
यह स्टोरी मूल रूप से हिंदी में ही लिखी गई थी. पारी एजुकेशन, भारत के अलग-अलग इलाक़ों के तमाम ऐसे छात्रों, शोधार्थियों, और शिक्षकों के साथ मिलकर काम कर रहा है जो अपनी पसंदीदा भाषा में हमारे लिए लेखन, रिपोर्टिंग, और इलस्ट्रेशन तैयार कर रहे हैं.
राम सिंह कहते हैं, “मुझे दिल्ली में काम करते हुए लगभग 40 साल हो गए, लेकिन मैं साइकिल तक नहीं ख़रीद सका. वहीं दूसरी ओर फैक्ट्री का मालिक, जो कभी दोपहिए से चलता था, अब कार से काम पर आता है.” यह बात कहते हुए वह सोच में पड़ जाते हैं कि उन्हें इस तरह की सफलता क्यों नहीं मिली.
राम सिंह, बिहार के पूर्वी चंपारण ज़िले से 43 साल पहले यहां आए थे. वह तबसे दिल्ली के औद्योगिक इलाक़े आनंद पर्बत और उसके आसपास ही काम करते रहे हैं. इस दौरान, उनका ज़्यादातर समय चार्जर बनाने और टी.वी. व कूलर के तार-केबल की मोल्डिंग करने वाली फैक्ट्रियों में काम करते हुए गुज़रा है.
जिस फैक्ट्री में राम सिंह काम करते हैं वही उनका ठिकाना भी है. वह कहते हैं, “एक तरह से मेरा पूरा दिन इस चारदीवारी में बीत जाता है.” रहने की जगह के किराए के तौर पर, फैक्ट्री का मालिक उनकी 7,000 रुपए की मासिक मजूरी से 2,000 रुपए काट लेता है. उनके कमरे में ज़रूरत का थोड़ा-बहुत सामान रखा रहता है – जिसमें कुछ गिने-चुने बर्तन, कपड़े, और एक बिस्तर शामिल है.
राम सिंह चाय व पान की एक दुकान पर शाम की चाय पी रहे हैं, जो उनकी फैक्ट्री के नज़दीक ही स्थित है. कोलाहल पैदा करतीं दो व तीन मंज़िला फैक्ट्रियों की गड्डमड्ड के बीच, यह अस्थायी दुकान थोड़ी शांत जगह उपलब्ध कराती है. इस रिपोर्टर को अपने पास बैठने का इशारा करते हुए राम सिंह कहते हैं, “अंदर खुल के बोल नहीं पाते.”


अपने बालों पर हाथ फेरते हुए रामसिंह कहते हैं, “दिल्ली की भाग-दौड़ भरी ज़िंदगी में 40 साल कब बीत गए, पता ही नहीं चला. जब मैं यहां आया था, तब मेरे सर पर एक भी सफ़ेद बाल नहीं था. अब एक भी काला बाल नहीं बचा.”
राम सिर्फ़ 17 साल के थे, जब उन्होंने बिहार की पताही तहसील के जिहुली गांव में स्थित अपने घर से पलायन किया था; ट्रेन के ज़रिए 1,200 किलोमीटर का सफ़र तय करने में उन्हें 30 घंटे लगे थे. राज्य में प्रभुत्व रखने वाली भूमिहार जाति से ताल्लुक़ रखने वाले परिवार में, चार बच्चों में वह सबसे बड़े थे.
वह कहते हैं, “शहर में रहते हुए, मैं अपने गांव और परिवार से काफ़ी दूर होता गया हूं.” जिस दौर में राम सिंह ने पलायन किया था, पूरे बिहार में बड़ी संख्या में लोग पलायन कर रहे थे. यह संख्या बढ़ती रही, और 1999-2000 में सात लाख का आंकड़ा पार कर गई. भारत के भीतर होने वाले पलायन पर आधारित मानव विकास संस्थान की रिपोर्ट के मुताबिक़, यह आंकड़ा साल 2007-08 में 12 लाख पहुंच गया था.
