साल 2018 में मेरे परिवारवालों के पास मेरी शादी का प्रस्ताव आया. उस समय मैं 21 वर्ष की थी और अपने सौरा आदिवासी समुदाय की परंपराओं के अनुसार विवाह के लिए तैयार थी. लेकिन लड़के वालों का कहना था, ‘लड़कों के आगे पढ़ने की बात तो समझ में आती है, लेकिन लड़कियों को आगे पढ़ना क्या ज़रूरी है. उनको तो अंततः घर ही संभालना है, तो उनको पढ़ाकर समय और पैसा बर्बाद करने का क्या मतलब है?’

मैंने उनका प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया और यह साफ़ कह दिया कि मुझे आगे पढ़ाई करनी है. मैं अपनी बहनों को भी पढ़ने का अवसर देना चाहती थी. परिवार में मेरे मामा मुकुन्दो गमांगो ही एकमात्र व्यक्ति थे, जिन्होंने उस समय मेरा समर्थन किया था. वह एक सरकारी हाईस्कूल में शिक्षक हैं. मेरे मां-बाप की बहुत इच्छा थी कि मुझे विवाह कर लेना चाहिए, लेकिन मैं अपने फ़ैसले पर अड़ी रही.

इस तरह मैं अपने परिवार और गांव की पहली लड़की हूं जिसने स्नातक की पढ़ाई जारी रखी है. फ़िलहाल मैं ओड़िशा के गजपति ज़िले के परलाखेमुंडी में अवस्थित एस.के.सी.जी. ऑटोनॉमस कॉलेज में दूरस्थ शिक्षा के ज़रिए इतिहास विषय में स्नातक अंतिम वर्ष की पढ़ाई कर रही हूं.

शुरू में मैंने नर्सिंग करने के बारे में सोचा था, लेकिन मेरे मामा ने मुझे शिक्षिका बनने की कोशिश करने की सलाह दी. इसके लिए मैंने राज्य स्तरीय ओड़िशा टीचर एलीजिबीलिटी टेस्ट (ओटीईटी) पास किया, ताकि पहली से लेकर सातवीं तक की शिक्षिका बन सकूं. मुझसे पढ़ने वालों बच्चों का प्यार और उनके साथ जीवन भर के लिए बना संबंध एक शिक्षिका के रूप में मेरा सबसे बड़ा पुरस्कार है.

पिछले पांच सालों से मैं गजपति ज़िले के कोइनपुर में महेंद्र तनया आश्रम स्कूल (एमटीएएस) में प्राथमिक कक्षाओं के बच्चों को गणित और विज्ञान पढ़ा रही हूं. यह आवासीय विद्यालय पांडासाही में मेरे घर से कोई 25 किलोमीटर दूर है.

मुझे अपने छात्रों से भी पहले सुबह 4 बजे ही जागना होता है, ताकि मैं अपने ग्रेजुएशन कोर्स की पढ़ाई कर सकूं. सामान्यतः मैं रात में बच्चों के सोने के बाद भी अपनी परीक्षाओं के लिए घंटे-दो घंटे तक जागती हूं. कई बार मुझे पर्याप्त समय नहीं मिल पाता है और मैं अपनी पढ़ाई नहीं कर पाती हूं. पढ़ना और पढ़ाना – ये दोनों काम साथ-साथ करना बहुत कठिन है, लेकिन मैंने ठान लिया है कि यह करना ही है. अंग्रेज़ी विषय मेरे लिए विशेष रूप से कठिन है.

कोइनपुर के इस स्कूल में, जिसमें मैं रहती हूं, नेटवर्क बहुत कमज़ोर होने के कारण ऑनलाइन पढ़ाई संभव नहीं है. इसलिए हरेक रविवार को मैं एक तरफ़ से 50 किलोमीटर की यात्रा तय कर अपनी कक्षा के लिए दो घंटे की एक विशेष परिचर्चात्मक कक्षा में हिस्सा लेने के लिए जाती हूं, जिसे इंदिरा गांधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी (इग्नू) के एक प्रोफ़ेसर आयोजित करते हैं. उस कक्षा में हम लगभग 35 छात्र उपस्थित रहते हैं और सब के सब अंतिम वर्ष में ही पढ़ रहे हैं. दूरस्थ शिक्षा के साथ अपना संतुलन बनाए रखने का मेरे लिए यह इकलौता ज़रिया है.

