूंकि, झांकी को पहली बार गिरफ़्तार किया गया था, इसलिए उन्हें 10,000 रुपए की जमानत राशि भरनी पड़ी. उन्हें याद है कि उन्होंने अधिकारियों से कहा था, “इतनी ज़्यादा राशि का क्या मतलब है?” वह इतने सारे पैसों का भुगतान नहीं कर सकती थीं. अगर वह इतनी राशि का जुगाड़ कर भी लेतीं, तो जमानत के लिए राशन कार्ड, आधार कार्ड आदि जैसे अधिकारिक पहचान दस्तावेज़ों को जमा कराने की ज़रूरत होती है; और उनके पास इसमें से कोई भी दस्तावेज़ नहीं था, क्योंकि उनके पास कोई स्थायी पता नहीं था.
उस दौर में जो पीड़ा उन्हें झेलनी पड़ी उसके घाव आज तक उनके ज़ेहन पर ताज़ा हैं. झांकी बताती हैं, “उस वक़्त मैं रोती रहती थी. शायद इसीलिए मुझे जल्दी रिहा कर दिया गया.” सेवा कुटीर में लगभग डेढ़ साल बिताने के बाद, 15 अगस्त 2009 को झांकी को छोड़ दिया गया था और वहां के कार्यवाहकों ने मुझसे कहा था, “फिर से मत आना.”


रिसीविंग सेंटर में हिरासत में होने के कारण वह ज़िंदगी के एक अहम पड़ाव पर परिवार के साथ मौजूद नहीं रह पाईं: “जब मैं बाहर आई, तो मुझे पता चला कि मेरी बेटी की शादी हो चुकी है.” रामकुमार ने राधा द्वारा आठवीं कक्षा की पढ़ाई पूरी करने के बाद उससे उम्र में काफ़ी बड़े आदमी से उसकी शादी कर दी थी. वह कहती हैं, “मैं हैरान थी. वह थी तो मेरी बेटी, लेकिन मैं फिर भी उसे विदा नहीं कर पाई.” बेटी की छोटी उम्र में ही शादी हो जाने और शादी में उपस्थित न रह पाने को याद करते हुए उनकी आंखों में आंसू आ गए.
झांकी सुबह 6 बजे उठ जाती हैं और बेघर लोगों के लिए बने आश्रय गृह, जहां अब वह रहती हैं, के पास स्थित सार्वजनिक शौचालय जाती हैं. वह कहती हैं, “मुझे जल्दी-जल्दी काम करना होता है. यहां गुनगुना पानी आता है, और मैंने एक हफ़्ते से अधिक समय से अपने बाल नहीं धोए हैं.”
साल 2009 में सेवा कुटीर से रिहा होने के बाद, झांकी और रामकुमार कुछ महीनों के लिए वापस फुटपाथ पर रहने लगे थे. फिर वे दोनों बेघर लोगों के लिए बने एक आश्रय गृह में रहने चले गए, जहां महिलाओं और पुरुषों को अलग-अलग रखा जाता था, और यह एक स्थानीय गैर-सरकारी संगठन द्वारा संचालित था. यह शेल्टर कपड़े वाले तंबू से बना था और रामकुमार को वहां रहने में मुश्किलें आ रही थीं. झांकी ने बताया, “जब बारिश होती थी, तो इन तम्बुओं में पानी लग जाता था और यह कीचड़ से भर जाता है. फिर सबको पास के साईं बाबा मंदिर में जाना पड़ता था.”
पांच साल पहले, शेल्टर में टिन की छत डाली गई और नीचे कंक्रीट का फर्श बनाया गया, लेकिन तब तक रामकुमार वहां से जा चुके थे. रामकुमार कहते हैं, “तीन साल [2014-17] तक मैं साईं बाबा मंदिर के बाहर बैठा रहा और भीख मांगता रहा.” उन्हें अपने मोतियाबिंद के ऑपरेशन के लिए 2,000 रुपयों की ज़रूरत थी और जैसे ही उनके पास इतने पैसे जमा हो गए, उन्होंने भीख मांगना छोड़ दिया.
