
“जब मेरे पिता सड़क पर चलते हैं, तो लोग उन्हें ‘डॉक्टर साहिब के बाबूजी’ कहकर बुलाते हैं.”
विजय (बदला हुआ नाम) एक ‘झोला-छाप डॉक्टर’ हैं, जो छत्तीसगढ़ के एक बिना लाइसेंस वाले डॉक्टर हैं, और जिन्हें सरकारी और अकादमिक, दोनों ही दुनिया में क़दम नहीं रखने दिया जाता. मालखरोदा ब्लॉक के 30 वर्षीय विजय लोगों द्वारा कही जाने वाली बातों को अनदेखा करते हुए कहते हैं, “गांव से बाहर के लोग मुझे क्या कहते हैं, इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता.”
कहा जाता है कि ‘झोला-छाप डॉक्टर’ उपनाम ‘झोले’ या दवाईयों के बैग के संदर्भ से उपजा है, जिससे उन्हें यह (अनौपचारिक) लाइसेंस मिल जाता है कि वे इलाज करवाने वाले लोगों की नज़र में पेशेवर डॉक्टर बन जाते हैं. विजय के पास बीएससी (जीव विज्ञान) की डिग्री है, और उन्होंने ‘झोला-छाप डॉक्टर’ के बतौर प्रैक्टिस शुरू करने से पहले एक लाइसेंस प्राप्त डॉक्टर के साथ सात साल तक, उनके सहायक के रूप में काम किया. फिर उन्हें लगा कि झोला-छाप ‘डॉक्टर’ के तौर पर लोगों का इलाज शुरू कर देने के लिए, उनका यह अनुभव काफ़ी था.

मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया (एमसीआई) के अनुसार, केवल एमसीआई द्वारा मान्यता प्राप्त लाइसेंसधारी डॉक्टर ही मरीज़ों का इलाज कर सकते हैं. इसलिए अवैध रूप से लोगों का इलाज करना एक ख़तरनाक व्यवसाय है. विजय जैसे झोला-छाप डॉक्टरों का कहना है कि उन्हें क़ानून से एक क़दम आगे रहना पड़ता है, और पहले से योजना बनाकर रखनी पड़ती है: वह कहते हैं, “हम दवाओं वाले बैग को आसानी से नष्ट कर सकते हैं, इसलिए हमारे ख़िलाफ़ [अवैध डॉक्टरी के जुर्म में] मुक़दमा बनाना मुश्किल है.”
जब वे पकड़े जाते हैं, तो रिश्वत देकर बच निकलते हैं. कभी-कभी 5 हज़ार रुपए तक रिश्वत में देने पड़ते हैं, ताकि लोगों के सामने गिरफ़्तारी और भंडाफोड़ होने से सुरक्षित रहा जा सके.
लेकिन इस सब बातों से विजय को ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ता, और वह अपना काम मज़े से करते हैं. वह मानते हैं कि वह लोगों की सेवा कर रहे हैं. “अगर मेरे गांव में कोई बीमार पड़ जाए, तो हमें डॉक्टर की खोज में 25 किलोमीटर दूर प्रखंड मुख्यालय जाना पड़ता था. मैं यह सब देखकर बड़ा हुआ और मैंने फ़ैसला किया कि मैं अपने गांव के लोगों की चिकित्सकीय मदद करूंगा. मुझे अब ऐसा कर पाने की ख़ुशी है.” वह डॉक्टरी के अपने पेशे को लेकर होने वाली किसी भी आलोचना – जैसे, उनके पास योग्यता नहीं है, न ही उनके पास लाइसेंस है, और न ही वे क़ानूनी तौर पर मान्यता प्राप्त हैं – को ख़ारिज करते हैं. विजय का कहना है कि उनका ध्यान सिर्फ़ उन लोगों से मिलने वाले सम्मान पर होता है जिनके बीच वह रहते हैं, जिनका वह इलाज करते हैं और जिन लोगों का उनके इलाज पर विश्वास है. वे अधिकतर लोगों का इलाज एलोपैथिक दवाएं, जैसे इबुप्रोफेन, एंटीबायोटिक्स और यहां तक कि पैरासीटामॉल के इंजेक्शन द्वारा करते हैं.