वह कहते हैं, “मेरे पास मोबाइल फ़ोन नहीं था और मैं साल-दो साल में एक बार गांव जा पाता था. ऐसे ही जब एक बार मैं गांव गया, तो मुझे मालूम चला कि अनीता (मेरी सबसे छोटी बहन) की शादी हो चुकी थी. मुझे ख़बर तक नहीं मिल पाई थी.”

राम कहते हैं कि वह अब बहुत कभी-कभार ही गांव जाते हैं. उनका कहना है कि गांव आने-जाने में ही क़रीब 2,000 रुपए ख़र्च हो जाते हैं. इसके अलावा, “गांव खाली हाथ भी नहीं जाया जा सकता, इसलिए मैं गांव बहुत कम ही जाता हूं.”
सुबह 9 बजे से शाम 5.30 बजे तक काम करने वाले राम सिंह के मुताबिक़, उनके जैसे कामगारों को उचित या न्यूनतम मज़दूरी नहीं मिलती. वह बताते हैं कि उनके साथ काम करने वाले युवा कामगारों को 10,000 रुपए महीने की पगार मिलती है, लेकिन ज़्यादा उम्र का होने के चलते उन्हें 7,000 रुपए ही दिए जाते हैं. वह कहते हैं, “मज़दूर संगठित नहीं हैं, और इलाक़े में कोई ट्रेड यूनियन भी नहीं है. कोई मज़दूर यूनियन होता भी है, तो कामगार उनका भरोसा नहीं करते.”
फैक्ट्री से होने वाली कमाई काफ़ी कम पड़ती थी, इसलिए 60 साल का हो चुका यह कामगार साल 2021 में रात के समय चौकीदार (गार्ड) की नौकरी करने लगा. इस काम पर जाने के लिए उन्हें हर रोज़ 37 किलोमीटर साइकिल चलानी पड़ती थी. आनंद पर्बत से फ़रीदाबाद तक के इस सफ़र को साइकिल (जो उन्होंने अपने जीजा से मांगी थी) से तय करने में उन्हें एक तरफ़ से दो घंटे लग जाते थे. गार्ड के तौर पर काम करके उन्हें 5,000 रुपए का वेतन मिलता था, जो फैक्ट्री से होने वाली 7,000 रुपए की कमाई के साथ उनके लिए बहुत मददगार साबित होता था. रामसिंह कहते है “मैं बूढ़ा हो गया हूं, लेकिन मैंने कभी मांगकर गुज़ारा नहीं किया. लोग दया दिखाते हैं, लेकिन मुझे उसकी कोई ज़रूरत नहीं है. जब तक मैं कमा सकता हूं, कमाता रहूंगा.”


राज्य द्वारा स्वीकृत यह औद्योगिक क्षेत्र नवंबर 2021 में लेबर इंस्पेक्टर प्रशांत कुमार किरण को सौंपा गया है. उनकी ज़िम्मेदारियों में श्रमिकों द्वारा दायर शिकायतों का समाधान करना शामिल है, आमतौर पर मज़दूरी के भुगतान में देरी के संबंध में. किरण को यहां किसी तरह की कोई बहुत अधिक समस्या नहीं दिखती. वह कहते हैं, “फैक्ट्रियों के मालिकों के ख़िलाफ़ शिकायतों की संख्या बहुत कम है. साल 2022 के आंकड़ों पर नज़र डालें, तो 4 अगस्त तक कुल 30 शिकायतें प्राप्त हुई हैं, जिनमें से 21 का समाधान किया जा चुका है और 9 शिकायतें अभी प्रक्रियाधीन हैं.
हालांकि, लेबर इंस्पेक्टर के शब्द राम सिंह को आश्वस्त नहीं कर पाते. वह बताते हैं, “मालिकों, लेबर यूनियन और लेबर इंस्पेक्टर के गठजोड़ से कामगार परेशान हैं. इसलिए, अधिकांश कामगार हालात से समझौता कर चुके हैं. केवल कुछ कामगार ही लेबर कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने की ज़हमत उठाते हैं.”
