
जब पुराना उस्मानपुर के निवासी बुलडोजर की गड़गड़ाहट सुनते हैं, उन्हें अंदाज़ा हो जाता है कि यह उनके यहां से तत्काल जाने का संकेत हैं. कचरा बीनने वालों, रिक्शा चालक, कबाड़ डीलरों, और भीख मांग कर गुज़ारा करने वाले लोगों की इस बस्ती में अचानक बिना किसी सूचना के झुग्गियों (अस्थायी घरों) को खोने का भय निरंतर बना रहता है. वे बताते हैं कि पिछले एक दशक में उन्होंने कई बार अपने घरों को ढहते देखा है.
यहां रहने वाले सपेरा समुदाय के एक सदस्य रघु (बदला हुआ नाम) कहते हैं, ”अपनी झुग्गियों को एक जगह से ले जाकर दूसरी जगह खड़ा करना, हमारे जीवन का नियमित अभ्यास बन गया है.” सपेरा एक विमुक्त जनजाति है, लेकिन किसी भी कल्याणकारी योजना का लाभ उन्हें नहीं मिलता.
यमुना नदी के तट से मात्र कुछ मीटर की दूरी पर स्थित पुराना उस्मानपुर गांव कछार वाला इलाक़ा है. साल 2010 में, दिल्ली विकास प्राधिकरण ने अत्यधिक प्रदूषित यमुना नदी के कायाकल्प के लिए, इस गांव की ज़मीन को ज़ोन ‘ओ’ के रूप में चिह्नित किया था. यमुना, दिल्ली के 22 किलोमीटर के इलाक़े से होकर गुज़रती है और डीडीए इसके तटीय क्षेत्रों में लोगों के मनोरंजन से जुड़ी जगहें बनाना चाहता है.



साल 2014 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने कछार वाले इलाक़ों (बाढ़ वाले क्षेत्र) में निर्माण और विकास संबंधी गतिविधियों पर रोक लगा दी थी. तब से सरकारी अधिकारी नियमित रूप से अतिक्रमण रोधी अभियान चलाते रहते हैं और ऐसे घर गिराते रहते हैं. वहां रहने वाले लोगों को अक्सर बिना किसी पूर्व सूचना के उजाड़ दिया जाता है. रघु बार-बार उजाड़े जाने को लेकर कहते हैं, “वे [सरकारी अधिकारी] कुछ नहीं कहते. कोई बातचीत या संवाद नहीं करते हैं. बस आते हैं और हमारे घर तोड़ देते हैं तथा हमें बताते हैं कि यह सरकारी ज़मीन है.”
उनके घरों और सामानों को बिना किसी चेतावनी के तोड़ दिए जाने का मतलब होता है कि कई दिनों या महीनों तक उन्हें बिना किसी छत के रहना होगा. रुबीना (वह केवल अपने पहले नाम का इस्तेमाल करती हैं) कहती हैं, “साल 2020 में, जब उन्होंने हमारी झुग्गियों को गिरा दिया, तो हमने सर्दी के महीनों में कंपकंपाती ठंड में अपने दिन गुज़ारे. ख़ासकर, हमारे बुज़ुर्गों को बहुत परेशानी हुई. उस समय आग के एक अलाव से पांच-पांच परिवार एक साथ ख़ुद को गर्म रखने की कोशिश करते थे.”
रुबीना पुराना उस्मानपुर की निवासी हैं और उन्होंने अपना पूरा जीवन इस बस्ती के बंगाली टोले में बिताया है. वह अपने माता-पिता के साथ एक साल की उम्र में पश्चिम बंगाल से यहां आई थीं. वह कहती हैं कि जब भी घर गिरा दिया जाता है, “तो हमें सहना पड़ता है और एक फिर से अपना घर खड़ा करना पड़ता है.”
चूंकि, यहां रहने वाले अधिकतर लोग दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं, इसलिए सामानों की रखवाली और घरों को गिराए जाने से रोकने के लिए घर पर ही रुकने पर कमाई का नुक़सान होता है. रुबीना कहती हैं, “हमारे लोगों का मुख्य व्यवसाय कबाड़ी [कचरा उठाना] का काम, भीख मांगना और रिक्शा चलाना है. कई बार, हम पूरे दिन में कुछ भी कमा नहीं पाते. हम किराया कैसे भरेंगे?” वह बताती हैं कि इस इलाक़े में किराया 4,000 रुपए महीना तक है, लेकिन यहां रहने वाले लोगों के लिए राज्य द्वारा सब्सिडी पर कोई आवास मुहैया नहीं कराया जाता है.