आज भी, जांजगीर चांपा ज़िले के मलखरोदा ब्लॉक में, विजय और अन्य लोगों को सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के तहत इलाज के लिए, काफ़ी यात्रा करनी पड़ती है. कभी-कभी तो जंगलों से होते हुए, टूटी और कीचड़ से भरी सड़कों के रास्ते पांच किलोमीटर चलना पड़ता है. वह कहते हैं, “मैं मरीज़ों का तत्काल इलाज करके उन्हें आराम पहुंचाता हूं, और उनका पैसा व समय भी बचाता हूं.” केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा मई 2021 में प्रकाशित रिपोर्ट में कहा गया है कि छत्तीसगढ़ में लगभग 27, 218 ग्रामीणों के इलाज के लिए केवल एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र उपलब्ध है. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में 404 डॉक्टरों की कमी है. राज्य के आदिवासी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सहायकों की भी कमी है. रिपोर्ट के अनुसार, 31 मार्च, 2020 तक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में 1393 स्वास्थ्य सहायकों की कमी थी.
दो दशक पहले जब वह स्कूल की पढ़ाई पूरी कर रहे थे, तब विजय मेडिकल डिग्री हासिल करना चाहते थे, लेकिन वह इस डिग्री में होने वाले ख़र्च को वहन नहीं कर सकते थे. वह कहते हैं, “मेरे जैसे किसी व्यक्ति के लिए बीएससी करना ही अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि थी. मुझे कक्षा 9 से 12 तक स्कूली शिक्षा पाने के लिए भी प्रतिदिन 50 किलोमीटर साइकल चलानी पड़ती थी.” उन्हें याद है कि उनके तमाम दोस्तों का स्कूल छूट गया था. शिक्षा के दूसरे विकल्पों और करियर के लिए परामर्श व मार्गदर्शन हासिल करने से वे वंचित रहे.

डॉक्टर कहां हैं?
मालखरोदा प्रखंड के पूर्व विधायक रंजीत अजगले (46 वर्ष) बताते हैं, ”ग्रामीण इलाक़ों में जीव विज्ञान के स्नातक एमबीबीएस डॉक्टरों की कमी को भरने की कोशिश कर रहे हैं.” साल 2010 की एक रिपोर्ट उनके इस कथन का समर्थन करती है, जिसमें कहा गया है कि ‘…ग्रामीण क्षेत्रों में डॉक्टरों की अत्यधिक कमी के कारण झोला-छाप डॉक्टर, प्राथमिक स्वास्थ्य और देखभाल के मुख्य स्रोत बन गए हैं.’ ‘व्हिच डॉक्टर फ़ॉर प्राइमरी हेल्थ केयर’ नामक यह रिपोर्ट, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन और पब्लिक हेल्थ फ़ाउंडेशन ऑफ़ इंडिया द्वारा संयुक्त रूप से प्रकाशित की गई थी.
योग्य स्वास्थ्यकर्मियों की कमी, ख़राब रास्ते व सड़कें, घने जंगल, और नक्सली हिंसा के साथ-साथ राज्य समर्थित सलवा जुडूम मिलिशिया की मौजूदगी के कारण लोगों को अपने गांव की सुरक्षा की चिंता सताती है, इसलिए वे गांव से जाना नहीं चाहते. इसलिए, अपने बीच रहने वाले जान-पहचान के इस ‘झोला-छाप’ डॉक्टर को चुन लिया जाता है. यह तथ्य कि वे बिना लाइसेंस वाली डिग्री के निदान और उपचार करेंगे, और हर बार एक मरीज़ को जोखिम में डालेंगे, यह बात लोगों को उनके पास जाने से नहीं रोकती. अगर मरीज़ की हालत न बिगड़ जाए, तब तक लोगों की सहानुभूति उन्हें मिलती रहती है.
