गीले हेयरबैंडों और पैकेट बंद खाने की थैलियों के आसपास छोटे, सफ़ेद कीड़े कलबला रहे हैं. सरम्मा बड़ी बेपरवाही के साथ अपने नंगे हाथों से कचरा उठाती हैं और एक बड़े और मज़बूत प्लास्टिक बैग में डाल देती हैं.

पिछले 20 सालों से तिरुवनंतपुरम के पेरूर्कडा वार्ड में च्वारु परुक्कुन्ना अलुकल (कचरा बीनने वाली कामगार) के तौर पर काम करते हुए, एन. सरम्मा को सड़े हुए भोजन, टूटे हुए कांच जैसे ख़तरनाक कचरे को उठाना पड़ता है.

वह बताती हैं कि कई बार ऐसा हुआ है, जब प्लास्टिक के कचरे के साथ फेंके गए कांच के टुकड़ों से उन्हें चोट पहुंची है. एक बार टूटे शीशे से हाथ कट जाने के कारण, उन्हें एक निजी अस्पताल जाकर टांके लगवाने पड़े थे. “इलाज के बदले मुझसे अस्पताल में पैसे लिए गए थे,” यह कहते हुए वह अपने पैरों की ओर इशारा करती हैं, “मेरे दोनों पैरों पर छोटे-छोटे लाल दाने उभर आए थे. धीरे-धीरे संक्रमण फैलता गया और यह सड़ने लगा तथा काला पड़ गया. इसके बाद मैं अस्पताल गई. मुझे पता था कि यह गंदे पानी के संपर्क में रहने के कारण हुआ था.”

सरम्मा यह काम दस्ताने या मास्क जैसे सुरक्षा उपकरणों के बिना ही करती हैं, जिसके कारण वह तक़रीबन हर रोज़ जोखिम उठाती हैं, लेकिन वह इन चीज़ों को लेकर ज़्यादा चिंतित नहीं होतीं. सरम्मा कहती हैं, “आपको प्लास्टिक का कचरा फेंकने से पहले उसे धोना चाहिए, लेकिन मैं इस बात के लिए किसी को ज़्यादा ज़ोर नहीं देती.” उन्हें पता है कि आमतौर पर घरों में इस्तेमाल की गई प्लास्टिक की थैलियों को धोकर सुखाने का समय नहीं होता है.

सरम्मा हर सुबह 105 घरों से कचरा उठाती हैं. तस्वीरें: आयशा जॉयस

सरम्मा (62 वर्ष) का दिन सुबह 6:00 बजे शुरू हो जाता है, क्योंकि उन्हें हर रोज़ 105 घरों का कचरा उठाना होता है. ये सभी घर केरल की राजधानी के पांच से अधिक हाउसिंग कॉलोनियों – श्री नगर, ऐश्वर्या गार्डेन्स, दुर्गा नगर, उल्यनाडु और जर्नलिस्ट कॉलोनी में स्थित हैं. यहां का हर परिवार सीधा अपने घर से कचरा उठाने के बदले उन्हें 500 रुपए महीने का भुगतान करता है.

जो लोग इस काम के लिए सरम्मा को पैसे नहीं देना चाहते हैं वे रात के समय बाहर कचरा फेंकते हैं. इसके चलते, भूखे आवारा कुत्ते खाने की तलाश में प्लास्टिक की थैलियों को फाड़ देते हैं. कुत्ते उनकी बोरियों को भी अक्सर फाड़ देते हैं, जिसकी वजह से बार-बार उन्हें बदलने की ज़रूरत पड़ती है. एक महीने में, सरम्मा 10-16 बोरियों का इस्तेमाल करती हैं और उन्हें इन बोरियों को अपने पैसों से ही ख़रीदना पड़ता है. वह कहती हैं, “इससे मेरी मुश्किलें बढ़ जाती हैं; ऐसा नहीं होता, अगर लोग बोरियां लाने के लिए मुझे 500 रुपए और देते.”

घरों और कचरा छांटने की जगह के बीच की दूरी लगभग तीन किलोमीटर है, और इस काम के लिए सरम्मा ने एक ऑटो रिक्शा किराए पर लिया है. ऑटो ड्राइवर के साथ वह लोगों के घर और छंटाई की जगह के कई चक्कर लगाती हैं. छंटाई की जगह से कचरे को एक निजी कंपनी को सौंप दिया जाता है, जो इसे पिग फार्म (सुअर पालन) और रीसाइक्लिंग केंद्रों में ले जाती है.

सरम्मा जैसे कचरा उठाने वाले कामगार, छंटाई की जगह से कचरा ले जाने के लिए इन निजी कंपनियों को भुगतान करते हैं. कंपनियों के भुगतान, बोरियों का ख़र्च, और ऑटो का भाड़ा चुकाने के बाद, हर महीने उनके पास क़रीब 5,000 रुपए बचते हैं.