मई 2022 में, पुराना उस्मानपुर के निवासियों को शराब की स्थानीय दुकान पर सुनने को मिला था कि आगामी 6 और 7 जून को एक बड़ा अतिक्रमण रोधी अभियान चलेगा. उनका कहना है कि इसकी कोई आधिकारिक सूचना नहीं दी गई थी.
रुबीना कहती हैं, “हमने सुना कि अगर हम नहीं हटे, तो वे [अधिकारी] सबकुछ तबाह कर देंगे.” वह अपने स्कूल जाने वाले बच्चों के लिए विशेष रूप से चिंतित है, जो पास में स्थित सरकारी स्कूल, नगर निगम प्रतिभा विद्यालय में पढ़ते हैं. यहां से जाने पर सत्र की शुरुआत में स्कूल छोड़ना होगा; और दूसरे स्कूल में प्रवेश प्राप्त करना कठिन होगा. इस कारण उनका स्कूल छूट सकता है. वह पूछती हैं, “हम अपने बच्चों की परवरिश आख़िर कैसे करें?”
नन्नी देवी ने अपना पूरा जीवन पुराना उस्मानपुर में बिताया है. वह कहती हैं कि टूटे हुए घरों के पुनर्निर्माण के लिए, उनके पास पैसे नहीं हैं. वह कहती हैं, “जब लोगों के पास खाने तक के पैसे नहीं हैं, तो हम किराए के घर का ख़र्च कैसे उठाएंगे? हम किराए के लिए पैसे कहां से लाएंगे? अपना पेट पालने के लिए लोग या तो भीख मांग रहे हैं या कचरा बीनते हैं.”
नन्नी देवी (68 वर्ष) पुराने समय को याद करती हैं, जब चारों ओर खेत थे और जमकर गेहूं की खेती होती थी. किसानों ने यहां सब्ज़ियां उगाकर भी बेचीं. वह कहती हैं, “ज़मीन पहले ऐसी नहीं दिखती थी. आपको चारों ओर लहलहाती फ़सलें मिलतीं.”


एनजीटी द्वारा खेती पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद, अतिक्रमण रोधी अभियान चलाए गए; और पिछले ढाई वर्षों में इन अभियानों में तेज़ी आई है. वह आगे कहती हैं, “धीरे-धीरे करके सभी की ज़मीन छीन ली गई. हमारा इलाक़ा साल 2021 में ध्वस्त कर दिया गया.”
नन्नी देवी ने ख़ुद के लगाए पेड़ों के नुक़सान पर अफ़सोस जताते हुए कहा, “जब घर गिराए जाते हैं, तो पेड़ भी नष्ट हो जाते है. वे [अभियान चलाने वाले] कुछ भी नहीं छोड़ते. हमारे यहां जामुन, आम, और केले के कई पेड़ हैं. मैंने उन्हें बहुत मेहनत से उगाया है.”
रघु बताते हैं कि वह जिस सपेरा समुदाय से ताल्लुक़ रखते हैं उसके ज़्यादातर लोग मज़दूरी करते हैं और कबाड़ के डीलर हैं. “हमारे पूर्वज घुमंतू थे. हमारे पास कोई पुश्तैनी ज़मीन नहीं है.” यहां के अन्य लोगों की तरह उनका भी कहना है कि अगर सरकार उन्हें कुछ ज़मीन देती, तो वे स्थायी घर बना सकते थे. नन्नी देवी उनकी इस बात से सहमत हैं और आगे कहती हैं, “उन्हें [सरकार] हमें कुछ ज़मीन देनी चाहिए, ताकि हम यहां अपने बच्चों को पाल-पोस सकें और रहने के लिए घर बना सकें. “हमें वह सहायता नहीं मिल रही है जिसकी हमें ज़रूरत है. उन्होंने हमसे खेती छीन ली है, कम से कम हमें ज़िंदा तो रहने दें.
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Editor's note
ईशना गुप्ता ने हाल ही में आंध्र प्रदेश के श्री सिटी में स्थित क्रिया विश्वविद्यालय से सामाजिक अध्ययन में स्नातक की पढ़ाई पूरी की. वह इस स्टोरी पर इसलिए काम करना चाहती थीं, क्योंकि उन्हें लगता है कि जब भी दिल्ली जैसे शहरों की बात होती है, तो मुख्यधारा की मीडिया झुग्गी बस्तियों, अनधिकृत कॉलोनियों और झुग्गी-झोपड़ी समूहों में रहने वाले लोगों की रोज़मर्रा की मुश्किलों और वास्तविकताओं की उपेक्षा करता है. वह कहती हैं: “पारी के साथ काम करते हुए मैंने सीखा कि स्टोरी के साझेदार किरदारों का नज़रिया बिल्कुल अलग होता है. जब कोई स्टोरी किसी घटना से सीधे तौर पर प्रभावित लोगों के दृष्टिकोण पर आधारित होती है, तो यह उन आवाज़ों की तरफ़ ध्यान आकर्षित करती है, जिसको अक्सर अनसुना कर दिया जाता है. यह एक ऐसा सबक़ है जो हमेशा मेरे साथ रहेगा, चाहे मेरा कार्यक्षेत्र कोई भी हो."
अनुवाद: अमित कुमार झा
अमित कुमार झा, पेशे से अनुवादक हैं. उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई की है और अब
जर्मन सीख रहे हैं.