भूमिहीन खेतिहर मज़दूर रथबाई (जिन्हें उनके गांव मालखरोदा में सिरियागधीन के नाम से भी जाना जाता है) कहती हैं कि जब भी उनके घर में कोई बीमार पड़ता है, तो वे लोग सबसे पहले झोला-छाप डॉक्टर के पास जाते हैं. 33 वर्षीय रथबाई पूछती हैं, “हमारे पास मोटरबाइक नहीं है, ऐसे में हम किसी बीमार व्यक्ति को [सार्वजनिक] अस्पताल कैसे ले जाएंगे?” वह आगे कहती हैं, “इसके अलावा, पैसा न होने पर, झोला-छाप डॉक्टर उधार पर उनका इलाज कर देते हैं. यदि हम अस्पताल जाते हैं, तो उनकी लिखी अधिकतर दवाएं एक मेडिकल शॉप में ही ख़रीदी जा सकती हैं, और वे हमें उधार पर दवाएं नहीं देते.”
मालखरोदा ब्लॉक के ब्लॉक चिकित्सा अधिकारी (बीएमओ) डॉक्टर रविंद्र सिदार कहते हैं, “कर्मचारियों और बुनियादी ढांचे की कमी के कारण ग्रामीण क्षेत्रों की सरकारी सुविधाएं ख़स्ता-हाल हो गई हैं.” इस ब्लॉक में 108 गांव हैं, जिनकी कुल आबादी 1,40,175 (जनगणना 2011) है. 2014-15 की ज़िला सांख्यिकी रिपोर्ट में कहा गया है कि ब्लॉक में सिर्फ़ चार एलोपैथिक डॉक्टर हैं, जो एक अस्पताल व डिस्पेंसरी, पांच प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों, और 23 उप-स्वास्थ्य केंद्रों का काम संभालते हैं. उन्होंने आगे कहा, “बेशक, झोला-छाप डॉक्टरों की संख्या बढ़ रही है और हर गांव में दो से तीन ऐसे डॉक्टर मिल सकते हैं.”


रथबाई (बाएं) अपनी पांच साल की बेटी भविष्या के साथ घर के बाहर बैठी हैं. दाएं: मालखरोदा ब्लॉक के पूर्व विधायक प्रतिनिधि रंजीत अजगले (दाएं) गांव के गौरा चौक पर, पूर्व में बतौर दर्ज़ी काम कर चुके कोंडू (बाएं) के साथ. रंजीत कहते हैं, “ग्रामीण इलाक़ों में जीव विज्ञान के स्नातक एमबीबीएस डॉक्टरों की कमी को भरने की कोशिश कर रहे हैं.” तस्वीरें: आयुष मंगल
झोला-छाप डॉक्टरों की संख्या तेज़ी से बढ़ने का कारण, लोगों के इलाज के प्रति उनकी तत्परता भी है. पड़ोसी गांव के एक झोला-छाप डॉक्टर राजेश (बदला हुआ नाम) कहते हैं, “हम हमेशा ही मौजूद रहते हैं; ख़ासकर, देर रात और तड़के सुबह. इसलिए मरीज़ों को भरोसा रहता है कि हम ज़रूर आएंगे. यह सुविधा [सरकारी या निजी] अस्पतालों में नहीं है.”
राज्य में स्वास्थ्य देखभाल के विकल्पों की कमी, स्वास्थ्य से जुड़े ख़तरों की तरफ़ संकेत करते हैं: केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा मई 2021 में प्रकाशित ग्रामीण स्वास्थ्य से जुड़े आंकड़ों पर आधारित इस रिपोर्ट के अनुसार, यहां ग्रामीण स्तर पर मृत्यु दर 8.6 प्रतिशत है, जो देश में सबसे ज़्यादा है. इसके अलावा, राज्य में नवजात बच्चों की मृत्यु दर 42 प्रतिशत है, जोकि राष्ट्रीय आंकड़े (36 प्रतिशत) से कहीं ज़्यादा है. साथ ही, साल 2020 में मलेरिया के चलते देश में सबसे ज़्यादा 18 मौतें छत्तीसगढ़ में हुई थीं.
