मुस्कान हर रोज़ सिंघु बॉर्डर के विरोध-स्थल पर मौजूद होती है; वह मुफ़्त भोजन, पुस्तकालय में चलने वाले किस्सागोई के सत्र, और उपहार में मिले चप्पलों के चलते बहुत ख़ुश है.

वह लंगर वाले टेंट की ओर इशारा करते हुए कहती है, जहां दिन भर बिना किसी शुल्क के खाना परोसा जाता है, “यही वह जगह है जहां वे [किसान] हमें खाना और चाय देते हैं. वे घर ले जाने के लिए भी खाना बांधकर देते हैं, बोतलों में चाय देते हैं.” एक और दिशा में इशारा करते हुए वह कहती है, “और यहां पर हमें चप्पलें मिलीं, क्योंकि उन्होंने हमें कूड़ा उठाते हुए नंगे पांव चलते देखा था.”

मुस्कान की नौ साल की बहन चांदनी कहती है, “यही वह जगह है जहां एक दीदी पढ़ाती हैं और हमें नोटबुक और पेंसिल देती हैं.” वह “सांझी साथ” और “शहीद भगत सिंह” पुस्तकालयों का ज़िक्र कर रही है. यहां कॉलेज के छात्र स्थानीय बच्चों को स्वेच्छा से पढ़ाते हैं. वह खुशी से बताती है, “वे हमें चित्रों से भरी किताबों से कहानियां सुनाते हैं. हम चित्र भी बनाते हैं.” कोविड लॉकडाउन के कारण दोनों लड़कियों का स्कूल छूट गया है.

किसान 26 नवंबर, 2020 से नए कृषि क़ानूनों का विरोध करने के लिए, दिल्ली-हरियाणा सीमा पर स्थित सिंघु में एकत्र हुए हैं. मुस्कान और चांदनी सुबह क़रीब आठ बजे धरना-स्थल पर आ जाती हैं और शाम क़रीब चार बजे तक रहती हैं. वे खाली बोतलों और रिसाइकल किए जा सकने वाले कचरे को अपने साथ ले जाती हैं जिन्हें वे एक बड़े प्लास्टिक के थैले में भर लेती हैं. इन वस्तुओं को बाद में उनके माता-पिता द्वारा बेचा जाएगा जो ख़ुद भी कबाड़ बीनने का काम करते हैं.

रहने की जगह पूछे जाने पर मुस्कान एक खुले नाले की ओर इशारा करते हुए कहती है, “हम पास में ही रहते हैं. नाली के साथ चलते हुए जंगल की ओर. हमारी बस्ती यहां से बहुत दूर नहीं हैं. आइए! हम आपको दिखाएंगे.” वह अपनी बस्ती से विरोध-स्थल तक लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर चलते हुए और दौड़ते हुए, यह सब बड़े उत्साह से बताती है.

मुस्कान और चांदनी का घर दरअसल एक कमरे की झोंपड़ी है, जिसकी दीवारें टिन की हैं और प्लास्टिक की चादर से छत बनी हुई है. उनका परिवार और उनके आस-पास रहने वाले समुदाय के सभी लोग कबाड़ बीनने का काम ही करते हैं. वे पश्चिम बंगाल से यहां आए हैं और नरेला तहसील की बाहरी सीमा पर स्थित अस्थायी घरों में रहते हैं – अतीत में दिल्ली से होकर गुज़रने वाले ऐतिहासिक ग्रैंड ट्रंक रोड के पास, जिसे अब राष्ट्रीय राजमार्ग 1 कहा जाता है.

जगह-जगह पर रुककर वे मुझे उन लोगों से मिलवाती चलती हैं जो उनकी बस्ती के हैं – जिनमें से सभी अपनी आजीविका के लिए विरोध स्थल के आस-पास से कबाड़ इकट्ठा करते हैं. वे पूछती हैं, “यह हमारा दोस्त है. क्या आप उसकी एक फ़ोटो लेंगी प्लीज़?”
सिंघु बॉर्डर के विरोध-स्थल के केंद्रीय स्थान, यानी मंच को दिखाते हुए मुस्कान कहती है, “दो दिन पहले एक आदमी को यहां बहुत बुरी तरह पीटा गया था. उसकी पगड़ी गिर गई थी और उसके सिर से ख़ून बह रहा था.” इस घटना से बच्चे डर गए थे और अगले तीन दिन तक धरना स्थल से दूर ही रहे.