राम सिंह के पास मतदाता पहचान पत्र या आधार कार्ड नहीं है, इसलिए वह दिल्ली आरोग्य कोश के तहत स्वास्थ्य सुविधाएं के लिए आर्थिक मदद पाने की पात्रता नहीं रखते हैं. न ही वह बिहार सरकार की सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजना – मुख्यमंत्री वृद्धजन पेंशन योजना – के तहत 400 रुपए प्रतिमाह की आर्थिक सहायता पाने की योग्यता रखते हैं.
राम सिंह कहते हैं, ”दिल्ली में गुज़ारा करना आसान है. बिहार में ज़्यादा ग़रीबी हैं, इसके बावजूद मेरे गांव की तुलना में यहां ख़र्चे कम हैं.” उनके मुताबिक़, राजधानी दिल्ली में कोई भी सस्ते में खाना खा सकता है, भले ही वह खाना स्वास्थ्य के लिए ज़्यादा हितकर न हो.
“हवाई जहाज़ के किसी पुर्ज़े से लेकर छोटी पिन तक – यहां सबकुछ बनाया जाता है.”


सत्यम कुमार उन फैक्ट्रियों के बारे में बताते हैं जो मध्य दिल्ली की आनंद पर्बत औद्योगिक क्षेत्र के तहत आती हैं, जहां वह काम करते हैं. इनमें से ज़्यादातर छोटे पैमाने की इकाइयां हैं, जो बड़े उद्योगों के लिए धातु, प्लास्टिक और इलेक्ट्रॉनिक अवयवों को संसाधित करती हैं. इन फैक्ट्रियों में आस-पास और दूर-दराज़ की बस्तियों से हज़ारों मजदूर काम करने आते हैं.
सत्यम जब काम की तलाश में बिहार छोड़कर दिल्ली आए थे, तब वह सिर्फ़ 14 साल के थे और कक्षा 9 में पढ़ते थे; और उन्हें यहां पहला काम चार्जर बनाने की फैक्ट्री में मिला था. वह कहते हैं, “अगर मेरे परिवार की आर्थिक स्थिति बेहतर होती, तो मैंने स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई पूरी की होती.” अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वह जोड़ते हैं, “आजकल, अच्छे-ख़ासे पढ़-लिखे लोगों को नौकरी नहीं मिलती – तो मुझे कौन देगा?”
सत्यम ने जब दिल्ली में अपना पहला काम शुरू किया था, तो वह वायर में पिन जोड़ने का काम करते थे. इसके बदले में उन्हें 1,800 रुपए प्रतिमाह का वेतन मिलता था. अब, 21 साल के हो चुके सत्यम को वायर केबल के बंडल तैयार करने के बदले में 10,000 रुपए प्रतिमाह मिलते हैं. वह कहते हैं, “मशीन, वायर को गोल बंडल की शक्ल में लपेटती है. कई बार वायर टूट जाता है और मशीन घूमती रह जाती है, और टूटा हुआ हिस्सा तेज़ी से कामगार के हाथ पर लगता है. यह मुश्किल काम है.”
सत्यम को सप्ताह में 6 दिन काम करना होता है और सोमवार को उनकी छुट्टी होती है. उनके मालिक ने उन्हें रहने की जगह दे रखी है, लेकिन खाने-पीने का इंतज़ाम उन्हें ख़ुद ही करना पड़ता है. जब उन्हें काम से लौटने में देरी होती है, और खाना बनाने का मन नहीं करता है, तो वह कुछ रोटियां सेक लेते हैं और दुकान से दस रुपए की दही लाकर, रोटी-दही खाकर सो जाते हैं.

बिहार के सीतामढ़ी ज़िले की डुमरा तहसील के चकमहिला गांव में स्थित अपने घर से दूर जब सत्यम कुमार दिल्ली आ गए थे, तो उनकी शुरुआती कुछ रातें बेहद मुश्किल गुज़रीं. वह बताते हैं, “मम्मी-पापा मेरे साथ काम करने वाले एक भईया के मोबाइल पर फ़ोन किया करते थे और मैं बात करते समय रो दिया करता था. कभी-कभी, शहर छोड़कर गांव भाग जाने का दिल करता था.”