मेरी अधिकतर सहेलियों ने अपनी हाईस्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद शादी कर ली है. वे कई बार मुझसे पूछती भी हैं कि मैंने शादी करके एक व्यवस्थित जीवन जीना और अपना ख़ुद का परिवार शुरू करना क्यों नहीं चुना. मैं उनसे कहती हूं कि अगर तुम मेरी पारिवारिक परिस्थितियां देखोगी, तब तुमको इसका अंदाज़ा लग सकेगा. मेरे माता-पिता अब बूढ़े हो चुके हैं और मुझे अपनी बहनों का ख़याल रखना है, ताकि एक दिन वे अपने पैरों पर खड़ी हो सकें.


छोटे गांवों और आसपास के इलाक़ों में लोग शिक्षा को ज़रूरी चीज़ नहीं समझते हैं. इसलिए, माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ने के लिए ज़ोर नहीं देते. आपको ऐसे छोटे बच्चे मिल जाएंगे जो स्कूल नहीं जाते, सिर्फ़ मोबाइल से चिपके रहते हैं, और फ़ोन पर गेम खेलने के लिए इंटरनेट पाने की चाह में पैदल चलकर या साइकिल से आसपास के गांवों तक चले जाते हैं. कृषि को ही एकमात्र पेशे के रूप में देखा जाता है.

न ही मेरे माता-पिता, और न ही मेरी बड़ी बहन ने कभी स्कूल का मुंह देखा था. एक शिक्षिका के रूप में अपनी दस हज़ार की तनख़्वाह से मैंने अपनी दोनों छोटी बहनों – पुष्पलता और लाबोनी को पढ़ाया. पुष्पलता अब ख़ुद भी एक शिक्षिका है.

मेरी बिरादरी के लोग मेरा बहुत सम्मान करते हैं. मैं जो काम करती हूं उसकी वजह से मेरे मां-बाप को भी मेरे गांव के लोग पर्याप्त आदर देते हैं. आज उनसे यह कोई नहीं पूछता है, “आपने बेटियों को पढ़ने क्यों दिया? यह समय और पैसे की बर्बादी है.” मेरे गांव की लड़कियों को मेरे ऊपर गर्व है. वे जानना चाहती हैं कि मैं यहां तक कैसे पहुंची. मुझे महसूस होता है कि मेरी कहानी उन्हें पढ़ने के लिए और अपना भविष्य संवारने के लिए प्रेरित करती है.

यहां हमारे स्कूल में चूंकि सभी बच्चे सौरा आदिवासी समुदाय के हैं, इसलिए हम उन्हें सौरा भाषा में ही पढ़ाते हैं. सौरा आदिवासी ओड़िशा में अनुसूचित जनजाति के रूप में सूचीबद्ध हैं. ये बच्चों ओड़िया भाषा से अपरिचित है. पढ़ाने के लिए सौरा भाषा का प्रयोग हम इसलिए करते हैं, ताकि वे बातों को शीघ्रता और आसानी से समझ सकें. पढ़ाई के साथ-साथ हम उन्हें चित्रकला, गायन और नृत्य जैसी कलाओं और गतिविधियों को सीखने के लिए भी प्रोत्साहित करते हैं.

हमारा सौरा नृत्य स्त्री और पुरुष दोनों साथ मिलकर करते हैं. होली, कांदुल पूजा (जाड़े की फ़सल – कांदुल या अरहर – के समय) और अंबा पूजा (आमों के सीज़न के लिए) के अलावा शादी-ब्याह जैसे विशेष अवसरों पर यह नृत्य आयोजित किया जाता है. मैं चाहती हूं कि हमारी सौरा परंपराओं और संस्कृति का दूर-दूर तक विस्तार हो. मैं देखती हूं कि हमारी नृत्य पद्धति को सार्वजनिक जीवन में पर्याप्त लोकप्रियता नहीं प्राप्त है. हमारी बिरादरी के बहुत बच्चे तो इसके बारे में जानते तक नहीं हैं!

मैं जब अपने गांव जाती हूं, तो सौरा भाषा में ही सबसे बातचीत करती हूं. हमारे पुरखे हमें धरोहर के रूप में यह नृत्य सौंप गए हैं और मैं चाहती हूं कि इस संस्कृति का सम्मान हर कोई करे. फरवरी 2020 में मुझे उत्तरप्रदेश के वाराणसी में स्थित राजघाट स्कूल में हमारा स्थानीय सौरा लोकनृत्य सिखाने और प्रस्तुत करने का अवसर मिला था. मेरे साथ मेरे चार छात्र भी गए थे. वह अनुभव बहुत ही ख़ास था.