सरम्मा ने अपना सारा जीवन तिरुवनंतपुरम के राजाजी नगर की एक बड़ी झुग्गी बस्ती – चेंगलचूला कॉलोनी – में गुज़ारा है. जब वह एक साल की थीं, तब उनका परिवार क़रीब चार किलोमीटर दूर स्थित गुंडुकाड कॉलोनी नामक एक दूसरी झुग्गी बस्ती से यहां रहने आ गया था. वे बेहतर दिहाड़ी वाले काम की तलाश में यहां आए थे. सरम्मा जब मात्र सात साल की थीं, उन्हें यहां से 66 किलोमीटर दूर स्थित कोल्लम शहर के एक घर में घरेलू नौकर के रूप में काम करने को मजबूर होना पड़ा था.

सरम्मा याद करती हुई बताती हैं, “उस समय मुझे कुछ नहीं आता था. मैं नींद में बिस्तर पर ही पेशाब कर देती थी. मैंने उस घर में डेढ़ साल तक काम किया, और बाद में जब मेरे पिता को मुझे इतना दूर भेजने के लिए अपराधबोध महसूस हुआ, तो वह मुझे वापस ले गए.” हालांकि, घर वापस आने के बाद वह आसपास के कई घरों में काम करने लगीं और केवल 12 साल की उम्र में निर्माण स्थलों पर मज़दूरी भी करने लगीं. वह कहती हैं, “उस समय माहौल बिल्कुल अलग था, और बाल श्रम क़ानून था ही नहीं. मैं अपनी उम्र से बड़ी दिखने लगी थी.” उनके मुताबिक़, दलित परिवारों के लिए ऐसी कठिनाइयां झेलना आम बात हुआ करती थी.

सरम्मा के माता-पिता अकुशल श्रमिक थे, और वह उनकी चौथी संतान थीं. परिवार के ख़र्चों को पूरा करने के लिए उनका काम करना ज़रूरी था. जब वह कक्षा दो में थीं, उनकी पढ़ाई छुड़ा दी गई थी; हालांकि, उनके भाई-बहनों ने कक्षा 8 और 10 तक की पढ़ाई की थी.

वह कहती हैं, “मैं पढ़ या लिख ​​नहीं सकती. हस्ताक्षर करते हुए केवल तीन लाइनें खींच देती हूं. मैं बड़ी मुश्किल से बड़े आकार में छपे मलयालम के अक्षर पढ़ पाती हूं. मेरे बच्चे पढ़े-लिखे हैं.” उनके बच्चों ने पास के ही एक सरकारी स्कूल में पढ़ाई की थी.

सरम्मा के पास न तो कोई बैंक खाता है, न ही कोई स्वास्थ्य बीमा है. उन्हें केरल सरकार की विधवा पेंशन जैसी किसी समाज कल्याण योजना के तहत कोई लाभ भी नहीं मिलता है; ग़रीबी रेखा से नीचे गुज़र-बसर करने वाले लोगों को दी जाने वाली स्वास्थ्य बीमा और वृद्धा पेंशन भी उन्हें नहीं मिला. राज्य की विधवा पेंशन योजना के अनुसार उन्हें प्रति माह 1,400 रुपए मिलने चाहिए, लेकिन वह बताती हैं कि उन्होंने इसके लिए आवेदन नहीं किया है.

सरम्मा कहती हैं, “1,400 रुपए प्रतिमाह के लिए, आपको कई दिनों तक सरकारी अधिकारियों के पीछे भागना पड़ता है. अगर मैं एक दिन काम न करूं, तो मुझे पैसों का नुक़सान हो जाता है.” वह कहती हैं कि आधार कार्ड, राशन कार्ड और वोटर आईडी होने के बावजूद, उन्हें बैंक खाता खुलवाने के लिए ज़रूरी काग़ज़ी कार्रवाई पूरा करने का समय नहीं मिल रहा है. और फिर अगर वह एक दिन भी काम पर नहीं जाएंगी, तो उनके मुताबिक़, “कचरा सड़ने लगेगा और इससे हर किसी को परेशानी होगी.”


सरम्मा सुबह घर से जल्दी निकल जाती हैं और घर वापस लौटने के बाद ही दिन का पहला भोजन कर पाती हैं. भोजन में वह आमतौर पर चावल और पिछले दिन की बची हुई करी खाती हैं. वह कहती हैं, “सुबह मैं केवल काली चाय पीती हूं. जब मैं घर आती हूं, तो नहाने के बाद खा पाती हूं.” अगर वह नाश्ता करती भी हैं, तो पास की दुकान पर चाय पीती हैं और वड़ा खाती हैं, क्योंकि खाने से पहले उन्हें अपने हाथ ठीक से धोने का मौक़ा नहीं मिलता. काम के दौरान वह सिर्फ़ पानी पीती हैं.

