एक फल, तीन रंग, और तीन तरह का स्वाद: कड़वा, मीठा, और खट्टा.

केरल के इडुक्की ज़िले के वनप्पुरम के किसान बेबी अब्राहम कहते हैं, “यह गुलाबी, लाल, और पीले रंग के होते हैं. गुलाबी रंग का मूटी पारम कड़वा होता है, लाल वाला मीठा, और पीला वाला मीठा और खट्टा दोनों होता है. वह आगे बताते हैं, “जो ज़्यादा कड़वा और खट्टा होता है उसमें सबसे ज़्यादा औषधीय गुण होते हैं. यह मधुमेह के मरीज़ों के लिए काफ़ी फ़ायदेमंद है. आदिवासी इसका इस्तेमाल पेट और गले से जुड़ी बीमारियों को दूर करने के लिए करते हैं.”

इस फल का नाम – मूटी पारम – ‘मूटी’ (नीचे) और ‘पारम’ (फल) से लिया गया है और यह फल तने और शाखाओं, दोनों पर उगते हैं. देखने में चमकीला होने के कारण जंगली जानवर इनकी ओर आकर्षित होते हैं. बेबी हमें बताते हैं कि जंगलों में मूटी पारम को भालू, बंदर, और हाथी खा जाते हैं. यहां तक कि कछुए को भी यह फल पसंद है. इसलिए, जंगल में पेड़ों पर यह फल कम ही देखने को मिलते हैं.

अब्राहम (67 वर्ष) को सबसे पहले, क़रीब 36 साल पहले उनके भाई ने इसके दो पौधे उपहार में दिए थे. उनके भाई को ये पौधे पश्चिमी घाट के जंगलों में रहने वाले एक आदिवासी बुज़ुर्ग मुपान से मिला था. आज उनके पास इसके 200 से अधिक पेड़ और पौधे हैं. पहली जोड़ी पौधों को उन्होंने इतने पास लगाया था कि दोनों की टहनियां एक-दूसरे से टकराने लगीं. लोगों ने इसकी अच्छी फ़सल के लिए अब्राहम को सलाह दी कि वह हर पौधे को कम से कम दो फ़ीट गड्ढे में डालें और दो पौधों के बीच कम से कम पांच मीटर की दूरी रखें. इसे किसी भी मौसम में बोया जा सकता है, हालांकि अक्सर लोग इसे मानसून के बाद लगाते हैं. उन्होंने हमें बताया, “तीन से चार साल बाद सभी पौधे फूलेंगे. पूरी तरह से विकसित पेड़ क़रीब 50 किलो फल देता है, वहीं एक छोटा पेड़ 15 किलो फल देता है.”

अपनी एक एकड़ ज़मीन में अब्राहम ने रबड़ और नील जैसी अच्छी कमाई वाली फ़सलें, मूटी पारम के फलदार पेड़, मैंगोस्टीन, रामबुतान, नींबू, और भारतीय आंवले, टैपिओका जैसी खाद्य जड़ें, हल्दी, अरारोट और जायफल जैसे मसाले लगाए हैं. उन्होंने कहा, “मेरा परिवार, यानी मेरी पत्नी, मेरा बेटा जेरिन और बेटी जेंटीना, खेती में मेरी मदद करते हैं. हम मज़दूरों को काम पर नहीं रखते हैं. नर्सरी के लिए शेड बनाने से लेकर, चट्टानों को हटाने तक, सबकुछ हम ख़ुद ही करते हैं.”

चूंकि मूटी के पेड़ों का औषधीय महत्व है, इसलिए अब्राहम इन पेड़ों में साल में दो बार जैविक खाद डालते हैं. आमतौर पर, यह काम वह सितंबर में करते हैं. “हम अधिकतम गाय के गोबर, वर्मीकम्पोस्ट और कदलापिनाकु का इस्तेमाल करते हैं, जो मूंगफली के तेल से बने होते हैं. एक बार फूल आने के बाद, मूटी के पेड़ों की ज़्यादा से ज़्यादा सिंचाई करनी होती है. इसलिए, गर्मियों में हम इन पेड़ों में तीन दिनों में एक बार पानी देते हैं.” उन्होंने बताया कि वे चमगादड़ों से बचाने के लिए इन पेड़ों के चारों ओर जाल भी लगाते हैं.