रायगढ़ ब्लॉक में बसा मेरा गांव पांडासाही, ओड़िशा में पड़ने वाले पूर्वी घाट के हिस्से में छोटे पर्वतों की श्रृंखला की तराई में बसा है. हम चारों तरफ़ से हरी पहाड़ियों से घिरे हुए हैं. हरेक घर में एक बगीचा है, जिसमें आम, केला और पपीता जैसे फलों के पेड़ और चंपा और चमेली जैसे फूलों के पौधे लगे हुए हैं. दक्षिणी ओड़िशा के गजपति ज़िले के हमारे इस गांव में कुल 25 घर हैं. यहां सभी लोग अपनी छोटी-छोटी ज़मीनों पर खेती करते हैं, जो मुख्य रूप से वर्षा पर निर्भर है. इन खेतों का आकार एक एकड़ से भी कम हैं. यहां के लोग या तो खेती करते हैं या परदेस जाकर दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं. प्रत्येक सप्ताह, स्थानीय लोगों का एक समूह शौचालय सहित पूरे गांव की सफ़ाई करता है. हमारे पास अपशिष्टों के पृथक्कीकरण के लिए अलग-अलग कचरा पेटियां हैं.

साल 2007 में सरकार ने इंदिरा आवास योजना के अंतर्गत हमें घर बनाने के लिए 50,000 रुपए दिए थे. हमने उसमें अपने पैसे जोड़ कर अपने तीन कमरों के घर में ईंटों का फ़र्श बनवा लिया, और अब हमारा घर पर्याप्त आधुनिक दिखता है. मेरे माता-पिता नारायण और ब्राह्मणी गमांगो छोटे किसान हैं और अपनी ख़ुद की खपत के लिए गंगा, गंटिया और जना जैसे धान और रागी की फ़सल उगाते हैं. काजू हमारी मुख्य नक़दी फ़सल है, जिससे वे 40,000 रुपए सालाना तक कमाई कर सकते हैं. हमारा एक छोटा सा बगान भी है, जहां हम अपने खाने के लिए सब्ज़ियों के अलावा अनानास, नारंगी और कटहल उपजाते हैं.

पहले हमारे गांव में भी एक प्राइमरी स्कूल हुआ करता था, लेकिन 2020 में उसे बंद कर दिया गया. तक़रीबन 20 छात्रों और एक शिक्षक को स्थानांतरित कर तलमुंडा हाईस्कूल भेज दिया गया. जब मैं बड़ी हो रही थी, तो मैं उसी स्कूल में पढ़ने जाती थी जिसमें अब मैं पढ़ाती हूं. महेंद्र तनया आश्रम स्कूल (एमटीएएस) ग्राम विकास नाम की एक गैर-सरकारी संस्था द्वारा संचालित स्कूल है, जहां सिर्फ़ सातवीं तक की ही पढ़ाई होती थी. इसलिए, यहां से निकलने के बाद 10वीं तक पढ़ने के लिए मैं कोई 20 किलोमीटर दूर जिरंग के निकट स्थित बालिका उच्च प्राथमिक स्कूल जाने लगी, और फिर 11वीं और 12वीं कक्षा की पढ़ाई के लिए मैंने एक्लब्य आदर्श स्कूल में दाख़िला लिया. पाठ्येतर गतिविधियों में शुरू से मेरी गहरी दिलचस्पी थी. ख़ास तौर पर दौड़ प्रतियोगिता में मुझे बहुत मज़ा आता था. मैं ख़ुद भी राज्य-स्तरीय मुक़ाबलों में भाग लेती रही थी.

स्कूलों में किताबें तो सरकार देती थी, लेकिन नोटबुक छात्रों को ख़ुद ही ख़रीदना होता था. मेरे पास ख़र्च करने के लिए अधिक पैसे नहीं हुआ करते थे, लेकिन मेरी मां बचत करती थी और हर साल स्कूल जाने वाले अपने बच्चों के लिए एक सेट नोटबुक ख़रीदा करती थीं. उन्हें लगता था कि हमारी पढ़ाई-लिखाई के लिए यह ज़रूरी था.

