
शब्बीर अपने कबूतरों की परीक्षा लेने की तैयारी कर रहे हैं.
वसंत का मौसम है और जम्मू-कश्मीर की ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर में, अप्रैल के साफ़ नीले आसमान में हल्के बादल तैर रहे हैं. 35 वर्षीय सरकारी कर्मचारी, श्रीनगर के सोलिना इलाक़े में अपने तीन मंजिला घर की छत पर हैं. कबूतरों के शौक़ीन (कश्मीरी भाषा में कोतरबाज़) शब्बीर, अपने पाले हुए कबूतरों के उड़ान भरने की तैयारी कर रहे हैं.
वह कहते हैं, “उन्हें बेरंगा आसमान पसंद नहीं है. नवंबर से कड़ाके की ठंड पड़ने के कारण, वे अंदर बंद रहे हैं.” दड़बे से बाहर निकलते ही उनमें से कुछ कबूतर बाहर लगे बांस के डंडों पर बैठ जाते हैं. इसके बाद शब्बीर लगभग 8 से 10 फ़ीट लंबी बांस की एक पतली छड़ी लेते हैं और इससे खंभों पर मारते हैं. वह धीरे-धीरे, लेकिन तेज़ी से कई बार खंभों पर मारते हैं. वह छड़ी उन आराम कर रहे कबूतरों के पंजों को लगभग छूते हुए निकल जाती है, जो पहली बार इस सीज़न में अपनी उड़ान भरेंगे.

शब्बीर के बोलते ही, एक कबूतर अपने झुंड से निकलकर बादलों की ओर उड़ जाता है. ऊपर शिकार की तलाश में एक बाज़ उसकी ओर झपटता है. शब्बीर देखते हैं और सीटी बजाते हैं. कबूतर का पीछा कर रहा बाज़ उससे बहुत दूर है, लेकिन वह सीटी बजाते रहते हैं. शब्बीर कहते हैं, “सीटी एक संकेत है जिसे पक्षी समझता है. कबूतर जितना ऊंचा उड़ता है, बाज़ और चील से ख़तरा उतना ज़्यादा होता है.” हमारे देखते-देखते, शब्बीर के 400 या उससे ज़्यादा कबूतरों में से एक कबूतर, चुपचाप वापस आकर अपनी जगह पर बैठ जाता है.
शब्बीर के लकड़ी के मचान में अलग-अलग रंगों और क़िस्मों के कबूतर रहते हैं. शब्बर कहते हैं, “कुछ नस्लों के कश्मीरी नाम हैं और कुछ ऐसे नाम हैं जो मैंने दिए हैं: कालेवोज़ुल, ज़ाग चीन, डौब, टेडी, ज़ीरा, सहारनपुरी …” शब्बीर ने कबूतरों का नाम याद करते हुए मचान का दरवाज़ा खोला और मक्के से भरी एक बोरी खोल दी. कबूतरों को दिन में दो बार, सुबह और शाम को भोजन कराया जाता है. शब्बीर उनके लिए दड़बे के अंदर पानी की एक बाल्टी रखते हैं और समय-समय पर उसे भरते रहते हैं.
शब्बीर जैसे कोतरबाज़ अपने पक्षियों पर प्रति माह 5 से 10 हज़ार रूपए ख़र्च करते हैं. रेस में बने रहने के लिए, कबूतरों को जितनी ताक़त की ज़रूरत होती है उसके लिए शब्बीर उन्हें खाने में सूखे मेवे, बिना पके चने, सरसो के तेल, और प्रोटीन से भरपूर सप्लीमेंट देते हैं.
मोहम्मद सलमान कबूतर के शौक़ीन हैं और श्रीनगर के डलगेट इलाक़े में सड़क के किनारे दुकान लगाते हैं. उनका परिवार 1980 के दशक के अंत से पक्षियों को पाल रहा है. उनका कहना है कि कबूतरों को विजेता बनाने के लिए लगातार कोशिशों की ज़रूरत होती है. मोहम्मद कहते हैं, “सीज़न की तैयारी में लगभग छह महीने लगते हैं. इसकी शुरुआत तब हो जाती है, जब कड़ाके की सर्दियों में दड़बे में रखने के दौरान कबूतर अंडे सेते लगते हैं. हर साल मेरे पास लगभग 100 कबूतरों के बच्चे होते हैं, लेकिन उनमें से सभी रेस में हिस्सा नहीं ले सकते.” सीज़न शुरू होने पर उनकी उड़ान को देखकर उन्हें चुना जाता है.
