अजिता (48 साल) को टोकरी बुनने के लिए केवल एक कत्ती (छुरी) की ज़रूरत पड़ती है. सबसे पहले वह बांस के कुछ तंतुओं को सही कोणों पर एक-दूसरे के आड़े रखती हैं, और फिर एकमात्र तंतु की मदद से उन्हें एक-दूसरे के साथ बुनती जाती हैं. यह काम वे तब तक करती रहती हैं जब तक टोकरी की परिधि पूरी नहीं हो जाती है.

अजिता बताती हैं, “मैंने यह कारीगरी 16 साल की उम्र में सीखनी शुरू की.” उन्हें 10वीं कक्षा के बाद स्कूल जाना छोड़ना पड़ा था, क्योंकि उनके पिता जो एक खेतिहर मज़दूर थे, की आमदनी इतनी अधिक नहीं थी कि वे त्रिशूर ज़िले के चलाकुडी ब्लॉक में पड़ने वाले कुट्टीचिरा गांव में रहने वाले अपने पूरे परिवार की परवरिश कर सकें.

अजिता (48 साल) को टोकरी बुनने के लिए सिर्फ़ एक कत्ती (छुरी) की ज़रूरत पड़ती है. फ़ोटो सौजन्य: डॉन फिलिप

आज अजिता अपने पति की थोड़ी-बहुत मदद से बांस की तरह-तरह की वस्तुएं बनाती हैं, जिनमें लैंप शेड, पेन स्टैंड, सभी प्रकार और आकार के पंखे और टोकरी, और बांस के बने ख़ूबसूरत फूल शामिल हैं. उन फूलों को कांच की बोतलों में रखा जाता है. फिर उन बोतलों पर बांस की ही बारीक़ कढ़ाई वाले सुंदर कवर बुने जाते हैं.

वह विस्तार से बताती हैं, “एक टोकरी पूरा करने में डेढ़ दिन लग जाते हैं. एक दिन उसे बुनने के लिए चाहिए होता है, और आधा दिन टोकरी को चिकना करने के लिए उस पर के महीन रेशों को साफ़ करने में लगता है – रेशे जितने कम रहेंगे, टोकरी की चमक उतनी ही ज़्यादा बढ़ेगी.” एक लैंपशेड पूरा होने में दो दिन लगते हैं, जबकि 8 से 10 फूलों का एक गुच्छा या पांच पेन स्टैंड एक दिन में बन जाते हैं. बोतलों पर बांस का कवर चढ़ाना बहुत बारीक़ और मेहनत का काम है और इसमें पूरे दो दिन लग जाते हैं.

उनके इर्द-गिर्द बांस के बने सामान बिखरे हुए हैं जो उन्हीं के बनाए हुए हैं, और उन सामानों में एक चमक है. वह बताती हैं, “बांस में एक क़ुदरती चमक होती है जो उसके सूखेपन पर निर्भर होती है. बांस जितना अधिक सूखा होगा उसकी चमक उतनी ही ज़्यादा होगी.” अजिता अपने हाथ से बनाई गई चीज़ों पर वार्निश का प्रयोग न के बराबर करती हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि लंबी अवधि के बाद यह बांस को ख़राब कर देता है.

अजिता को बांस चलाकुडी के बैंबू कॉरपोरेशन डिपो में मिलता है जो उसी इलाक़े में उनके घर से कोई 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. अजिता महीने में एक बार या तो बांस ख़रीदने ख़ुद डिपो जाती हैं या फिर डिपो के कर्मचारी उनके घर से गुज़रते हुए उन्हें बांस पहुंचा जाते हैं. वह हरेक महीने 30 रुपए प्रति बांस की दर से लगभग 100 बांस ख़रीदती हैं, जो अमूमन 10 मीटर लंबे होते हैं. जो कर्मचारी डिपो से उन्हें बांस देने के लिए आते हैं वही उन बांसों को एक शेड में रखने में उनकी मदद भी कर देते हैं, ताकि उन्हें बरसात से बचाया जा सके.

साल 2015 में अजिता ने अपनी ख़ुद की कंपनी श्रीदीपम हैंडीक्राफ्ट्स का निबंधन कराया. उनके पति और उनका बेटा, जो एक स्कूटर मैकेनिक है, तैयार किए जा चुके उत्पादों की डिलीवरी में उनकी मदद करते हैं. उनकी बेटी कहीं दूसरी जगह काम करती है, लेकिन जब समय मिलता है तब वह भी उनकी मदद करती है.