वह जिस क्षेत्र में रहती हैं उसे अक्सर अवैध शराब, ड्रग्स, गुंडों और अपराधों के लिए जाना जाता है. लेकिन, सरम्मा का कहना है कि पिछले 20 वर्षों में यहां काफ़ी बदलाव आया है, और अब यह कॉलोनी उन लोगों की शरणस्थली बन गई है जिन्हें भोजन, सोने की जगह, पहनने के लिए कपड़े और पैसों की ज़रूरत है.

वह कहती हैं, “मैंने बहुत सी कठिनाइयों का सामना किया है. न सोने के लिए घर था, न खाना था, न पहनने के लिए कपड़े थे. मैं बरामदों में सो जाती थी, सुबह उठती थी, और विवाह सभागारों में चली जाती थी, ताकि वहां से मुफ़्त खाना मिल जाए. मैंने जीवन में बहुत कुछ सहा है.” वह नहीं चाहतीं कि जिन हालात का उन्होंने सामना किया है, किसी और को भी उनका सामना करना पड़े. लोगों को भोजन कराने के लिए, सरम्मा के घर के दरवाज़े रात 11 बजे तक खुले रहते हैं. वह उन अनजान मेहमानों के लिए खाना बनाती हैं जिन्हें रात को किसी ठिकाने की ज़रूरत हो सकती है या उन बच्चों के लिए जो झुग्गी-झोपड़ी में रहते हैं.

वह अपनी बेटी और बहू के बारे में बताती हैं, “बचपन में मैंने घोर ग़रीबी का सामना किया, और मैं चाहती हूं कि किसी को भी भूखा सोने को मजबूर न होना पड़े. मेरा परिवार भी यही मानता है.” उनका परिवार हर दिन लगभग 2.5 किलो चावल पकाता है, और उनका एक गैस सिलेंडर क़रीब 15 दिन ही चल पाता है.

धनुजा कुमारी एस., सरम्मा की दूसरी संतान हैं और उन्होंने झुग्गी बस्ती में बिताए अपने जीवन के बारे में साल 2014 में प्रकाशित हुई चेंगलचूलयिले एंटे जीवितम (माई लाइफ़ इन चेंगलचूला) नामक किताब लिखी है. यह एक आत्मकथा है, जिसमें धनुजा के झुग्गी में बड़े होने के दौर की कहानी है. वह अपने परिवार द्वारा झेले जातिगत उत्पीड़न, घर के दोनों बच्चों की पढ़ाई के दौरान आई कठिनाइयों, और हाशिए के समुदाय के रूप में आने वाली समस्याओं को साझा करती हैं. उन्होंने 10वीं तक की पढ़ाई की है और किताब का तीसरा संस्करण आने के साथ लेखक के तौर पर स्थापित हो चुकी हैं. इसके बावजूद भी उन्हें अपनी मां के साथ कचरा उठाने का काम करना पड़ता है.

जब सरम्मा से पूछा गया कि उनकी बेटी भी यह काम क्यों करती है, तो वह कहती हैं, “एक दलित को नौकरी देगा कौन? लोग हमेशा यह देखते हैं कि आप अन्य लोगों के सामने क्या हैसियत रखते हैं. हम कितनी भी चतुराई से काम करें, कुछ भी कर लें, लेकिन हमारे पास कोई और रास्ता नहीं है. हमारी ज़िंदगी बस इसी तरह चल रही है.”

वह गर्व के साथ कहती हैं, “मैं कचरा उठाकर जीवनयापन करती हूं. मुझे अपने काम पर गर्व है. मुझे लगता है कि यह एक अच्छा काम है. लेकिन हमारी आने वाली पीढ़ी को यह काम नहीं करना चाहिए.”

पारी के होमपेज पर लौटने के लिए, यहां क्लिक करें.

Editor's note

आयशा जॉयस, सोनीपत में स्थित अशोका यूनिवर्सिटी से स्नातक की पढ़ाई कर रही हैं. उन्होंने साल 2022 में पारी के साथ इंटर्नशिप किया था और स्टोरी के लिए सरम्मा की कहानी का चुनाव किया.

वह कहती हैं, "ज़्यादातर धनुजा की ज़िंदगी को ही दर्ज किया जाता रहा है. मैं उस इंसान के बारे में जानना चाहती थी, जिसने धनुजा के वैसा बनाया जैसी वह आज हैं. पारी से मिले दृष्टिकोण ने मुझे सही प्रश्न पूछने के लिए प्रेरित किया, और मुझे वह रास्ता दिखाया जिसके ज़रिए पत्रकारिता करते हुए व्यक्तिगत राय को स्टोरी के आड़े आने से रोकने में मदद मिल सके.”

अनुवाद: अमित कुमार झा

अमित कुमार झा एक अनुवादक हैं, और उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री हासिल की है.