अब्राहम की नर्सरी में मूटी पारम के एक जोड़ी पौधे की क़ीमत 250 रुपए हैं. मूटी पारम (लैटिन नाम बकाउरिया कोर्टलेंसिस) को दूसरे स्थानीय नामों से भी जाना जाता है, जैसे कि मूटी कायपन, मूटी पुली, और मेराटका आदि. एक बार तोड़ने के बाद मूटी दो महीने तक ताज़ा रहता है, हालांकि अंदर का गूदा सिकुड़ जाता है. स्थानीय लोग इसके गूदे से अचार बनाते हैं और इसके छिलके का इस्तेमाल शराब बनाने में करते हैं. इसके अलावा, आदिवासी इसमें शहद मिलाकर तेन मूटी बनाते हैं, जिसका स्वाद मीठा होता है.

अब्राहम बताते हैं, “मूटी की एक ख़ासियत है. परागण के लिए मादा पौधों के पास नर पौधों का होना ज़रूरी है, नहीं तो फल अंदर से खोखला हो जाता है. परागण हवा और छोटी मधुमक्खियों के ज़रिए होता है.” लगभग चार वर्षों में, नर वृक्ष पर फूल और कुछ ही समय में मादा वृक्ष पर लाल फल निकल आते हैं, जो दिखने में अंगूर के गुच्छे की तरह होते हैं. फल जनवरी के अंत से लेकर अगस्त तक आते हैं.

अब्राहम आगे बताते हैं, “लोग [दूसरे उत्पादक] अक्सर मुझे यह बताने के लिए फ़ोन करते हैं कि उनके पेड़ों में जो फल निकलते हैं वे अंदर से खोखले होते हैं. ऐसा इसलिए है, क्योंकि आसपास कोई नर पेड़ नहीं होता है. मैं बीज से पहचान सकता हूं कि यह नर होगा या मादा. एक बार जब यह एक पौधा बन जाता है, तो इसमें अंतर करना मुश्किल होता है.” दूसरे उत्पादक, अब्राहम से अक्सर सलाह लेते रहते हैं.

मूटी पारम के पेड़ की ऊंचाई अलग-अलग होती है. जंगल में पाई जाने वाली पीले फलों वाली क़िस्म के पौधे की लंबाई 10 से 15 मीटर होती है. और अब्राहम के पास इसके जो पेड़ हैं उनकी लंबाई सात मीटर तक होती है. यह पेड़ इडुक्की ज़िले के अरक्कुलम गांव और कोल्लम ज़िले के पठानपुरम तालुक में पाया जाता है. अब्राहम ने बताया, “लोगों ने साल 2019 में कृषि मंत्री वी.एस सुनील कुमार की यात्रा के बाद से, मूटी पारम पर ध्यान देना शुरू किया.” मंत्री की यात्रा के बाद शोधकर्ताओं ने फल के बारे में और जानना चाहा. इसके बाद स्थानीय मीडिया ने भी इस ख़बर को तरजीह दी.

अब्राहम कहते हैं, “आदिवासी लोग इस फल को [केरल में] सड़क किनारे बेचते हैं. यह आपको बाज़ार में नहीं मिलेगा.” इसे ख़रीदने के लिए उत्सुक ग्राहक अब्राहम के पास आते हैं और इसे “100-150 रुपए प्रतिकिलो की दर से ख़रीदते हैं. वे ग्राहक बताते हैं कि इसका स्वाद रामबुतान, ड्रैगन फ्रूट, और अन्य बाहरी उष्णकटिबंधीय फलों जैसा होता है.” वह आस-पास के राज्यों में भी कूरियर द्वारा यह फल भेजते हैं.

चूंकि, मूटी को बड़ा होने के लिए बहुत ज़्यादा धूप और जगह की ज़रूरत नहीं होती, यह कम ज़मीन वाले लोगों के साथ-साथ क़स्बों में रहने वाले लोगों के लिए भी उपयुक्त है, और अब्राहम को उम्मीद है कि अब और भो किसान इस चमकीले रंग के फलों वाले पेड़ को उगाने के लिए आगे आएंगे.

Editor's note

जो पॉल सीएस, शिलांग की इंग्लिश एंड फॉरेन लैंग्वेजेज़ यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता और जनसंचार के अंतिम वर्ष के छात्र हैं. उन्हें मूटी पारम के बारे में पहली बार एक क्षेत्रीय किसान पत्रिका में छपे एक लेख द्वारा जानने को मिला था, जिसके बाद उन्हें इसके बारे में और जानने की इच्छा हुई. वह कहते हैं, “पारी एजुकेशन के साथ काम करते हुए मुझे लगा कि जिन कहानियों को हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं उनमें बहुत सारी जानकारियां और जटिलताएं छिपी होती हैं. इस स्टोरी को लिखते हुए मुझे बहुत सी नई चीज़ों के बारे में जानने को मिला."
अनुवाद:अमित कुमार झा
अमित कुमार झा, पेशे से अनुवादक हैं. उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई की है और अब जर्मन सीख रहे हैं.