घर लौटने से पहले कबूतर कई घंटों तक उड़ सकते हैं. मोहम्मद कहते हैं कि उन्हें चीज़ों को पहचानने के लिए एक प्रक्रिया से गुज़रना होता है, जिसे ‘होमिंग’ कहते हैं. इस प्रक्रिया में लगभग 40 दिन लगते हैं. यह कबूतरों को सुरक्षित रूप से उनके पास लौटने और उड़ान भरने के क़ाबिल बनाता है. संदेशवाहक के रूप में कबूतरों का इस्तेमाल और सेना में उनकी भूमिका, ये ऐसी बातें हैं जो मोहम्मद जैसे कोतरबाज़ों को अच्छी तरह से पता हैं. प्रथम विश्व युद्ध में, जर्मन सेना द्वारा जासूसी मिशनों में कबूतरों का इस्तेमाल किया गया था और उनके पेट पर कैमरे बांधे गए थे, क्योंकि वे घंटों तक ऊंची उड़ान भरने की क्षमता रखते हैं और यह जर्मन सेना के लिए फ़ायदेमंद था.
प्रसिद्ध कश्मीरी कवि और इतिहासकार ज़रीफ़ अहमद ज़रीफ़, जो अब अपने जीवन के 70वें वर्ष में हैं, दशकों से कबूतर रेसिंग की इस संस्कृति का पालन करते आ रहे हैं. ज़रीफ़ कहते हैं: “हम [कश्मीरी] कबूतरों को शौक़ के लिए और खेल के लिए रखते आए हैं. तीस साल पहले, हर मोहल्ले [पड़ोस] में कबूतरों के कम से कम तीन से चार दीवाने हुआ करते थे. कश्मीरियों ने इस खेल को पंजाब से सीखा है.” वह आगे कहते हैं, “एक समय था जब हर शुक्रवार की सुबह, शहर के नौहट्टा इलाक़े के काक मोहल्ले में घाटी भर से, कबूतरों के लगभग 50 चाहने वाले एक जगह जमा होते थे और पकड़े गए कबूतरों को बाज़ार में बेचते थे या अदला-बदली करते थे.”

शब्बीर को उनके बड़े भाई फ़याज़ अहमद ने यह खेल सिखाया था. शादी के बाद फ़याज़ अहमद ने कबूतरों के दड़बे की ओर जाना बंद कर दिया था. ज़रीफ़ इसका कारण बताते हैं: “लोग अपनी लड़की की शादी किसी कोतरबाज़ से करने से हिचकिचाते हैं. उनको लगता है कि कबूतर कि गंदगी किसी भी वक़्त घर के छत से गिर सकती है, जबकि वे [उत्साह से] कबूतरों को उड़ते हुए ज़रूर देखते हैं. इस खेल को समाज ने कभी अपनाया ही नहीं.”
आकाश की ओर नज़र घुमाते हुए, शब्बीर ने एक कालेवोज़ुल को देखा – लाल सिर वाला सफ़ेद कबूतर, जो बहुत ही मशहूर नस्ल है. शब्बीर कहते हैं, “यह किसी दूसरे कोतरबाज़ का है.” कबूतर थोड़ा नीचे उतरता है और कुछ मिनट बाद थककर आता है और शब्बीर के दड़बे के पास एक रॉड पर बैठ जाता है. शब्बीर इस अवसर के लिए पूरी तरह से तैयार हैं. वह डंडे को कबूतर के पास ले जाते हैं और ढीली गांठ वाला फंदा उसकी गर्दन पर घुमाते हैं और फिर उसे पकड़कर अपने दड़बे में ले जाते हैं. इस तरह यह कबूतर अब शब्बीर का हो गया. कश्मीर के कबूतर पालने वालों के बीच यह आम है. जहां कुछ कोतरबाज़ इस अवसर की तलाश में रहते हैं, वहीं कुछ ऐसे भी हैं जो केवल अपने पक्षियों के रखरखाव में रुचि रखते हैं.