ये लड़कियां आमतौर पर अपनी 28 वर्षीय पड़ोसी अस्मीना बीबी के साथ आती हैं, जो इस काम को 17 साल से अधिक समय से कर रही हैं. वह कहती हैं, “मैं एक कबाड़ीवाले परिवार में पैदा हुई थी, और फिर कबाड़ीवाले परिवार में ही शादी भी हो गई.” बताते हुए कि उनकी पूरी बस्ती किसानों का समर्थन करती है, वह नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 के संदर्भ में पूछती हैं, “हम सभी पश्चिम बंगाल से हैं, न कि बांग्लादेश से. लेकिन हम इसे कैसे साबित करेंगे और अपने पूर्वजों के दस्तावेज़ कैसे दिखाएंगे? CAA के ख़िलाफ़ आंदोलन के दौरान, यहां के पंजाबी समुदाय ने लंगर (मुफ़्त सामुदायिक रसोई) लगाकर हमारा समर्थन किया था. अब हम उनका समर्थन कर रहे हैं: हम उनकी ट्रॉलियों के पास झाडू लगाकर, कूड़ा-करकट साफ़ करके और रिसाइकल (पुनर्चक्रण) लायक कचरे को इकट्ठा करके उनकी मदद कर रहे हैं.”

अस्मीना ने पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद के एक बांग्ला माध्यम स्कूल में कक्षा 2 तक पढ़ाई की थी: “लड़कियों [मुस्कान और चांदनी] ने ठीक ढंग से औपचारिक शिक्षा नहीं ली है. वे कुछ समय के लिए पास के एक सरकारी स्कूल में गईं, लेकिन तालाबंदी के बाद उन्होंने स्कूल जाना बंद कर दिया.”

अपने घर के पास, मुस्कान मुझे एक लावारिस ऑटो दिखाती है और कहती है, “यह वह जगह है जहां हम इकट्ठा किए गए कबाड़ को रखते हैं. हर कोई अपना कबाड़ यहां रखता है और इसे ख़रीदने के लिए सोनीपत [हरियाणा] से एक टेंपो आता है.” उनके घरों के सामने का क्षेत्र प्लास्टिक के कबाड़, बोतलें, लत्ता वगैरह से भरी बोरियों से पटा हुआ है.

आंदोलन में शामिल लाखों लोगों ने विरोध-स्थल के अंदर और बाहर, अस्मीना और उनकी भतीजी जैसे कबाड़ बीनने वालों के लिए बहुत सारा कचरा छोड़ा है. इसलिए, वे एक लंगर से दूसरे लंगर जाते हैं और प्लास्टिक की बोतलों, प्लास्टिक के बॉक्स, थर्माकोल की थाली, फ़ॉइल, गत्ता, पुराने अख़बार, और इस्तेमाल की गई नोटबुक सहित रिसाइकल करने लायक सारे कचरे को बड़े-बड़े बोरों में भरते हैं. कुछ ने रद्दी बीनने की जगह, प्लास्टिक की पानी की बोतलें इकट्ठा करना शुरू कर दिया है, जिससे वे 20 रुपए किलो में बेच सकते हैं. अस्मीना कहती हैं, “मैं प्लास्टिक की बोतलें बेचकर रोज़ाना 600 से 800 रुपए तक कमा सकती हूं. यह रक़म पहले की तुलना में क़रीब तीन से चार गुना ज़्यादा है.”

धरना-स्थल से कारण बढ़े मुनाफ़े के चलते उन्होंने किसानों की समस्याओं से मुंह नहीं मोड़ा है. अस्मिना कहती हैं, “हम चाहते हैं कि उनके मुद्दे को जल्द से जल्द सुलझाया जाए, ताकि वे अपने घर वापस जा सकें. किसान ही हमारे लिए अनाज उगाते हैं, तब हम खाते हैं; हम पैसे से पेट नहीं भर सकते. अगर हमारे पास ज़मीन होती, तो हम कबाड़ बीनने का काम नहीं करते. हम आमतौर पर प्रति दिन 200 रुपए से कम कमाते हैं. कृषि क़ानूनों को वापस लेना ज़रूरी है, वरना उनकी [किसानों की] स्थिति हमारे जैसी हो जाएगी.”

Editor's note

सौम्या ठाकुर, चंडीगढ़ विश्वविद्यालय से बीबीए-एलएलबी की चौथी वर्ष की छात्र हैं. वह एक किसान परिवार से आती हैं और जेंडर को लेकर संवेदनशीलता फैलाने के लिए बतौर स्टूडेंट एक्टिविस्ट सक्रिय हैं. वह कहती हैं: "मैं विरोध-प्रदर्शन के दस्तावेज़ीकारण के लिए छत्तीसगढ़ में स्थित अपने घर से सिंघु बॉर्डर आई थी. सिंघु बॉर्डर पर पंजाब किसान यूनियन की एक बैठक के दौरान मैंने इन बच्चों को देखा और उनके बारे में लिखना चाहती थी."



अनुवाद: शेफाली मेहरा



शेफाली मेहरा अशोका विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर की छात्र हैं और उन्होंने दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज
से स्नातक की डिग्री हासिल की है. वह शोध करने में कुशल हैं और आम अवाम व उनसे जुड़ी कहानियों में
दिलचस्पी रखती हैं.