ख़राब माली हालत के चलते, रामकुमार को काम की तलाश के लिए मजबूर होना पड़ा. उन्होंने झांकी से कहा, “मैं यहां क्या करूंगा? [बेघरों के आश्रय में]. हम दोनों इस तरह गुज़ारा नहीं कर सकते.” रामकुमार काम की तलाश में फ़रीदाबाद लौट आए. झांकी कहती हैं, “हमने सोचा कि भले ही हम किराया नहीं दे सकते, पर हम इतना तो कमा ही लेंगे कि अपना पेट भर सकें.”

बुज़ुर्ग हो चुके रामकुमार के लिए काम हासिल करना आसान नहीं था, क्योंकि वह अब ज़्यादा मेहनत वाला काम नहीं कर सकते थे, न ही फ़रीदाबाद के कारखानों में काम कर सकते थे. यहां तक कि उन्हें कहीं आना-जाना छोड़ना पड़ा, क्योंकि सार्वजनिक बसों के झटके खाना अब उनके लिए असहनीय हो गया था. उन्होंने अपनी अस्थायी झोपड़ी के पास स्थित प्रेम नगर बस स्टैंड पर फिर से एक चाय की दुकान लगा ली. वह बताते हैं कि एक दिन में उनकी लगभग 50-100 रुपए की कमाई हो जाती है.
अपनी कमाई का एक हिस्सा वह झांकी को दे देते हैं. उनकी बेटी भी उनकी मदद करती है और इस तरह झांकी 200-500 रुपए में महीने का ख़र्चा चला लेती हैं. इन पैसों से वह एक छोटा गैस सिलेंडर ख़रीदती हैं, जो लगभग 20 दिन तक चल जाता है. वह कहती हैं, “अगर मैं इसे हर दिन इस्तेमाल करूंगी, तो यह 10 दिनों में ही ख़त्म हो जाएगा.” उनका जीवनयापन शेल्टर से मुफ़्त में मिल जाने वाली रोटियों, चाय और दिन में कम से कम एक बार मिल जाने वाले भोजन पर निर्भर है.
हालांकि, वह अकेली बुज़ुर्ग नहीं हैं जिनको ऐसी स्थितियों का सामना करना पड़ रहा है. एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के शहरी इलाक़ों में केवल 11 प्रतिशत महिलाएं ( (60 वर्ष और उससे अधिक उम्र की) ही आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं. यहां तक कि देश के 70 प्रतिशत बुज़ुर्गों को आर्थिक रूप से दूसरों पर पूरी तरह आश्रित रहना पड़ता है.
महीने में एक बार, झांकी अपने पति से मिलने जाती हैं. उन्हें रामकुमार तक पहुंचने में क़रीब एक घंटे का समय लगता है और इस दौरान उन्हें दो बसें भी बदलनी पड़ती है. जब वह पहुंचती है, तो रामकुमार अपनी बेटी राधा को अपने फ़ोन से कॉल करते हैं. जिस चमड़े की फैक्ट्री में राधा काम करती हैं वहां उन्हें 30 मिनट का लंच ब्रेक मिलता है. समय का ध्यान रखते हुए झांकी उनसे बात करती हैं. वह कहती हैं, “मैं उससे मिलने नहीं जाती, न ही उसके जीवन में हस्तक्षेप करती हूं. मैं उसके घर केवल तभी जाती हूं, जब मुझे [राधा के घर में] आमंत्रित किया जाता है.”
रामकुमार के पास एक फ़ोन है और वह लगभग हर दिन राधा से बात करते हैं. दोनों के रहने और काम करने की जगह के आसपास होने से, वे कभी-कभी मिल भी लेते हैं. दूसरी ओर, झांकी शेल्टर में केवल कार्यवाहक के फ़ोन से ही कॉल कर सकती है. वह कहती हैं कि तालाबंदी के दौरान वह अपनी बेटी से 10 महीने तक नहीं मिल पाई थीं और परिवार से दूर रहने के चलते उनके मानसिक स्वास्थ्य पर इसका असर पड़ा है.