ऐसे और भी दूसरे कारण हैं जिनके चलते वे अपने पक्षियों से हाथ धो बैठते हैं. दिन के अंत में, जब शब्बीर के कबूतर वापस लौटते हैं, तो शब्बीर पाते हैं कि एक कबूतर कम है. वह उम्मीद जताते हुए कहते हैं, “कभी-कभी, वे अगले दिन घायल स्थिति में वापस लौटते हैं.” उनके कुछ बेहतरीन कबूतर शिकारियों के हाथ भी चढ़ गए. “यह हमारी परीक्षण प्रक्रिया का एक हिस्सा है. पक्षियों को अपनी देखभाल करना सीखना चाहिए.”
रेस में भागीदारी: रेड कार्ड से सावधानी!
शुरुआत में पक्षियों का यह रेस, कश्मीर में काफ़ी लोकप्रिय खेल था. जब उग्रवाद अपने चरम पर था और लोग ज़्यादातर समय अपने घरों में क़ैद रहते थे, तो यह खेल लोकप्रिय हो गया था. कोतरबाज़ कबूतरों को अपने वश में कर लेते थे और फिर अलग-अलग नस्लों व क्षमता के कबूतरों के बीच रेस होती थी. शब्बीर कहते हैं, “सुबह के समय, एक इलाक़े में कुछ कोतरबाज़ अपने कबूतरों को आज़ाद कर देते और उनकी वापसी के समय को नोट कर लेते थे. सबसे ज़्यादा देर तक उड़ने वाला कबूतर विजेता होता था.”
आज, कबूतर रेस एक बड़े दांव लगाने वाला खेल है और कुछ रेस में तो 30 हज़ार रुपए या मारुति कार जैसे बड़े इनाम दिए जाते हैं.
सोशल मीडिया पर, ख़ास तौर पर यूट्यूब पर पाकिस्तानी कोतरबाज़ों द्वारा अपलोड किए जाने वाले वीडियो के कारण, हाल ही में फिर से लोगों के बीच कबूतरों को पालने का शौक़ बढ़ा है. शब्बीर अपने फ़ोन में यूट्यूब पर सबसे ज़्यादा देखे जाने वाले कबूतरों के वीडियो को स्क्रोल करते हुए कहते हैं, “पाकिस्तानी कोतरबाज़ प्रेरणा का स्रोत हैं और सोशल मीडिया के कारण हम उनकी शैली को सीख सकते हैं.” कश्मीर के उलट, पाकिस्तान में पूरे साल मौसम रेस के अनुकूल बना रहता है और वहां होने वाले टूर्नामेंट के वीडियो ऑनलाइन पोस्ट किए जाते हैं.
सोलिना के रहने वाले कोतरबाज़ आफ़ताब अहमद साल 2019 से कबूतरों के रेस के जज हैं. वह कहते हैं, “इस तरह [वीडियो के साथ], रेस एक निश्चित क्षेत्र तक सीमित नहीं रहती, बल्कि कश्मीर के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले कोतरबाज़ों के बीच आयोजित की जा सकती है. कोतरबाज़ों के बीच से ही किसी एक को जज चुना जाता है.” जज, कोतरबाज़ों को उनके पांच सबसे क़ाबिल कबूतरों को रेस में उड़ाने के लिए तारीख़ें निर्धारित करते हैं. वे भोर के समय हर दड़बे में जाते हैं और पांच चुने हुए कबूतरों को आकाश में उड़ते हुए देखते हैं, और उनके उड़ने के कुल समय को लिख लेते हैं.