एक और झोला-छाप डॉक्टर से मिलने के लिए, मुझे जंगल से गुज़रने वाली कच्ची सड़कों से होते हुए 20 किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ी. उनका क्लिनिक एक मंज़िला वाले एक पक्के मकान के सबसे आगे वाले कमरे में सेट अप किया गया था. मानसून के कारण कीचड़ भरी सड़कें और भी फिसलन वाली हो गई थीं, जिसके कारण हमारी दोपहिया गाड़ी के फिसलने का ख़तरा ज़्यादा था. इसी कारण, हमने बाइक खड़ी कर दी और पैदल यात्रा करने का फ़ैसला किया.
यह ‘क्लीनिक’ राजेश का है, जो एक झोला-छाप डॉक्टर हैं. 12वीं के बाद, राजेश ने विज्ञान में स्नातक करने के लिए आवेदन किया था और उन्हें प्रवेश भी मिल गया था, लेकिन वह पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए. वह कहते हैं, “मेरे परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, और घरवाले चाहते थे कि मैं कमाना शुरू कर दूं. फिर मैंने एक डॉक्टर के साथ मेडिकल कंपाउंडर के रूप में काम करना शुरू किया.” बाद में, जब वह कॉलेज की फ़ीस भरने की स्थिति में आ चुके थे, तो उन्हें लगा, “मैं पहले से ही चिकित्सकीय उपचार करना सीख रहा था, इसलिए कॉलेज जाना ज़रूरी नहीं लगा.” उनका कहना है कि वह लगभग 12,000 से 18,000 रुपए प्रति माह कमा लेते हैं. वह बताते हैं, “यहां के ख़र्चे कम हैं, इसलिए मैं इसमें से अच्छा-ख़ासा पैसा बचा लेता हूं. शहर में, मैं लगभग 25,000 रुपए कमा लेता, लेकिन वहां के ख़र्चे बहुत ज़्यादा होते हैं.”


राजेश के काम करने की जगह पर एक रक्तदाबमापी (रक्तदाब रिकॉर्ड करने की मशीन), उधारी का लेखा-जोखा रखने के लिए रजिस्टर, दवाओं की एक शेल्फ़, इंजेक्शन, वज़न मापने की मशीन, और ऐसे ही अन्य सामान रखे होते है. तस्वीरें: आयुष मंगल
साफ़-सुथरे कपड़े पहने राजेश अपने सामने वाली स्टूल पर बैठे एक मरीज़ को देख रहे थे. रोगी के साथ आने वाले परिजनों के लिए, उस कमरे में कुछ कुर्सियां रखी हुई थीं, इंजेक्शन लगाने के लिए या ड्रिप चढ़ाने के लिए लकड़ी का तख़्ता रखा था, और एक वज़न करने वाली मशीन रखी थी. मेज पर एक रक्तदाबमापी (रक्तदाब को रिकॉर्ड करने के लिए मशीन), दवाओं और इंजेक्शनों का एक डिब्बा और किताबों का एक ढेर, एक डेस्क कैलेंडर, और एक वार्षिक डायरी रखी है. राजेश बताते हैं, “इस डायरी में मैं उधार की जानकारी लिखता हूं.” उनके बहुत से मरीज़ उन्हें तुरंत भुगतान नहीं कर पाते. वह बताते हैं, “बकाए के भुगतान के लिए, उन्हें बाज़ार के दिन या फ़सल कटाई का इंतज़ार करना पड़ जाता है.”