कुछ साल पहले, झांकी उन चार महिलाओं में शामिल थीं जिन्हें दिल्ली के एक आश्रम में स्थायी रूप से रहने की पेशकश की गई थी, लेकिन उन्होंने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया. वह बताती हैं, “वे आश्रम उन लोगों के लिए हैं जिनका कोई नहीं है. मेरे पास मेरे पति और मेरी बेटी है, मैं क्यों वहां जाऊं?” वह कहती है कि वहां जाने से वह अपने परिवार से और दूर हो जाएंगी, जिनसे कम से कम वह अभी समय-समय पर मिल पाती हैं.
झांकी इस बात से अच्छी तरह वाक़िफ़ हैं कि वह अपने पति के साथ फिर कभी एक ही छत के नीचे नहीं रह पाएंगी. वह साफ़ कहती हैं, “हम किराया नहीं भर पाएंगे. मैं और मेरे पति अलग रहते हैं, लेकिन हमारा जीवन चल रहा है और हम अपना ख़्याल ख़ुद रख पा रहे हैं. किसी और पर निर्भर न होना, एक बड़ी बात है.”
दिसंबर 2021 में, झांकी ने आधार और राशन कार्ड बनवाने के क्रम में काग़ज़ी कार्रवाई लगभग पूरी कर ली थी; और उन्होंने कोविड के दोनों टीके भी लगवा लिए. जब वह इस बात से ख़ुश थीं कि उनके दस्तावेज़ बन रहे हैं, तब उन्होंने आश्रय की अन्य महिलाओं को भी उनके दस्तावेज़ तैयार करवाने में मदद की. वह कहती हैं, “वे नहीं जानतीं कि यह काम कहां और कैसे होता है. मदद करना मेरा कर्तव्य है.”
जैसे ही मैं जाने के लिए तैयार होती हूं, वह मुझे बताती हैं कि एक महिला को उनके मेडिकल दस्तावेज़ों के संदर्भ में मदद करने के लिए वह दिल्ली गेट जाने वाली हैं. वह कहती हैं, “हम [महिलाएं] एक साथ रहते हैं और इसलिए हमें अकेलापन महसूस नहीं होता. हमारे साथ जो कुछ भी होता है, हम उसे एक-दूसरे के साथ साझा करते हैं और राहत महसूस करते हैं. हम यहां बस गुज़ारा कर रहे हैं, अपना जीवन जी रहे हैं.”
लेखक, इस स्टोरी को लिखने में मदद के लिए, पिया कौल का आभार व्यक्त करती हैं.
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Editor's note
गीतांजलि शर्मा ने हाल ही में सोनीपत के अशोका यूनिवर्सिटी से समाजशास्त्र, नृविज्ञान और मीडिया अध्ययन विषयों में स्नातकोत्तर की डिग्री पूरी की है. वह दिल्ली के बेघर लोगों पर शहरी ग़रीबी के प्रभाव को गहराई से समझना चाहती थीं. उन्होंने यह स्टोरी साल 2021 में पारी एजुकेशन के साथ अपनी इंटर्नशिप के दौरान लिखी. वह कहती हैं, “मैं इस बात के लिए झांकी की आभारी हूं कि वह अपनी कहानी मेरे साथ साझा करने को तैयार हुईं. अपनी बातचीत के माध्यम से मैंने जाना कि अपने देश में बेघर लोग कितने उपेक्षित हैं. ग़रीब विरोधी क़ानून, भीख मांगकर किसी तरह ख़ुद का जीवनयापन करने की कोशिश में लगे लोगों को अपराधी घोषित कर देता है.”
अनुवाद: अमित कुमार झा
अमित कुमार झा, पेशे से अनुवादक हैं. उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई की है और अब जर्मन सीख रहे हैं.