किसी उड़ान से पहले जज, चुने गए कबूतरों के पंखों पर स्टैंप लगाते हैं और फिर कबूतरों के वापस आने तक दूरबीन से उनकी उड़ान देखते हैं. कभी-कभी, रेस के दौरान कोतरबाज़ दूसरे कबूतर उड़ाते हैं जो रेस का हिस्सा नहीं होते हैं. ये कबूतर रेस में उड़ने वाले कबूतरों को शिकारियों से होने वाले ख़तरे से बचाते हैं. आफ़ताब कहते हैं, “जज इसकी अनुमति देते हैं. अगर रेस में शामिल कबूतर, शिकार हो जाता है या घायल हो जाता है, तो उसे रेस से बाहर कर दिया जाता है. उसकी जगह कोई दूसरा कबूतर हिस्सा नहीं ले सकता. यह फुटबॉल में रेड कार्ड मिलने की तरह है.”
नए कोतरबाज़ों के रेस में शामिल होने के साथ-साथ, हर साल कबूतर रेसिंग की संस्कृति का विस्तार हो रहा है. एक साथ कई छतों पर आयोजित होने वाली यह रेस, जून में अपने चरम पर होती है. हालांकि, रेस की संख्या का अनुमान लगाने के लिए कोई डेटा तो मौजूद नहीं है, लेकिन कोतरबाज़ कहते हैं कि लगभग 70 ऐसी रेस होती है, और हर रेस में कुल कोतरबाज़ों में से एक-तिहाई लोग भाग लेते हैं.
शब्बीर 17 साल पहले अपने भाई का हाथ पकड़कर, श्रीनगर के डाउनटाउन में स्थित अपने घर में बने दड़बे में गए थे. शब्बीर कहते हैं, “मैं पक्षियों से भावनात्मक रूप से जुड़ गया. वे आपके बच्चे की तरह होते हैं. आप उन्हें खिलाते हैं, उन्हें अंडे सेते हुए देखते हैं, और युवा कबूतरों के उड़ना सीखने के गवाह बनते हैं. और जब कोई शिकारी उन्हें घायल कर देता है, तो आप उन्हें ठीक करने के लिए उनकी सेवा करते हैं.”
मोहम्मद, पक्षियों की ओर देखते हुए कहते हैं, “असली पक्षी प्रेमी उन्हें शौक़िया या मनोरंजन के लिए पालते हैं. मैंने एक बार अपने कोतरबाज़ दोस्तों से ईनाम के तौर पर, 5 हज़ार रुपए और एक ट्रॉफ़ी जीती थी. लेकिन, मैंने कबूतरों से कभी पैसे कमाने का नहीं सोचा.” जैसे ही आख़िरी पक्षी सुरक्षित रूप से दड़बे के अंदर आ जाता है, तो मोहम्मद दरवाज़े को सावधानी से बंद कर देते हैं. वह कहते हैं, “मेरे लिए, वे मेरे बच्चों की तरह हैं.”
Editor's note
मीर यासिर मुख़्तार ने कश्मीर के श्रीनगर में स्थित गवर्नमेंट कॉलेज फ़ॉर वुमेन से जनसंचार और पत्रकारिता में स्नातक की डिग्री पूरी की है और वह फ़ोटो-जर्नलिस्ट बनने का इरादा रखते हैं. वह कहते हैं, "इस विषय पर शोध करते हुए, मैंने उन सभी पहलुओं के बारे में सीखा जो इन पक्षियों को रेस के लिए तैयार करने से जुड़ती हैं. मैं कबूतरबाज़ी की संस्कृति पर आधारित इस स्टोरी को उसी जगह से कहना चाहता था जहां इसे कुछ समय पहले तक वर्जित माना जाता था. मैंने यह विषय इसलिए चुना, क्योंकि मुझे इस बात में गहरी दिलचस्पी है कि कश्मीर के अशांत और संघर्ष से भरे दौर में वहां के लोग अपने पसंदीदा कामों और सपनों की दिशा में कैसे आगे बढ़ते हैं.”
अनुवाद: अमित कुमार झा
अमित कुमार झा, पेशे से अनुवादक हैं. उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई की है और अब जर्मन सीख रहे हैं.