झोला-छाप डॉक्टरों के बीच अपने मरीज़ों से संबंध बनाए रखने की होड़ रहती है, और इसलिए उधार में इलाज करना ज़रूरी होता है. विजय कहते हैं, “अगर मैं उधार पर इलाज करने से मना कर दूं, तो मेरा बिज़नेस बंद हो सकता है. मान लीजिए कि जब मैं तीन सौ रुपए की अपनी फ़ीस मांगता हूं, तो परिवार आमतौर पर मुझे सौ रुपए देते हैं और कहते हैं कि जब उनके पास पैसे होंगे, तो बकाये का भुगतान कर देंगे. विजय अनुमान लगाते हुए कहते हैं कि उनकी 2,50,000 रुपए की फ़ीस बकाया है, लेकिन उन्हें इनमें से “केवल 50,000 रुपए ही मिलने की उम्मीद है. और उनके मुताबिक़ उधार के बाक़ी पैसे तो डूब चुके हैं.” इसलिए इस क़र्ज़ की वसूली के लिए, वह ज़्यादा फ़ीस लेते हैं और दवाओं को ऊंचे दामों पर बेचते हैं.
यहां काम करने वाले एमबीबीएस डॉक्टर भी चाहते हैं कि उन्हें शहरी पोस्टिंग मिले. मालखरोदा प्रखंड में स्थित सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) में दो साल तक काम कर चुकी डॉक्टर नलिनी सिंह चंद्रा कहती हैं, “अगर सरकार के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने का अनुबंध नहीं होता, तो शायद ही मैं ग्रामीण क्षेत्र में दो साल तक काम करती.” वह आगे कहती हैं, “ग्रामीण क्षेत्रों में एमबीबीएस डॉक्टर के लिए, सामाजिक और आर्थिक, दोनों संसाधनों का अभाव होता है. यहां कोई अविवाहित डॉक्टर तो फिर भी रह सकता है, लेकिन अगर कोई शादीशुदा ज़िंदगी शुरू करना चाहता है, तो उसके लिए यह अच्छा निर्णय नहीं होगा.”
राज्य द्वारा नियुक्त चंद्रा जैसे डॉक्टरों को झोला-छाप डॉक्टरों की लोकप्रियता और उनकी आसानी से उपलब्धता की चुनौती का सामना करना पड़ता है. डॉ चंद्रा एक पड़ोसी गांव में झोला-छाप डॉक्टर का सामना करने के एक मुहिम को याद करती हैं. वह बताती हैं कि गांव के लोगों ने उन्हें और जांच दल को यह कहते हुए डांटा, “ऐले बंद करवा दिस बढ़िया इलाज ला. दौड़-दौड़ के मालखरौदा कब तक जाबो हमन. हमन के जब तबियत खराब होथे तो ये MBBS वाले तो नहीं आते हम लोगों को देखने.” (देखो, हमें अच्छी-ख़ासी चिकित्सा सेवा यहां मिल रही थी, उसे इन्होंने बंद करवा दिया. अब हमें बीमार पड़ने पर 20 किलोमीटर भागकर मालखरोदा जाना होगा. ये [एमबीबीएस] डॉक्टर हमें देखने भी नहीं आएंगे, हमारे झोला-छाप डॉक्टर ज़रूर आएंगे.)”

झोला-छाप डॉक्टर अपने मरीज़ों के प्रति सहानुभूति रखते हैं – जैसे कि वह दिहाड़ी मज़दूर, जो बीमार पड़ने पर गुज़ारे के लिए ज़रूरी कमाई का वह दिन खो बैठते हैं. वे कहते हैं: ‘डॉक्टर, मुझे जल्द से जल्द ठीक कर दो; मुझे काम पर जल्दी लौटना है.’ विजय कहते हैं कि केवल इंजेक्शन लगाने पर उन्हें उनकी देखभाल और डॉक्टरी विशेषज्ञता को लेकर संतुष्टि होती है, और इसलिए उन्हें मजबूरन सिरिंज का इस्तेमाल करना पड़ता है.
इलाज के उनके इस तरीक़े को देखकर डॉक्टर भड़क जाते हैं. डॉ. चंद्रा कहती हैं, “ज़्यादातर मरीज़, जिन्हें मैं बाहरी मरीज़ों के तौर पर देखती हूं, पाती हूं कि वे इंजेक्शन लेने के बाद आए हैं. वे कहते हैं, ‘सूई लगेगी तभी ठीक होंगे.’ ग्रामीणों की यह मानसिकता झोला-छाप डॉक्टरों द्वारा इंजेक्शन लगाकर इलाज किए जाने का परिणाम है, जिन्हें लगता है कि इससे ही मरीज़ ठीक होंगे. यह एक चलन बन गया है.” डॉ चंद्रा उनकी इस आदत से दुखी हैं.