अजिता ने कहा, “महामारी के चलते हम बांस के कारोबार से जुड़े लोगों को बहुत नुक़सान पड़ा. हमारी आमदनी मुख्य रूप से प्रदर्शनियों, उत्सवों, और समारोहों के आयोजकों और रेस्तरांओं में आपूर्ति से होती थी.” केरल का मनोरमा फिएस्टा और बैंबू मिशन द्वारा आयोजित किया जाने वाला सालाना बैंबू फेस्टिवल नियमित तौर पर राज्य भर में हमारी बिक्री को प्रोत्साहित करने में हमारी मदद करता था, लेकिन लॉकडाउन की वजह से उन्हें साल 2020 में रद्द करना पड़ा. उन्होंने आगे बताया, “महामारी से पहले मैं हरेक महीने तक़रीबन 30,000 से 35,000 रुपयों का लाभ कमा लेती थी, अब मुझे 20 से 30 फ़ीसदी कम आमदनी हो पाती है.”

अपनी ख़ुद की कंपनी शुरू करने से पहले अजिता ने 20 सालों तक चलाकुडी की एक सहकारी संस्था सेराफिक हैंडीक्राफ्ट्स में काम किया था. यह संस्था भी टोकरी, ट्रे, और लैंप शेड जैसे बांस के उत्पाद बनाने का काम करती है.

आज जबकि ई-कॉमर्स के अनगिनत प्लैटफ़ॉर्म कुकुरमुत्ते की तरह फैल चुके हैं, लेकिन उनको लेकर अजिता संदेह से घिरी हुई हैं. उनको लगता है कि ये प्लैटफ़ॉर्म उनके तैयार उत्पादों के लिए ज़रूरी सतर्कता नहीं बरतेंगे. उनका हल्कापन दिखाने की गरज़ से बांस का एक बहुत पतला तंतु दिखाते हुए वह बोलती हैं, “मेरे हाथ के बने सामान बहुत हल्के और नाज़ुक होते हैं. हालांकि, पेंदे में अच्छी तरह से बुनाई के बाद वे ख़ासे मजबूत हो जाते हैं, लेकिन अगर संभालकर इस्तेमाल नहीं किया जाए, तो उनके ख़राब होने का ख़तरा बरकरार रहता है.” वह आगे जोड़ती हैं, “मेरे पास संसाधनों की कमी है, और न मुझे किसी संस्था से किसी तरह की मदद ही मिलती है. सामान का नुक़सान होने से उसका बुरा असर हमारी कमाई पर पड़ेगा. इसलिए मैं अपने उत्पादों के क्षतिग्रस्त होने का बोझ नहीं उठा सकती हूं.”

अपने बनाए हुए अनेक लैंपशेड और टोकरियों पर नज़र दौड़ाती हुईं अजिता कहती हैं, “जब मैं यह काम करती होती हूं, तो एक पल के लिए भी मेरा ध्यान इस बात की तरफ़ नहीं जाता है कि कुछ और काम करके मैं ज़्यादा पैसे कमा सकती हूं. मैं पूरे लगाव के साथ इसे करती हूं, और इस काम और कला के लिए मेरे मन में गहरा प्रेम और समर्पण का भाव है.”

यह स्टोरी लॉकडाउन के दौरान और उसके पश्चात प्रभावित हुए जनजीवन पर आधारित शृंखला का हिस्सा है. पारी एजुकेशन की टीम, इस कार्ययोजना को अपना नेतृत्व प्रदान करने के लिए मुंबई के सेंट जेवियर्स कॉलेज (स्वायत्तशासी) के प्राध्यापकों अक्षरा पाठक-जाधव और पेरी सुब्रमण्यम को अपना आभार प्रकट करती है.

Editor's note

डॉन फिलिप, मुंबई के सेंट जेवियर्स कॉलेज (स्वायत्तशासी) में जनसंचार और पत्रकारिता विभाग में द्वितीय वर्ष के छात्र हैं. पारी एजुकेशन के सहयोग से अपने कॉलेज के पाठ्यक्रम में निर्दिष्ट लॉकडाउन के कारण प्रभावित जनजीवन पर आधारित शोध के लिए उन्होंने केरल के बांस हस्तशिल्पकारों का चयन किया. वह कहते हैं, “पारी से संबद्ध इस परियोजना ने कुटीर उद्योगों और इस आजीविका से जुड़े लोगों की समस्याओं को गहराई से समझने में मेरी मदद की. अजिता की कहानी को दर्ज करने की मेरी कोशिशों ने उन पत्रकारों के प्रति मेरे मन में प्रशंसा का भाव उत्पन्न करने में मदद की, जो ऐसी जटिल ज़िम्मेदारियों को इतनी दक्षता के साथ निभाते हैं.

अनुवाद: प्रभात मिलिंद

प्रभात मिलिंद, शिक्षा: दिल्ली विश्विद्यालय से एम.ए. (इतिहास) की अधूरी पढाई, स्वतंत्र लेखक, अनुवादक और स्तंभकार, विभिन्न विधाओं पर अनुवाद की आठ पुस्तकें प्रकाशित और एक कविता संग्रह प्रकाशनाधीन.