गांव में, सत्यम की मां सिंधू देवी एक स्कूल में खाना बनाने का काम करती हैं, जिसके लिए उन्हें 4,000 रुपए प्रतिमाह की तनख़्वाह मिलती है. सत्यम का परिवार कानू समुदाय से ताल्लुक़ रखता है, जो राज्य में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के तौर पर सूचीबद्ध है. सत्यम के पिता पारसनाथ गुप्ता सीतामढ़ी में एक ढाबा चलाते थे, लेकिन साल 2012 में बाज़ार में कुछ नए ढाबे व होटल खुल गए. ढाबे से परिवार को होने वाली कमाई (क़रीब 14,000 रुपए महीना) पर असर आया और आमदनी कम होने लगी; और एक समय ऐसा आया जब ढाबा बंद करना पड़ा.
सत्यम बताते हैं, “कोरोना महामारी के दौरान हमारी जीवनभर की जमापूंजी का बड़ा हिस्सा ख़र्च हो गया. इसके बाद हमारे पास पैसे नहीं बचे थे. जब 2021 में दूसरा लॉकडाउन लगाया गया, तब हमें अपने रिश्तेदारों से उधार लेकर गुज़ारा करना पड़ा.” गांव में सत्यम के परिवार के पास 450 वर्ग फुट का कच्चा मकान है, और उनके मुताबिक़ घर की हालत काफ़ी जर्जर है. सत्यम का परिवार इसे थोड़ा-थोड़ा करके बनवाने की कोशिश कर रहा है. इसके लिए, उन्होंने 1.5 लाख रुपए का क़र्ज़ लिया है, और उन्हें 4 प्रतिशत की दर से हर महीने इसका एक हिस्सा चुकाना होता है. सत्यम कहते हैं, “एक बार क़र्ज़ चुका लूं, उसके बाद ठीक से घर बनवाने की सोचूंगा. मज़दूरी में कुछ नहीं रखा. भविष्य में छोटा ही सही, लेकिन अपना बिज़नेस करूंगा.”
सत्यम दिल्ली के जिस इलाक़े में रहते हैं उसके बारे में बताते हुए चिंता ज़ाहिर करते हैं, “यहां छोटे-छोटे बच्चे पार्क में स्मैक, चरस, गांजा, और दारू पीते हुए दिख जाते हैं. अक्सर मार-पीट होने लगती है. लॉकडाउन के बाद से इन घटनाओं में तेज़ी आई है. मुझे कहीं और अच्छा काम मिल जाए, तो मैं यह जगह ही छोड़ दूंगा.”
मूलतः हिन्दी में लिखी गई इस स्टोरी का संपादन देवेश ने किया है.
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Editor's note
परवीन कुमार ने इग्नू (इंदिरा गांधी मुक्त राष्ट्रीय विश्वविद्यालय) से स्नातक की पढ़ाई की है और हाल ही में दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया से पत्रकारिता में डिप्लोमा किया है.
परवीन कहते हैं, “इस स्टोरी के लिए पारी के साथ काम करते हुए यह अहसास हुआ कि लोगों की परेशानियां निजी नहीं होतीं, बल्कि उनके तार समाज के साथ बहुत गहरे जुड़े होते हैं. अगर किसी मज़दूर को रोज़गार की तलाश में अपने गांव से पलायन करके शहर जाना पड़ता है, तो यह पूरे समुदाय, राज्य, और देश की समस्या है.”
अनुवाद: देवेश
देवेश एक स्वतंत्र पत्रकार, कवि-लेखक, फ़िल्मकार, और अनुवादक हैं. वह इन दिनों कृषि संकट और किसान आत्महत्या के मुद्दे पर किताब लिख रहे हैं. देशभर के किसान आंदोलनों में सक्रिय, वे रंगकर्मी और गायक भी हैं. संपर्क: vairagidev@gmail.com