झोला-छाप डॉक्टरों की ईमानदारी
विजय उन बीमारियों के बारे में बताते हैं जिनका इलाज झोला-छाप डॉक्टर करते हैं, और साथ ही उन बीमारियों के बारे में भी बताते हैं जिनका इलाज वे नहीं करते. वह कहते हैं, “कुछ बीमारियां हैं, जिन्हें हम ‘सरकारी केस’ [सरकारी अस्पताल के केस] कहते हैं, और उनका इलाज हम बिल्कुल भी नहीं करते हैं. जैसे कि कुष्ठ, तपेदिक, हैजा, दस्त, मलेरिया, डेंगू आदि. साथ ही, गर्भावस्था और प्रसव के मामले भी नहीं देखते. हम इन मामलों को सीधा सरकारी अस्पताल भेज देते हैं. सरकार भी इन केसों को लेकर सख़्ती दिखाती है, और अगर कोई व्यक्ति इन बीमारियों का इलाज करता हुआ पकड़ा जाता है, तो फिर रिश्वत की भी कोई गुंजाइश नहीं बचती.”
पिछले दो वर्षों से, विजय हर उस व्यक्ति को मालखरोदा के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र भेज देते हैं जिसे सर्दी और खांसी की लगातार शिकायत बनी हुई हो. यदि वे जांच में कोविड पॉज़िटिव आते हैं, तो झोला-छाप डॉक्टर उनका इलाज नहीं करते, और उनका इलाज अस्पताल में ही होता है. कोविड के बढ़ते मामलों को देखते हुए विजय को अपने परिवार की बहुत चिंता रहती थी. वह कहते हैं, “मेरी पत्नी गर्भवती थी और मैं उसके लिए बहुत चिंतित था. मैंने अपनी नवजात बच्ची को वायरस से बचाने के लिए, ख़ुद को क्वारंटीन कर लिया था. जब उसका जन्म हुआ था, तो मैंने उसे दूर से ही देखा था बस.”

अपने मरीज़ों के साथ घनिष्ठ संबंध होने के बावजूद, अपने काम के लिए आधिकारिक मान्यता प्राप्त न होने के चलते उन्हें पहचान नहीं मिलती. विजय कहते हैं, “पंजीकृत डॉक्टरों के विपरीत, हमारे काम की कोई क़द्र नहीं है. अगर किसी डॉक्टर को कुछ होता है, तो सरकार मुआवज़ा देती है, और वह समाज की नज़रों में हीरो बन जाते हैं, मशहूर हो जाते हैं. हमारे साथ ऐसा नहीं है. अगर मुझे कुछ हो गया, तो मेरे परिवार को गुज़ारे के लिए मज़दूरी करनी पड़ेगी. लेकिन, हम अपना काम कर रहे हैं.”
Editor's note
आयुष मंगल, बेंगलुरु के अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में एमए के अंतिम वर्ष के छात्र हैं. वह साल 2021 की गर्मियों में पारी के लिए बतौर इंटर्न काम कर चुके हैं. छत्तीसगढ़ में रहने वाले आयुष झोला-छाप डॉक्टरों पर शोध करना चाहते थे. वह कहते हैं, “मैंने झोला-छाप डॉक्टरों, समुदायों (जिनका झोला-छाप डॉक्टर इलाज करते हैं), और ग्रामीण क्षेत्रों में मौजूद सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के बीच उलझे संबंध को देखा है. इन इलाक़ों में स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार लाने के लिए, कोई भी नीति बनाने से पहले इन जटिलताओं को समझने की ज़रूरत है."
अनुवाद: अमित कुमार झा
अमित कुमार झा, पेशे से अनुवादक हैं. उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई की है और अब जर्मन सीख रहे हैं.