एक आवासीय स्कूल में काम करने का अर्थ ज्योशना के लिए स्कूल के दायित्वों के निर्वहन के साथ-साथ अपने ग्रेजुएशन की तैयारियों के बीच तालमेल बिठाना है. तस्वीर: शर्बनी चट्टोराज 

मेरे भाई-बहनों में दो की शादी हो चुकी है. मेरे बड़े भाई बुद्धा, चेन्नई में रहते हैं और एक कंस्ट्रक्शन कंपनी में नौकरी करते हैं, और मेरी बड़ी बहन रेवती की भी शादी हो चुकी है. मेरा भाई सुशांत स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद अब घर पर ही एक छोटी सी दुकान चलाता है, जिसे उसने घर पर ही मेरी मदद से खोला है. दुकान में घरेलू इस्तेमाल की बहुत सी चीज़ों के अलावा राशन-पानी, साबुन, खाने वाला तेल, सॉफ्ट ड्रिंक्स, और आलू-प्याज जैसी सब्ज़ियां बिकती हैं. मैंने अपनी बहन सेबापति को एक सिलाई मशीन ख़रीद दी है, और सिलाई के काम से उसे जो आमदनी होती है वह घर-ख़र्च में इस्तेमाल हो जाती है.

आज मां-बाप अपने बच्चों को स्कूल लेकर आते हैं और कहते हैं, “हम इनको आपके सहारे छोड़ रहे हैं. आप इनका ख़याल रखिएगा.” अब वे पढ़ाई के महत्व को समझने लगे हैं. लॉकडाउन के समय जब सारे स्कूल बंद हो चुके थे, तब मैं भी अपने गांव लौट गई थी. लेकिन मैंने वहां भी पढ़ाना बंद नहीं किया – मैं अपने गांव के बच्चों को दो सत्रों में पढ़ाने लगी – सुबह 7 बजे से लेकर 9 बजे तक, और शाम को 6 बजे से लेकर 8 बजे तक. बीच के खाली समय में मैं घर और खेती के काम में हाथ बंटाती थी.

बहरहाल, इस सफ़र को ठीक से जारी रखने में मेरे कई शिक्षकों का सहयोग रहा है. मेरे स्कूल (एमटीएएस) के प्रधानाध्यापक अमरेश चित्रकवि ने हर क़दम पर मेरा साथ दिया और सलाह दी कि मुझे भूलकर भी ऐसे किसी आदमी से विवाह नहीं करना चाहिए जो मेरे कैरियर के प्रति गंभीर न हो. कक्षा 10 में मुझे संस्कृत पढ़ाने वाले श्रीकांत सतपथी ने हमेशा मुझे नए अवसरों का लाभ उठाने के लिए प्रोत्साहित किया. मेरे गणित के अध्यापक अबिनाश ने भी मेरा मनोबल बनाए रखने में मेरी सहायता की.

मेरी भावी योजना ‘बैचलर इन एजुकेशन (बीएड)’ की डिग्री हासिल करने की है, ताकि मैं स्कूल में ऊंची कक्षाओं को पढ़ा सकूं. एक बार स्नातक की पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद मैं यह ज़रूर करूंगी. कई बार एक साथ स्कूल में पढ़ाना और ख़ुद अपने कोर्स की पढ़ाई, दोनों एक साथ करना बहुत कठिन और थकाने वाला उपक्रम होता है. फिर भी मैं इसे किसी बोझ के तौर पर नहीं लेती, बल्कि यह मेरा उत्तरदायित्व है.

पारी एजुकेशन, इस रपट को तैयार करने में सहयोग और समर्थन के लिए ग्राम विकास रेसिडेंसियल स्कूल्स की मैनेजर, इनोवेशन एंड स्ट्रेटजी, शर्बनी चट्टोराज और स्टुडेंट इंटर्न अनुष्का रे का आभार प्रकट करता है.

पारी के होमपेज पर लौटने के लिए, यहां क्लिक करें.

Editor's note

अनुवाद: प्रभात मिलिंद

प्रभात मिलिंद, शिक्षा: दिल्ली विश्विद्यालय से एम.ए. (इतिहास) की अधूरी पढाई, स्वतंत्र लेखक, अनुवादक और स्तंभकार, विभिन्न विधाओं पर अनुवाद की आठ पुस्तकें प्रकाशित और एक कविता संग्रह प्रकाशनाधीन.